अटल बिहारी वाजपेयी और भारत रत्न
वाजपेयी और उनके सहयोगी लालकृष्ण आडवाणी ने एक ऐसे मुद्दे को हवा दी, जिसने उनकी पार्टी को तो लोकप्रिय बना दिया, लेकिन उसके कारण 3,000 भारतीय मारे गये. यह धारणा पूरी तरह फालतू है कि आडवाणी बुरे थे और वाजपेयी भले.. ऐसे किसी पुरस्कार को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जा सकता, जिसे नेल्सन मंडेला […]
वाजपेयी और उनके सहयोगी लालकृष्ण आडवाणी ने एक ऐसे मुद्दे को हवा दी, जिसने उनकी पार्टी को तो लोकप्रिय बना दिया, लेकिन उसके कारण 3,000 भारतीय मारे गये. यह धारणा पूरी तरह फालतू है कि आडवाणी बुरे थे और वाजपेयी भले..
ऐसे किसी पुरस्कार को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जा सकता, जिसे नेल्सन मंडेला और सचिन तेंडुलकर को दिया गया हो और जिसे पानेवालों में जवाहरलाल नेहरू और गुलजारी लाल नंदा भी हों. ‘भारत रत्न’ देश का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है, लेकिन इसे पानेवाले कुल 45 व्यक्तियों में 25 राजनीतिक लोग हैं. इसे राजनीति के लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड के रूप में देखा जाता है और इसे पानेवालों की सूची देख कर यह बात विशेष रूप से स्पष्ट होती है.
हमारे यहां सत्ताधारी लोग अकसर स्वयं को सम्मानित करते हैं और ‘भारत रत्न’ भी इसका अपवाद नहीं है. राजीव गांधी की कोई बड़ी उपलब्धियां नहीं थीं, लेकिन उन्हें यह पुरस्कार दिया गया, जैसे यह कोई पारिवारिक वस्तु हो, क्योंकि उनकी मां इंदिरा गांधी को भी यह सम्मान दिया गया था. महात्मा गांधी को नोबेल शांति पुरस्कार न दिये जाने की शिकायत तो भारत के लोग करते हैं, पर उन्हें भारत रत्न नहीं दिये जाने पर कम ही सोचते हैं. इससे सम्मानित लोगों की सूची देख कर लगता है कि शायद यह ठीक ही हुआ है.
हाल ही में इस सम्मान को पानेवाले अटल बिहारी वाजपेयी खुद भी इन बातों को बहुत गंभीरता से नहीं लेते थे और उन्होंने अपने घुटनों का इलाज करनेवाले डॉक्टर चित्तरंजन राणावत को देश का तीसरा बड़ा सम्मान पद्म भूषण दे दिया था. मेरी राय में हम एक राष्ट्र के रूप में इन सम्मानों को गंभीरता से नहीं लेते हैं. सैन्य बलों के साथ भी ऐसा ही है. सेना ने 1999 में 19 वर्षीय योगेंद्र यादव को मरणोपरांत अपना सर्वोच्च सम्मान ‘परमवीर चक्र’ दिया था. कुछ समय बाद ही पता चला कि हवलदार योगेंद्र यादव शहीद नहीं हुए हैं, बल्कि अस्पताल में उन जख्मों का इलाज करा रहे हैं, जिनके लिए उन्हें यह सम्मान दिया गया.
वाजपेयी एक अच्छे इंसान हैं, जिनका इरादा अकसर अच्छा रहा है और वे उस पार्टी के सबसे पसंदीदा नेता हैं, जिसमें नापसंद किये जानेवाले कई हैं. उनसे पहले ‘भारत रत्न’ पानेवाले राजनेताओं की सूची देखते हुए उन्हें यह सम्मान दिये जाने से मुङो कोई परेशानी नहीं है.
मैं कुछ उन अलग तरह की चीजों की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा, जिन्हें उनके राजनीतिक जीवन का मूल्यांकन करते समय शायद छोड़ दिया जाये. अगले कुछ दशकों में लिखी जानेवाली वाजपेयी की कोई भी जीवनी (हालांकि, भारत के लोग जीवनी लिखने की कला में ज्यादा माहिर नहीं होते हैं), के शुरू में ही एक कड़वी सच्चई का जिक्र किया जाना चाहिए. वाजपेयी और उनके सहयोगी लालकृष्ण आडवाणी ने एक ऐसे मुद्दे को हवा दी, जिसने उनकी पार्टी को तो लोकप्रिय बना दिया, लेकिन उसके कारण 3,000 भारतीय मारे गये. यह धारणा पूरी तरह फालतू है कि आडवाणी बुरे थे और वाजपेयी भले (उग्र और नरम), और यह बात इस तथ्य से साबित होती है कि सत्ता की दहलीज पर खड़े आडवाणी को अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे.
बाबरी मसजिद आंदोलन के मुख्य प्रेरक वाजपेयी थे और नरेंद्र मोदी के भी वे कोई मुखर विरोधी नहीं थे. माना जाता है कि 2002 के दंगों से वाजपेयी आहत थे, लेकिन यह सच प्रतीत नहीं होता है. मोदी के बचाव में वाजपेयी के कथन का जिक्र करते हुए मनोज मित्ता ने अपनी किताब ‘द फिक्शन ऑफ फैक्ट फाइंडिंग : मोदी एंड गोधरा’ में लिखा है, ‘मुसलिम जहां कहीं भी रहते हैं, वे दूसरों के साथ सह-अस्तित्व में रहना पसंद नहीं करते, दूसरों से मेल-जोल बढ़ाना वे पसंद नहीं करते और अपनी विचारधारा को शांतिपूर्ण तरीके से प्रचारित करने के बजाय आतंक और धमकियों के सहारे अपनी आस्था को फैलाना चाहते हैं. दुनिया इस खतरे के प्रति सचेत हो चुकी है.. गुजरात में क्या हुआ? यदि साबरमती एक्सप्रेस के निदरेष यात्रियों को जिंदा जलाये जाने का षड्यंत्र नहीं रचा गया होता, तो इसके परिणामस्वरूप गुजरात में हुई त्रसदी को रोका जा सकता था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. लोगों को जिंदा जलाया गया. इन सबका दोषी कौन था?’ कोई इससे सहमत या असहमत हो सकता है, लेकिन हिंसा पर उनके विचार इस बयान से स्पष्ट हैं.
दूसरी बात यह कि हाल के दशकों में ऐसा समय केवल एक बार ही आया, जब 1998-99 में भारत में कुल विदेशी निवेश ऋणात्मक रहा यानी निवेशकों ने अपना पैसा देश से निकाल लिया. इसका कारण पोखरण में वाजपेयी का अभियान था, जिसका नकारात्मक असर भारत के विकास और रोजगार पर पड़ा और गरीबी बढ़ी. इसका कोई खास रणनीतिक फायदा भी नहीं दिखा. आखिर 1997 के मुकाबले हमारा देश आज अधिक सुरक्षित कैसे है?
वाजपेयी को इस नुकसान का अंदाजा होना चाहिए था, क्योंकि अनिश्चितता और हिंसा व विकास को परस्पर जोड़नेवाले आंकड़े स्पष्ट हैं. भारत में पर्यटन क्षेत्र का विकास धीमा रहा है और जब भी भाजपा और कांग्रेस जैसी प्रमुख पार्टियों ने शरारत की, देश में पर्यटन उद्योग को झटका लगा है. पर्यटन में ऋणात्मक विकास के वर्ष हैं: 1984 (-8.5}), 1990 और 1991 (-1.7} दोनों बार), 1993 (5.5}), 1998 (-0.7}) और 2002 (-6}). ये दिल्ली में दंगे, बाबरी मसजिद आंदोलन और उसके परिणामस्वरूप हुए दंगे, पोखरण और गुजरात दंगे के वर्ष हैं.
वाजपेयी के व्यक्तित्व का एक अन्य पहलू उनकी कविताएं हैं, जिस ओर आम तौर पर कम ध्यान दिया जाता है. उनकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं: ‘पृथ्वी पर मनुष्य ही ऐसा प्राणी है/ जो भीड़ में अकेला, और, अकेले में भीड़ से घिरा अनुभव करता है/ क्या खोया क्या पाया जग में/ मिलते और बिछड़ते मग में/ मुङो किसी से नहीं शिकायत/ यद्यपि छला गया पग-पग में/ एक दृष्टि बीती पर डालें/ यादों की पोटली टटोलें.’
यदि आप इसे अटल जी के प्रभावशाली अंदाज में पढ़ें, तो शायद यह और भी बेहतर हो सकता था, पर मुङो इसमें संदेह है. कुछ वर्ष पहले ही एक साक्षात्कार के दौरान ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के क्रेस्ट एडीशन ने वाजपेयी और नरेंद्र मोदी की कविताओं के बारे में मुझसे पूछा था. उस बात को दोहराने से बेहतर है कि उस रिपोर्ट का जिक्र किया जाये : ‘पटेल ने कहा कि न तो मोदी और न ही वाजपेयी कोई कुशल कवि हैं. प्राकृतिक दुनिया के बारे में उन दोनों का पर्यवेक्षण कमजोर है. उनकी कविताएं साधारण हैं और उनमें गहराई नहीं है. मोदी की कविताएं वाजपेयी से कुछ हद तक बेहतर कही जा सकती हैं, क्योंकि वे अमूर्त विचारों को छूती हैं. वाजपेयी की कविताएं अकल्पनीय रूप से तुकबंदी और बोङिाल हैं.’ मैं अब भी मानता हूं कि यही सच है.
आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
aakar.patel@me.com