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गरीबी के आंकड़ों का सच

।। धर्मेद्र कुमार ।। (निदेशक, इंडिया एफडीआइ वॉच) देश में गरीब और गरीबी रेखा दोनों ऐसे मुद्दे हैं, जो हमेशा से बहस का विषय बनते रहे हैं. इतना जरूर था कि पहले यह बहस सिर्फ आर्थिक और राजनीतिक हलकों में नजर आती थी, सरकारी शोध और आंकड़ों में नजर आती थी. लेकिन जब से योजना […]

।। धर्मेद्र कुमार ।।

(निदेशक, इंडिया एफडीआइ वॉच)

देश में गरीब और गरीबी रेखा दोनों ऐसे मुद्दे हैं, जो हमेशा से बहस का विषय बनते रहे हैं. इतना जरूर था कि पहले यह बहस सिर्फ आर्थिक और राजनीतिक हलकों में नजर आती थी, सरकारी शोध और आंकड़ों में नजर आती थी. लेकिन जब से योजना आयोग ने गरीबी रेखा को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अपनी रिपोर्ट पेश की है, तब से गरीबी और इससे जुड़े सवाल आम लोगों के बीच भी बहस का मुद्दा बनने लगे हैं.

यह कहना गलत नहीं होगा गरीबी पर एनएसएसओ की ताजा रिपोर्ट इसी बहस का नतीजा है. नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट के मुताबिक 2004-05 से 2011-12 के आठ वर्षो के बीच देश में गरीबी की दर 15 प्रतिशत तक कम हुई है. यानी कमी दो प्रतिशत सालाना की है. यह कमी मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में आयी है. इस आंकड़े के पीछे कई कारण हैं. राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में इन कारणों की जड़ें हैं.

इन आठ वर्षो के दौरान देश के विकास की दर (हालांकि यह शहरी स्तर पर रही) कुछ ठीक रही. शहरों के विकास की वजह से गांवों के लोगों का शहरों की ओर जाना मजबूरी बनी. इस दौरान गरीबी का शहरीकरण हुआ, जिसके कारण ही ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की दर कुछ कम हो गयी.

पिछले दिनों एनएसएसओ ने ही एक और रिपोर्ट जारी की थी कि देश में बेरोजगारी कुछ बढ़ी है. यानी एक तरफ बेरोजगारी बढी, तो दूसरी ओर गरीबी में कमी आयी. यह आंकड़ा विरोधाभास पैदा करता है. लेकिन, इस विरोधाभास में ही इसकी वजह भी है. जब बेरोजगारी बढ़ती है तो धीरेधीरे प्रति व्यक्ति उपभोग में गिरावट आती है.

यह गिरावट गरीबी को यथास्थिति में रखने में सहायक बनती है. साथ ही शहर गये लोगों की कमाई का कुछ पैसा गांव आने से ऐसा लगने लगता है कि वहां गरीबी की दर में कमी हुई. गांवों के जो गरीब थे, वे शहर में चले आये, इससे हुआ यह कि शहरों में गरीबों की संख्या में वृद्धि हो गयी. यही वजह है कि एनएसएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक शहरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी स्तर में कमी आयी है.

इस रिपोर्ट के अध्ययन के बाद लगता है कि यह चुनाव से पहले एक तरह से आंकड़ों की बाजीगरी है. क्योंकि ऐसे सर्वेक्षणों के आधार पर ही केंद्र राज्यों के लिए बजट आवंटित करता है. एक और बात यह कि यह आंकड़ा राष्ट्रीय स्तर पर है, जबकि देश में कई बीमारू राज्य हैं, जहां विकास कम हुआ है और वहां ज्यादा गरीबी है. रिपोर्ट के मुताबिक यह आंकड़ा बिहार, ओड़िशा, राजस्थान और मध्य प्रदेश के लिए ज्यादा है.

गौरतलब है कि जो विकसित राज्य हैं वहां की मात्र दो तिहाई जनसंख्या के पास बीपीएल कार्ड है, जबकि कम विकसित राज्यों में इससे बड़ी जनसंख्या के पास बीपीएल कार्ड है. ऐसे में अगर कम विकसित राज्यों के आंकड़ों पर गौर करें, तो कई विरोधाभास नजर आयेंगे. मेरा मानना है कि केंद्र सरकार की अपेक्षा राज्य सरकारें गरीबी की दर और अन्य सामाजिक प्रक्षेत्रों की स्थिति के बारे में ज्यादा अच्छे तरीके से बता सकती हैं. इसके आंकड़े के आधार पर ही उनके लिए योजनाएं बनायी जानी चाहिए.

ऐसे में इन आंकड़ों के दो गंभीर परिणाम हो सकते हैं. पहला यह कि पिछड़े राज्यों के फेडरल फ्रंट बनाने की जो बात चल रही और ये राज्य गरीबी के आधार पर केंद्र विशेष पैकेज को लेकर लगातार जो दबाव बनाये हुए है, उसको धक्का लग सकता है. क्योंकि इन आंकड़ों के आलोक में बीमारू राज्यों की राजनीतिक मांग खारिज हो सकती है.

केंद्र को यह कहने का मौका मिल गया है कि ऐसे राज्यों में गरीबी की दर दिनोंदिन कम हो रही है, तो फिर ज्यादा बजट की जरूरत ही क्या है! दूसरा यह कि यह आंकड़ा देश में गंभीर राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिणामों को जन्म दे सकता. इससे डेवलपमेंटल इनजस्टिस बढ़ेगा. इसलिए केंद्र सरकार को चाहिए कि सिर्फ एनएसएसओ या राष्ट्रीय स्तर पर आयी ऐसी रिपोर्टो के आधार पर राज्यों के लिए बजट आवंटित करे.

देश में गरीबी की दर घटने को लेकर लोगों की यह धारणा कुछ हद तक सही हो सकती है कि केंद्र द्वारा चलायी जा रही मनरेगा जैसी योजनाओं का इस आंकड़े में योगदान है. लेकिन इन योजनाओं से कितना और किस तरह गरीबी दर में कमी रही है, यह दावा एक तरह के विवाद को ही जन्म दे रहा है, क्योंकि ऐसी योजनाओं के क्रियान्वयन और इनमें भ्रष्टाचार पर अकसर सवाल उठता रहा है. सही तथ्य तक पहुंचने के लिए अभी और भी अध्ययन करने की जरूरत है.

(बातचीत : वसीम अकरम)

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