Loading election data...

घर में औरतों पर बढ़ते हमले

।। सुनील ।। (महामंत्री, समाजवादी जन परिषद्) – महिलाओं पर अत्याचार का एक प्रमुख कारण यही है कि हमारे समाज में औरतों को अबला और असहाय बना कर रखा गया है. यदि वे खुद कमाती नहीं हैं तो ज्यादा असहाय होती हैं. – औरत इस दुनिया की एक पीड़ित और वंचित जात है. औरतों पर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 16, 2013 4:03 AM

।। सुनील ।।

(महामंत्री, समाजवादी जन परिषद्)

– महिलाओं पर अत्याचार का एक प्रमुख कारण यही है कि हमारे समाज में औरतों को अबला और असहाय बना कर रखा गया है. यदि वे खुद कमाती नहीं हैं तो ज्यादा असहाय होती हैं. –

औरत इस दुनिया की एक पीड़ित और वंचित जात है. औरतों पर अत्याचार इतने ज्यादा होते हैं, कि उसे सामाजिक समस्या के अलावा दुनिया की एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या के रूप में भी देखा जा रहा है. पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कुछ अन्य चिकित्सा संगठनों के साथ मिल कर औरतों पर होनेवाली हिंसा पर किये गये अध्ययन की रपट जारी की. इस रपट के आंकड़े चौंकानेवाले हैं.

यह अध्ययन 15 साल से ऊपर की लड़कियों व औरतों के बारे में दुनिया के कई देशों में किया गया है. इससे पता चला है कि करीब 37 फीसदी औरतों को अपने जीवन में शारीरिक या यौनिक हिंसा का शिकार होना पड़ता है. ज्यादा गंभीर बात यह है कि 30 फीसदी औरतों के साथ यह हिंसा कोई बाहरी आदमी न करके उनका साथी (पति या प्रेमी) ही करता है. जिन महिलाओं की हत्या हुई है, उनमें से 38 फीसदी मामलों में हत्या पति या प्रेमी ने ही की थी. अपने साथी के हाथों हिंसा की शिकार हुई महिलाओं में 42 फीसदी को चोट आयी.

रपट में बताया गया है कि इस हिंसा के फलस्वरूप कई बार औरतों की हड्डियां टूट जाती हैं, गर्भपात हो जाता है, जल्दी प्रसव होकर कमजोर बच्चा पैदा होता है, महिलाएं अवसादग्रस्त हो जाती हैं और आत्महत्या भी कर लेती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की महानिदेशक डॉ मार्गरेट चान ने रपट को जारी करते हुए कहा, यह रपट ताकतवर संदेश देती है कि महिलाओं के विरुद्घ हिंसा महामारी का रूप धारण करती एक वैश्विक समस्या है.

रपट से यह भी पता चलता है कि हिंसा का प्रतिशत अफ्रीका और एशिया में ज्यादा है. भारत के संदर्भ में तो यह और ज्यादा होगा, जहां ‘दहेज-हत्या’ जैसी अपराधों की विशिष्ट श्रेणी भी है तथा पिछले दिनों तेजाब हिंसा भी तेजी से बढ़ी है. अनुमान है कि भारत की करीब दो-तिहाई महिलाएं अपने जीवन में कभी-न-कभी घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं. गरीब या दलित से लेकर उच्च वर्ग तक के घरों में यह हिंसा होती है.

गौरतलब है कि यहां शारीरिक और यौनिक हिंसा की बात हो रही है. गाली-गलौज, अपमान, भेदभाव व मानसिक प्रताड़ना को भी जोड़ा जाये, तो मामला और भयानक होगा. आम तौर पर प्रबुद्घ पुरुषों को भी इसका अंदाजा नहीं होता, क्योंकि उन्हें इससे गुजरना नहीं पड़ता.

इन तथ्यों के कई मायने निकलते हैं. इतने व्यापक पैमाने पर घरेलू हिंसा अत्याचारों की शिकार औरतें ज्यादा सहानुभूति व मदद की पात्र हैं. अकसर उनके विचित्र व्यवहार या अवसादग्रस्त होने की जड़ में यह हिंसा होती है. बलात्कार, दहेज या घरेलू हिंसा विरोधी महिलाओं के लिए विशिष्ट कानूनों की जरूरत इसी कारण है. लेकिन केवल कानून काफी नहीं है. समाज का नजरिया और ढांचा भी बदलना चाहिए.

पिछले दिसंबर में दिल्ली के सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद कई अभिभावकों और समुदायों की प्रतिक्रिया हुई कि वे लड़कियों और औरतों के घर से बाहर निकलने, घूमने और पढ़ाई-नौकरी पर पाबंदियों की दिशा में सोचने लगे. कुछ ने सवाल उठाया कि वह लड़की दिल्ली में रात नौ बजे क्यों घूम रही थी? लेकिन यह रपट बताती है कि औरतें घर में भी सुरक्षित नहीं हैं और औरतों को घर में कैद रखना कोई समाधान नहीं है.

असली जरूरत इस बात की है कि इस हिंसा का मुकाबला करने के लिए औरतों को ज्यादा मजबूत बनाया जाये, समाज में उनकी हैसियत को बदला जाये और उनके प्रति पुरुषों के नजरिये में बदलाव लाया जाये. औरतें जितनी ज्यादा घर से निकलेंगी और सार्वजनिक जीवन में भाग लेंगी, उतनी ही ज्यादा उनकी हैसियत और हिम्मत बढ़ेगी.

महिलाओं पर अत्याचार का एक प्रमुख कारण यही है कि हमारे समाज में औरतों को अबला और असहाय बना कर रखा गया है.

यदि वे खुद कमाती नहीं हैं तो ज्यादा असहाय होती हैं. उन्हें बच्चों से प्रेम होता है और बच्चों का मुंह देख कर वे चुपचाप अत्याचार सहती हैं. शराब पीकर घर आकर औरतों की पिटाई भी आम बात है और यह बढ़ती जा रही है. लेकिन यह एक बीमार समाज की हालत है, जो ज्यादा दिन तक नहीं चल सकती.

यदि भारतीय समाज एवं संस्कृति के हितचिंतक परिवार की संस्था को बचाना चाहते हैं और चाहते हैं कि औरतों को ममता के उनके स्वाभाविक गुण के लिए दंडित न किया जाये तो उन्हें हमारे घरों में औरतों के प्रति हिंसा और भेदभाव को मिटाने के बारे में गंभीरता से सोचना होगा, नहीं तो यह इमारत जजर्र और अशांत ही रहेगी.

भारत में औरतों पर हिंसा काफी समय से चली आ रही है और इसे परंपरा व शास्त्रों का भी समर्थन मिलता रहा है. ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ जैसी रामचरित मानस की पंक्तियों में यही मानसिकता झलकती है. मनुस्मृति ने भारतीय समाज में शूद्रों और औरतों की हीन स्थिति को शास्त्रीय और कानूनी रूप देने की कोशिश की थी.

भारत के पौराणिक आख्यानों में परशुराम जैसे चरित्र भी हुए हैं, जिसने पिता के कहने पर अपनी मां की हत्या कर दी और क्षत्रियों का संहार करने के सिलसिले में उनकी गर्भवती स्त्रियों को भी नहीं छोड़ा. विडंबना है कि इन दिनों ब्राह्मण जाति स्वयं को संगठित करने के लिए परशुराम को आदर्श पुरुष मानकर धूमधाम से उसकी जयंती मना रही है. भारतीय समाज की पतनशील दिशा की यह एक मिसाल है.

ऐसा नहीं है कि भारतीय संस्कृति में औरतों की स्थिति हमेशा कमजोर रही है. यहां मैत्रेयी, गार्गी, लीलावती, संघमित्र, रजिया सुल्तान, मीराबाई, दुर्गावती, अहिल्याबाई, लक्ष्मीबाई, सावित्रीबाई फुले, पंडिता रमाबाई, सरोजिनी नायडू जैसी महिलाएं हुई हैं. जिन दिनों दुनिया के कई देशों में महिला शासक के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था, उन दिनों इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री हुईं. लेकिन भारतीय समाज में स्त्रियों और शूद्रों को दबाने और वंचित रखने की धारा प्रबल रही है. भक्ति आंदोलन और राष्ट्रीय आंदोलन के बावजूद यह खत्म नहीं हुई है.

समाजवादी चिंतक डॉ राममनोहर लोहिया ने काफी पहले यह कहा था कि भारतीय नारी की आदर्श सावित्री नहीं, द्रौपदी होनी चाहिए. द्रौपदी विदुषी है, उसका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व है, वह हंसी-मजाक, बहस और क्रोध कर सकती है, पतियों के अलावा कृष्ण के साथ उसकी दोस्ती है, जिसे वह मुसीबत में मदद के लिए बुला सकती है.

दूसरी ओर सावित्री का एक ही गुण है कि वह पतिभक्त है और यमराज के चंगुल से पति को छुड़ा लाती है. लेकिन इसी सती-सावित्री की कथाओं में आज भी भारतीय औरतों को उपदेश दिया जाता है कि पति चाहे जैसा हो, दुराचारी या व्यभिचारी, पत्नी उसकी एकनिष्ठा से सेवा करे. ऐसे उपदेशों में ही औरतों पर अत्याचारों की बुनियाद पड़ती जाती है.

यदि एक बेहतर, सुंदर समाज बनाना है, तो औरतों पर अत्याचारों को पुष्ट करनेवाले इन सारे प्रतीकों, परंपराओं, मान्यताओं, शास्त्रों, ढांचों और संस्थाओं की समीक्षा करने का वक्त आ गया है. तभी औरतों पर हिंसा की महामारी से समाज मुक्त हो सकेगा.

Next Article

Exit mobile version