क्यों अटका भाजपा के बहुमत के रथ का पहिया

राजनीति के जानकारों का मानना है कि झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा अकेले 44 से ज्यादा सीटें ला सकती थी, अगर सही व्यक्ति को पार्टी टिकट देती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और उसे बहुमत के लिए आजसू का सहारा लेना पड़ा. प्रभात खबर समय-समय पर पाठकों की टिप्पणी छापता रहा है. इसी क्रम में कुजात […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 29, 2014 10:56 AM
राजनीति के जानकारों का मानना है कि झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा अकेले 44 से ज्यादा सीटें ला सकती थी, अगर सही व्यक्ति को पार्टी टिकट देती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और उसे बहुमत के लिए आजसू का सहारा लेना पड़ा. प्रभात खबर समय-समय पर पाठकों की टिप्पणी छापता रहा है. इसी क्रम में कुजात स्वयंसेवक भी लिखते रहे हैं. पढ़िए उनकी बेबाक टिप्पणी.
कुजात स्वयंसेवक
‘‘कोई बुरा प्रत्याशी केवल इसलिए आपका मत पाने का दावा नहीं कर सकता कि वह किसी अच्छे दल की ओर से खड़ा है. दल के ‘हाईकमान’ ने ऐसे व्यक्ति को टिकट देते समय पक्षपात किया होगा. अत: ऐसी गलती को सुधारना मतदाता का कर्तव्य है.’’
– पं दीनदयाल उपाध्याय/पॉलिटिकल डायरी पृष्ठ – 151, 11 दिसम्बर 1961
‘‘ और लोकतंत्र में ऐसे ‘पक्षपात’ को सुधारने का सबसे अच्छा तरीका पार्टियों द्वारा उतारे गये गलत उम्मीदवारों को धूल चटाना ही हो सकता है. सो, प्रबुद्घ मतदाताओं ने टिकट देने की प्रक्रिया में झारखंड प्रदेश भाजपा के कर्णधारों, संघ के माननीयों एवं सत्ता के दलालों द्वारा गलत फीडबैक दिये जाने के फलस्वरूप पार्टी हाईकमान के बरते गये पक्षपात को सुधारने की भरसक कोशिश की है. लगभग डेढ़ दर्जन सीटों पर मतदाताओं ने भाजपा के टिकट से नवाजे गये वैसे उम्मीदवारों को जमीन सुंघा दिया, जो सत्ता-पिपासा की तृप्ति के लिए दल-बदल कर इस पार्टी में आये थे.
जो जमीनी नहीं आसमानी थे और जन-सरोकारों से जुड़े रहने की जगह पार्टी-नेताओं एवं संघ के प्रचारकों-अधिकारियों की गणोश-परिक्रमा की बदौलत टिकट ले उड़े थे. नौकरशाह रहे वैसे प्रत्याशियों के मंसूबे भी मिट्टी में मिल गये, जिनके बारे में कार्यकर्ताओं के अंदर यही राय थी कि वे उनके हक मारते हुए भ्रष्ट तरीकों से अजिर्त धन से भाजपा-टिकट खरीद कर चंपत हो गये हैं. भाजपा के घोषित सिद्घांतों-आदर्शो व स्वस्थ परंपराओं को ठेंगा दिखला कर दल-बदलुओं, भ्रष्टाचारियों व भ्रष्टाचार के पोषकों को पार्टी टिकट देने की बेईमानी को कार्यकर्ताओं एवं मतदाताओं ने स्थान-स्थान पर पटकनी देकर लोकतंत्र की ताकत को जता दिया. जनतंत्र की इस महान महिमा को प्रणाम! संघ-भाजपा के उच्चादर्शो को धूमिल करने में लगे नेताओं, संगठन मंत्री ‘भाई-साहबों’ एवं संघ के मठाधीशों व प्रचारकों के चाल-चरित्र-चेहरे को पहचानते हुए एवं इनकी कृपा से टिकट पाकर चुनाव- मैदान में आ धमके लुटेरों एवं दल के लिए जीवन खपाने वाले कार्यकर्ताओं को दास समझ कर उनका शोषण करने वाले तत्वों के मानमर्दन करने वाले स्वयंसेवक- कार्यकर्ताओं का अभिनंदन!
झारखंड में भाजपा के अपने पूर्ण बहुमत के बूते स्थिर सरकार बनाने के पूरे आसार रहे. पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी ने झारखंड की 14 में से 12 सीटें जीतीं. राज्य के 56 विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी को निर्णायक बढ़त मिली थी, लेकिन केंद्र प्रदेश के भाजपा व संघ के कर्णधारों ने इस बढ़त को संपन्न विधानसभा चुनाव तक कायम रखने के कार्यकर्ताओं के प्रयासों पर पानी फेर दिया. जनता एवं कार्यकर्ताओं की भावनाओं को रौंद कर 81 सीटों की अपेक्षाकृत छोटी विधान सभा वाले झारखंड के दर्जन से ज्यादा सीटों पर पार्टी द्वारा उतारे गये घटिया, भ्रष्ट और कमजोर चेहरों ने लोगों के उत्साह को ठंडा कर दिया, जिससे इन सीटों पर पार्टी औंधे मुंह गिरी.
अगर पार्टी के नेतृत्व वर्ग एवं संघ के माननीयों ने उम्मीदवारों के चयन में पक्षपात की जगह पारदर्शिता बरती होती और कथित रूप से भाजपा ने -टिकटों को बाजार में क्रय-विक्रय की वस्तु नहीं बनाया होता, तो कोई कारण नहीं कि इस विधानसभा चुनाव में पार्टी द्वारा निर्धारित मिशन 44+ का लक्ष्य पूरा नहीं होता, लेकिन लगता है कि अपने नेतृत्व-वर्ग की करतूतों का खामियाजा भुगतना ही प्रदेश के पार्टी-कार्यकर्ताओं एवं जनता की आज नियति है. आज जो भाजपा की जीत का आंकड़ा 37 पर आकर अटक गया और प्रदेश सरकार में आजसू के रोजमर्रा नखरे ङोलने, बारगेनिंग के सामने झुकने तथा रोज-रोज ब्लेकमैल होने के भावी परिदृश्य साफ-साफ नजर आ रहे हैं, वह टिकट वितरण प्रक्रिया में अपनायी गयी डंडीमारी का ही दुष्ट प्रतिफल है. मलाल इस बात का है कि झारखंड में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पार्टी के पक्ष में बनाये गये दमदार माहौल की हवा पार्टी के अपने ही नेताओं ने निहित स्वार्थों के वशीभूत हो निकाल दी, जिसका परिणाम पार्टी को मिले अधूरे जनादेश के रूप सामने है.
कार्यकर्ताओं की आंखों में धूल झोंकने के लिए निर्वाचन-क्षेत्रों में सर्वे एवं पार्टी के अंदर रायशुमारी के चिरपरिचित स्वांग रचे गये, लेकिन उम्मीदवार-चयन की निर्णय-प्रक्रिया में पार्टी के ऊपर कुंडली मार कर बैठे प्रदेश संगठन मंत्री समेत पार्टी की चौकड़ी ने ‘मिल-बांट कर खाओ’ की नीति अपनायी. जिसका जहां चला, उसने अपना सिक्का चलाया, भले पार्टी का सिक्का मतदाताओं के बीच खोटा क्यों न सिद्घ हो जाए! इस हालत में प्रदेश में पार्टी के पूर्ण बहुमत की संभावनाओं की भ्रूण-हत्या भाजपा के अश्वत्थामाओं के हाथों होनी तो अवश्यंभावी ही थी.
अब कोई बतलाये कि सर्वे या रायशुमारी का क्या मतलब जबकि कार्यकर्ताओं एवं जनता के बीच उम्मीदवारों की वास्तविक स्थिति को नजरअंदाज कर दर्जन भर से अधिक विधानसभा क्षेत्रों में प्रदेश भाजपा की चौकड़ी ने अपनी निजी मर्जी थोप दी? आखिर किस सर्वे या रायशुमारी में सरायकेला से गणोश महली जैसे दागी छविवाले को टिकट देने की राय सामने आयी होगी, जबकि भाजपा राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने की बात करती है? इस पर भी श्री महली विजय के ताज से वंचित ही रहे. चक्रधरपुर में संघ-शिक्षा-वर्ग प्रशिक्षित चुमनु उरांव को टिकट नहीं देकर नवमी उरांव को क्यों दिया गया, जहां पार्टी 38 हजार के भारी अंतर से पराजित हुई? डाल्टेनगंज में संघ के माननीयों ने कई सक्षम-जमीनी नेताओं के रहते मनोज सिंह जैसे अराजनीतिक स्वभाव वाले दोयम दर्जे के उम्मीदवार को ‘परम वैभव पर पहुंचाने की जुगाड़’ भिड़ायी, जिन्हें जनता ने साफ तौर पर नकार दिया, और वे तीसरे स्थान पर पहुंच गये.
हटिया में दल के सिद्घांतों-विचारों-आदर्शो में रचे-बसे अनेकानेक नेताओं-कार्यकर्ताओं के रहते भाजपा के भाईसाहबों की आंखें ग्लैमर के चकाचौंध में चौंधिया गयीं, लेकिन मतदाताओं ने ‘दूध का दूध, पानी का पानी’ निर्णय कर दिया. मांडू में तो ‘हंस चुगेगा दाना-तिनका, कौआ मोती खायेगा’ की उक्ति को चरितार्थ किया गया, जहां पार्टी ने रंजीत सिन्हा जैसे संगठन एवं समाज समर्पित कार्यकर्ता की जगह रातों-रात झंडे-नारे टोपी बदल कर कांग्रेसी से भाजपाई हो गये कुमार महेश सिंह जैसे एक समय के संघ-भाजपा-बीएमएस पर कहर ढाने वाले शख्स पर संघ के एक भारी भरकम अधिकारी एवं प्रदेश संगठन मंत्री की कृपा से नजरे इनायत की.
लेकिन महेश सिंह के आतंक को ङोल चुके निष्ठावान कार्यकर्ताओं के आक्रोश में यहां पार्टी निबट गयी तो क्या आश्चर्य? गोमिया से पुराने जनसंघी और कई बार क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके साफ-सुथरी राजनीति करने वाले छत्रुराम महतो की जगह कांग्रेस से दल-बदल करा कर माधवलाल सिंह को भाजपा ने चुनाव मैदान में उतारा, जिनके लिए गाली ही मुंह का श्रृंगार है, जिन्हें ङोलना कार्यकर्ताओं के लिए भारी मुश्किल पड़ रहा था. सो, यहां भी गयी भैंस पानी में!
उधर, संथाल की जामा सीट पर विद्यार्थी परिषद से आये भाजपा अनुसूचित जन जाति मोर्चा तथा युवा मोर्चा के राष्ट्रीय पदाधिकारी रहे एडवर्ड सोरेन जैसे समर्पित कार्यकर्ता की उपेक्षा कर सुरेश मुमरू को लाया गया, जो जेएमएम के हाथों पिट गये. बहरागोड़ा में डॉ दिनेशानंद गोस्वामी जैसे जड़ों से कटे व्यक्ति को उम्मीदवार बनाने के क्या मतलब, जबकि वे जमशेदपुर लोकसभा उपचुनाव में बुरी तरह जमानत गंवा चुके थे और यहां भी वे बुरी तरह पराजित हुए. बहरागोड़ा में भाजपा ने डॉ दिनेश षाड़ंगी जैसे साफ-सुथरे काबिल नेता की बलि डॉ गोस्वामी जैसे आसमानी नेता के लिए पहले ही चढ़ा दी थी.
जरमुंडी में अभयकांत प्रसाद जैसे चुके हुए नेता को चुनाव में उतार कर भाजपा को क्या हासिल हुआ सिवा बुरी तरह हारने के? कोई बतलाये कि चाईबासा और धनवार में एक से एक निष्ठावान, जमीनी व संघर्शषील कार्यकर्ताओं के रहते जेबी तुबिद एवं लक्ष्मण सिंह जैसे पूर्व नौकरशाहों को किस आधार पर टिकट दिये गये? किसने चलाया यहां चमड़े का सिक्का, जबकि दोनों महानुभाव बुरी तरह खेत रहे. संथाल के ही बरहेट और लिट्टीपाड़ा में दलबदल करा कर भाजपा से उतारे गये हेमलाल मुमरू और साइमन मरांडी को जनता ने साफ रिजेक्ट कर दिया. प्रदेश की अन्य कई अन्य सीटों पर भी इन्हीं कारणों से सारा गुड़ गोबर हुआ. पूरे कोल्हान में भाजपा के रंग में भंग डालने का जिम्मेवार कौन है? ऐसा क्यों हुआ कि प्रदेश की राजनीति के ‘अजरुन’ का शौर्य अपने ही क्षेत्र में चूक गया और मोदी लहर के बावजूद वे धराशायी हो गये?
चुनाव परिणामों में आजसू से तालमेल की निर्थकता भी सामने आयी. अगर भाजपा अकेले लड़ती, तो सिल्ली, चंदनक्यारी और टुंडी जैसी सीटें पार्टी की झोली में आतीं. सिल्ली में अमित महतो, चंदनक्यारी में अमर बाउरी और टुंडी में राजकिशोर महतो भाजपा-टिकट नहीं मिलने के चलते या ये सीटें आजसू के खाते में डाल दिये जाने के कारण भाजपा छोड़ कर जेएमएम, जेवीएम और आजसू से लड़े एवं जीतने में सफल हुए. अकेले लड़ने पर तमाड़, बड़कागांव और लोहरदगा जैसी सीटें भी भाजपा के ही पाले में जातीं, क्योंकि यहां पार्टी के पास सक्षम उम्मीदवार थे और मोदी के करिश्मे का असर सर्वत्र था. आजसू के वोट भाजपा की ओर शिफ्ट कहां हुए? बेरमो, गोमिया जैसी सीटों पर गंठबंधन के कारण टिकट से वंचित आजसू के नेता अलग-अलग पार्टियों से चुनाव-मैदान में आ डटे.
जाहिर है कि संघ-भाजपा के नीति-नियंताओं ने आजसू से तालमेल और भाजपा प्रत्याशी तय करने की प्रक्रिया में जो निहित स्वार्थो से परिपूर्ण नजरिया अपनाया, दल की जगह दिल में बैठे चमचों-चापलूसों-दरबारियों-भ्रष्टाचारियों को दर्जन-डेढ़ दर्जन सीटों पर उतार कर और आजसू से तालमेल कराके सारा खेल बिगाड़ डाला. प्रदेश में उम्मीदवार चयन की पूरी प्रक्रिया पर निगरानी रखने का जिम्मा पार्टी महासचिव श्री भूपेंद्र सिंह यादव, प्रदेश प्रभारी श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत, केंद्रीय मंत्री श्री धर्मेद्र प्रधान तथा राष्ट्रीय सह-संगठन मंत्री श्री सौदान सिंह का रहा. इनमें से एक-दो ऐसे हैं, जिनका खुद का कोई जनाधार नहीं है.
श्री रावत प्रदेश में अभी नये आये हैं, जिन्हें प्रदेश की राजनीतिक तासीर एवं अलग-अलग क्षेत्रों के कार्यकताओं-नेताओं की वास्तविक स्थिति को अभी समझना है. श्री धर्मेद्र प्रधान अपने मंत्रलय की व्यस्तता के बीच समय कहां निकाल पाये कि वे टिकट-वितरण को न्यायसंगत बनाने में अपना योगदान दे पाते? उधर अपने निरंतर प्रवास और कार्यकर्ताओं से तादात्म्य के बूते पार्टी के राष्ट्रीय मंत्री श्री विनोद पांडेय इस प्रदेश की राजनीतिक स्थिति एवं पार्टी के लोगों को भली-भांति समझने लगे थे, लेकिन पता नहीं उन्हें किस योजना से चुनाव के ऐन मौके पर प्रदेश से चलता कर दिया गया?
लेकिन अफसोस इस बात का है कि माननीय सौदान सिंह जैसे मंङो हुए राजनीतिक खिलाड़ी जो कि छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के आर्किटेक्ट एवं स्थायित्व के आधार स्तंभ हैं, उनकी पैनी नजर से इतनी बड़ी संख्या में विधानसभा सीटों पर आत्मघाती चूक कैसे हुई, जिसका खमियाजा झारखंड भाजपा के अधूरे जनादेश के रूप में सामने है. छत्तीसगढ़ के साथ ही देश के मानचित्र पर उभरा झारखंड अपने उक्त पड़ोसी राज्य के समान ही पूर्ण बहुमत की भाजपा सरकार के कल्पवृक्ष की छाया में चौतरफा विकास के सौभाग्य से वंचित रह गया. लोकसभा चुनाव से ही प्रदेश में मोदी के प्रभामंडल से भाजपा के पक्ष में जो सुनामी चली थी, उसे हेमंत सोरेन द्वारा थाम लेना भाजपा के नीति-नियंताओं की संपूर्ण विफलता है.
पार्टी ने विधानसभा चुनाव-प्रचार अभियान में पूर्ण बहुमत को ही प्रदेश के संपूर्ण विकास की आधारशिला बतलाया, जो कि एक हकीकत है. अब जबकि आधारशिला ही खंडित हो, तो फिर कैसे होगा संपूर्ण विकास? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने झारखंड के अपने चुनाव-अभियान में भ्रष्टाचार-उन्मूलन करते हुए सुशासन और समग्र विकास की आस जगायी. ‘न खायेंगे, न खाने देंगे’ का संकल्प प्रधानमंत्री ने बार-बार दोहराया है. लेकिन राजनीतिक, बारगेनिंग के उस्ताद सुदेश महतो एवं उनकी आजसू पार्टी की कृपा पर टिकी कोई भी सरकार भ्रष्टाचारमुक्त, पारदर्शी एवं जन-कल्याणकारी सुशासन दे पायेगी, यह संसार का आठवां आश्चर्य ही होगा. मुख्यमंत्री श्री रघुवर दास को बधाई, जो स्वयं एक साधारण कार्यकर्ता से ऊपर उठ कर इस मुकाम तक पहुंचे हैं. प्रदेश पार्टी संगठन के मुखिया रहते उनकी पहचान निर्णय लेने वाले नेता की रही है. देखना है वे राज्य में सुशासन एवं विकास के अवरुद्घ प्रवाह को आगे कैसे ले जाते हैं?
कोई भी दल या संगठन आखिर अपने ध्येय-मार्ग से विचलित हो लक्ष्य से चूकता कैसे है, इस संबंध में संघ एवं बीएमएस के महान विचारक दत्ताेपंत ठेंगड़ी के ये विचार स्मरणीय हैं- ‘‘ऊपर सर्वोच्च नेता, नीचे साधारण अनुयायी और बीच में कार्यकर्ता के ‘कैडर’ का अभाव, यह अवस्था नेता के अनियंत्रित व्यवहार के लिए पोषक सिद्घ होती है, क्योंकि सर्वसाधारण अनुयायी कम जागरूक और बिखरे हुए रहने के कारण नेता पर सामूहिक दबाव नहीं डाल सकते. कार्यकर्ताओं का वर्ग (कैडर) अधिक जागरूक, अधिक सुसंगठित तथा सक्रिय होने के कारण नेतृत्व की गलतियां या मनमानी का निर्भीकतापूर्वक विरोध कर उनकी त्रुटियां भी बता सकते हैं, लेकिन इन क्षमताओं के कारण ही कार्यकर्ताओं के कैडर का निर्माण नेताओं के लिए असुविधाजनक हो जाता है.’’ – कार्यकर्ता रीति-नीति, भारतीय जनता पार्टी प्रकाशन, मध्य प्रदेश, पृष्ठ-58तो अब यह समझना कतई मुश्किल नहीं कि भारतीय जनता पार्टी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बॉस लोग संगठन के अंदर कैडर-शक्ति को पंगु-विकलांग बनाने के उपक्रम क्यों करते हैं?

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