आंख वालों के लिए जागने का समय

साल 2014 की आखिरी तारीख! नया साल शुरू होने को है, लेकिन शुरू नहीं हुआ है, बीतता हुआ साल बीत जाने को है, लेकिन एकदम अतीत नहीं हुआ है. क्या नाम दें इसे? पौ फटने से पहले का समय कहें या सूरज ढलने के तुरंत बाद का समय? एक संधिवेला! संधिवेला का अपना अनूठा रंग […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 31, 2014 5:00 AM

साल 2014 की आखिरी तारीख! नया साल शुरू होने को है, लेकिन शुरू नहीं हुआ है, बीतता हुआ साल बीत जाने को है, लेकिन एकदम अतीत नहीं हुआ है. क्या नाम दें इसे? पौ फटने से पहले का समय कहें या सूरज ढलने के तुरंत बाद का समय? एक संधिवेला! संधिवेला का अपना अनूठा रंग और अपनी निराली शर्त होती है.

उसमें सफेद और स्याह साथ होते हैं. वहां जितनी रोशनी होती है, उतना ही अंधेरा. उम्मीदें कुलांच भरने की कोशिश में होती हैं, तो नाउम्मीदी कामनाओं की इस कुलांच को मुंह चिढ़ाती बैठी होती है. देश का पुराना मानस संधिवेला के अनूठेपन को पहचानता था. पूरब के गांवों में अब भी कहते हैं- सांझ पहर और भोर हुए सोना नहीं चाहिए. इस वेला में जागना ही कर्तव्य है.

साल की शुरुआत हुई थी, तो देश के मन का आकाश आक्रोश से लाल हो रहा था. यह नाउम्मीदी से उपजा आक्रोश था. केंद्रीय सत्ता के शिखर पर एक मौन था. भ्रष्टाचार से जर्जर, दिशाहीनता से गतिहीन, अक्षमता से लकवा-ग्रस्त. सत्ता का शीर्ष हर जरूरी सवाल से आंख चुरा रहा था. सत्ता के शिखर को गुमान था- ‘हजार जवाबों से अच्छी है मेरी खोमोशी..’. जब चुप्पी बहुत ज्यादा हो- इतनी ज्यादा कि शिकायतों को समेटते-समेटते जबान ऐंठने लगे, तब चीख उठती है. इस चीख में दबी हुई सारी शिकायतें किसी सुनामी की तरह सत्ता के शीर्ष को बहा ले जाती हैं. इस साल यही हुआ. सत्ता के बोङिाल मौन से दबी शिकायतों को एक जबान मिली. इस जबान से विकास के बोल फूट रहे थे. ये बोल सशक्त नेतृत्व देने के वादे के सहारे उठ खड़े हुए नरेंद्र मोदी के मुंह से अदा हो रहे थे. इस बोल में बहुतों ने अपने लिए कुछ सुंदर और सार्थक देखा. किसानों को लगा उनकी जेब में ‘हरे-हरे नोटों’ की हरियाली आयेगी.

नौजवानों ने सुना उनके लिए नौकरियों की बहार छायेगी. महिलाओं ने माना, असुरक्षा के भय से वे मुक्त होंगी. बुजुर्गो को पेंशन की आस लगी, बच्चों को शिक्षा की. बीमारों को लगा, अब डॉक्टर और दवाइयों की किल्लत नहीं होगी. जो आर्थिक विकास की रफ्तार को विकास का पैमाना मानते थे, उनके भीतर फिर से सालाना दहाई अंकों की आर्थिक वृद्धि की आस लगी. जो शेयर बाजार की उछाल को देश के विकास का पैमाना मानते थे, उन्हें लगा शेयर बाजार को हमेशा 20 हजारी ही रहना है अब. गृहिणियों ने माना, महंगाई से मुक्ति मिलेगी. गृहस्थों को लगा, बचत पहले से ज्यादा बढ़ेगी. नये प्रधानमंत्री ने कमान संभाली और अरसे बाद देश ने बहुमत की एक सरकार का आत्मविश्वास देखा. भारी बहुमत से नवाजा गया नेता संसद को मंदिर मान कर उसकी सीढ़ियों पर सर नवा सकता था. वह लाल किले के प्राचीर से देश को कह सकता था कि सरकार ‘बहुमत से नहीं, सबकी सहमति’ से चलेगी.

वह मां-बाप से कह सकता था, सिर्फ लड़कियों को ही नहीं, अपने लड़कों को भी टोको. इस प्रधानमंत्री को पता था, बिना शौचालय वाले स्कूल में लड़कियों का पढ़ना कितना दूभर होता है, गली में बिखरे कूड़े के ढेर से देश की आत्मछवि को कैसा नुकसान होता है! बहुत दिनों बाद देश को ऐसा प्रधानमंत्री मिला था, जो लोगों से उनकी जरूरतों की जबान में बात करता था, उनकी रोज की समस्याओं से जुड़ कर बोलता था. यह प्रधानमंत्री खुद झाड़ू उठा सकता था, यह अपने को जनता का प्रधान सेवक कह सकता था. उम्मीदों के ज्वार पर सवार नयी सरकार के मुखिया ने देश का दिल जीता और विदेश का विश्वास.

चीन, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया उसके ‘मेक इन इंडिया’ के नारे के मुरीद हुए. शांति और समृद्धि की उसकी पहल को दक्षेस के देशों ने सुना और चिर-प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान से आपसी संबंधों की राह फिर से खुलती हुई प्रतीत हुई. मोदी के जादू ने भाजपा को चुनावी महासमर में लगातार जीतनेवाली पार्टी बनाया. प्रदेशों में भाजपा की राजनीति को पंख लगे, उसने चुनावी विजय का एक तरह से कीर्तिमान बनाना शुरू किया. लेकिन उम्मीदों का यह ज्वार अब बैठने लगा है. सहमति से चलने का दावा करनेवाली सरकार संसद की अवहेलना करके अध्यादेश का रास्ता अपना रही है. किसानों की जेब में हरे-हरे नोट अभी आये नहीं हैं, लेकिन भूमि अधिग्रहण की तैयारियां शुरू हैं.

बीमार अभी चंगे नहीं हुए हैं, लेकिन सरकार ने स्वास्थ्य के बजट से 60 अरब रुपये काट लिये हैं. गांव के सबसे गरीब लोगों के भीतर जीने की आस फूंकनेवाले मनरेगा पर खतरा मंडरा रहा है. खनन के जोश में पर्यावरण पर संकट आन पड़ा है. भारत को आगे बढ़ाने के वादे से आयी सरकार पीछे लौट रही है. इतिहास की किताबों को बदलने के चर्चे हैं. जिस देश में हर धर्म के पवित्र ग्रंथों का सम्मान है, वहां किसी एक धर्मग्रंथ को राष्ट्रीय पुस्तक घोषित करने की बात कही जा रही है. घर-वापसी का अभियान उफन रहा है, और घर-वापसी के अभियान में लगे लोग देश के नये देवता के रूप में गोडसे की मूर्ति लगाने को आतुर हैं. देश के भीतर असम से अशांति की आंच उठ रही है, देश के बाहर कश्मीर से लगती सीमा पर गोलियों का चलना अभी मौन नहीं हुआ है. यह संधिवेला है! इसमें अंधेरे के साथ उजाला मिला होता है. आंख वालों के लिए यह जागते रहने का समय है.

Next Article

Exit mobile version