।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।
(अर्थशास्त्री)
रुपये में गिरावट जारी है. प्रथम दृष्टय़ा यह अपमानजनक लगता है. परंतु वास्तव में यह हमारे लिए लाभप्रद है. याद करें कि स्वतंत्रता के समय एक रुपये की कीमत एक ब्रिटिश पाउंड के बराबर होती थी. तब देश ‘गरीब’ गिना जाता था. तब से आज तक रुपये का भारी अवमूल्यन हो चुका है. आज 90 रुपये में एक पाउंड मिल रहा है. फिर भी देश की गिनती प्रमुख आर्थिक शक्तियों में की जा रही है. इससे स्पष्ट होता है कि रुपये का गिरना प्रलय समान नहीं है.
1991 में भी रुपये के गिरने के सुपरिणाम सामने आये थे. तब देश के सामने विदेशी मुद्रा का संकट पैदा हो गया था. उस समय रुपये का मूल्य सरकार निर्धारित करती थी. यानी एक डॉलर खरीदने के लिए कितने रुपये देने होंगे यह रिजर्व बैंक निर्धारित करता था. एक डॉलर का मूल्य लगभग 15 रुपये होता था. इस मूल्य पर विदेशी माल सस्ता पड़ता था. जैसे एक डॉलर मूल्य के अमेरिकी पेन को खरीदने के लिए भारतीय उपभोक्ता को 15 रुपये अदा करने होते थे. उसी पेन की भारत में उत्पादन लागत 20 रुपये आती थी. इसीलिए विदेश में बना पेन भारत में बिक रहा था. फलस्वरूप देश के आयात बढ़ते गये और निर्यात दबते गये. बढ़ते आयातों के पेमेंट के लिए डॉलर की जरूरत थी. मजबूरन सरकार को सोना गिरवी रख कर ऋण लेना पड़ा. संकट कुछ समय के लिए टल गया था.
तब मनमोहन सिंह ने देश की वित्तीय बागडोर संभाली थी. सिंह ने रुपये के मूल्य पर से सरकारी नियंत्रण हटा लिया. रुपये के मूल्य को बाजार पर छोड़ दिया. निर्यातों से डॉलर कम आ रहे थे, जबकि आयातों के लिए इनकी डिमांड ज्यादा थी. सप्लाई कम और डिमांड ज्यादा होने से डॉलर चढ़ने लगा और रुपया गिरने लगा. सबक है कि आयात अधिक और निर्यात कम हो तो रुपये के अवमूल्यन में संतुलन स्थापित हो जाता है.
1991 में इस समस्या को रुपये का अवमूल्यन करके निबटाया गया था. इस बार सरकार का प्रयास है कि आयात और निर्यात के फासले को विदेशी निवेश के माध्यम से पाट लिया जाये. सरकार के सामने दो उपाय हैं. पहला, रुपये का अवमूल्यन होने दिया जाये. दूसरा, अधिक मात्र में विदेशी निवेश को आकर्षित किया जाये. प्रधानमंत्री की हाल की यूरोप यात्रा का यही उद्देश्य था.
जर्मनी में ‘डेज ऑफ इंडिया’ समारोह में उन्होंने कहा ‘हमारा दुनिया को संदेश स्पष्ट है: हम विदेशी निवेश का स्वागत करते हैं.’ यदि अधिक मात्रा में विदेशी निवेश आकर्षित करने में प्रधानमंत्री सफल हो जायें, तो भी मूल समस्या का समाधान नहीं होगा. क्योंकि एक सीमा के बाद विदेशी निवेश मिलना भी बंद हो ही जायेगा. इसलिए यही उत्तम है कि समय रहते रुपये का अवमूल्यन हो जाने दें.
दरअसल रुपये का अवमूल्यन जरूरी हो गया है, चूंकि अपने देश में महंगाई की दर अधिक है. भारत सरकार की नीति है कि नोट छाप कर सरकारी खर्चो को पोषित किया जाये. यह अर्थशास्त्र के सिद्घांतों के अनुकूल है. सरकार के पास खर्च के लिए राजस्व जुटाने के दो विकल्प रहते हैं. एक उपाय है कि सीधे टैक्स की दर में वृद्घि कर दी जाये. इसका सीधा प्रभाव जनता पर पड़ता है. इस संकट से बचने का सरकार के पास दूसरा उपाय होता है कि नोट छाप कर खर्चो में वृद्घि करे. नोट छापना भी एक प्रकार का टैक्स होता है.
मान लीजिए अर्थव्यवस्था में 100 रुपये प्रचलन में हैं. 10 किलो गेहूं बाजार में 10 रुपये प्रति किलो बिक रहा है. ऐसे में सरकार ने 20 रुपये के नोट छाप लिये और दो किलो गेहूं बाजार से उठा लिये. अब बाजार में 8 किलो गेहूं बचा, किंतु अर्थव्यवस्था में 100 रुपये प्रचलन में पूर्ववत् रहे. ये 100 रुपये के नोट 8 किलो गेहूं का पीछा करने लगते हैं. अत: गेहूं का दाम बढ़कर 12 रुपये/ किलो हो जाता है. यह रुपये का अवमूल्यन ही है.
जैसे-जैसे घरेलू महंगाई बढ़ेगी उसी अनुपात में रुपये का वैश्विक दाम गिरता है. अत: वर्तमान में रुपये के दाम में जो गिरावट आ रही है, वह सरकार द्वारा नोट छापने की नीति का परिणाम है. इससे न घबराएं. चिंता का विषय यह है कि जिन मदों पर खर्च किये गये वे उपयुक्त न थे. जैसे सरकारी ठेकों से रिसाव अधिक मात्रा में हो सके, इसलिए नोट छापे जायें, तो हमारी मुद्रा टूटती है, परंतु नोट छापने का लाभ नहीं होता. इसके विपरीत हाइवे बनाने के लिए नोट छापे जायें, तो मुद्रा टूटती है, लेकिन दूसरी तरफ इसके खर्च से लाभ भी होता है. रुपये के टूटने की चिंता करने के स्थान पर हमें सरकारी खर्चो की गुणवत्ता की चिंता करनी चाहिए.