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कंप्यूटर और मोबाइल ने आपको सारी दुनिया से जोड़ा है. आपके मोबाइल फोन में है नया डिजिटल इंडिया. इसके सहारे सांप्रदायिकता और संकीर्णता भी बढ़ी है. यह दोधारी तलवार है. लेकिन दोष इस फोन का नहीं किसी और का है.. हमारे देश की सवा अरब की आबादी में पांच से दस करोड़ लोगों ने कल […]

कंप्यूटर और मोबाइल ने आपको सारी दुनिया से जोड़ा है. आपके मोबाइल फोन में है नया डिजिटल इंडिया. इसके सहारे सांप्रदायिकता और संकीर्णता भी बढ़ी है. यह दोधारी तलवार है. लेकिन दोष इस फोन का नहीं किसी और का है..

हमारे देश की सवा अरब की आबादी में पांच से दस करोड़ लोगों ने कल रात नये साल का जश्न मना कर स्वागत किया. इतने ही या इससे कुछ ज्यादा लोगों को पता था कि नया साल आ गया है, पर वे इस जश्न में शामिल नहीं थे. इतने ही लोगों ने किसी न किसी के मुंह से सुना कि नया साल आ गया है और उन्होंने यकीन कर लिया. इतने ही और लोगों ने नये साल की खबर सुनी, पर उन्हें न तो यकीन हुआ और न अविश्वास. इस पूरी संख्या से दोगनी तादाद ऐसे लोगों की थी, जिन्हें किसी के आने और जाने की खबर नहीं थी. उनकी यह रात भी वैसे ही बीती, जैसे हर रात बीतती थी.

देश का वास्तविक मध्यवर्ग कितना बड़ा है, इसका सही अनुमान नहीं है, पर साल 2011 में अमेरिकी थिंक टैंक ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन की एक रिपोर्ट का अनुमान था कि भारत की पांच फीसदी के आसपास आबादी को मध्यवर्ग में शामिल किया जा सकता है. यानी तकरीबन 6-7 करोड़ लोग. पिछले तीनेक साल में आये बदलाव के कारण इस संख्या को बढ़ा कर दसेक करोड़ मान सकते हैं. तकरीबन इतने ही लोग इसके करीब आने की दौड़ में हैं. ब्रुकिंग्स का अनुमान है कि सन् 2039 तक भारत के लगभग एक अरब लोग गरीबी से मुक्त होकर इस तबके में शामिल हो चुके होंगे. दुनिया की सबसे बड़ी मध्यवर्गीय आबादी भारत में होगी. अखबार में इन पंक्तियों को जो भी पढ़ पा रहा है, वह या तो इस वर्ग का हिस्सा है या इसमें शामिल होने की दिशा में है. हमने जो पाया या खोया है, उसमें उसका योगदान है. अगले 25 साल में हम जिन एक अरब लोगों को गरीबी के फंदे से मुक्त होकर इनकी टोली में शामिल होने का अनुमान लगा रहे हैं, वह इनके सहयोग से ही संभव होगा.

पिछले दो-तीन साल में भारत के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षितिज पर जो बदलाव आये हैं, वे इस साल और मुखर होकर सामने आयेंगे. साल 2011 की जनवरी में हमें मिस्र और ट्यूनीशिया के मध्यवर्ग में असंतोष की खबरें मिली थीं. उसी साल गांधी के निर्वाण दिवस यानी 30 जनवरी को भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन की नींव पड़ी थी. उस रोज बगैर किसी बड़ी योजना के देश के 60 शहरों में अचानक भ्रष्टाचार-विरोधी रैलियों में भीड़ उमड़ पड़ी. उसी साल अमेरिका में ऑक्युपाई वॉलस्ट्रीट आंदोलन शुरू हुआ. यूरोप के अनेक शहरों में ऐसे आंदोलन खड़े हो गये. आंदोलन एक सच की ओर इशारा कर रहे हैं, जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था दूसरे सच को सामने ला रही है. चीन और अब भारत तेजी के साथ आर्थिक विकास की राह पर हैं. वहां एक नये मध्यवर्ग का जन्म हो रहा है, जो जागरूक नागरिक है. इसी मध्यवर्ग को साथ लेने के बाद गांधी का आंदोलन चला था. यही मध्यवर्ग नक्सली आंदोलन का वैचारिक आधार था. यही मध्यवर्ग सत्तर के दशक के भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन में शामिल था.

आर्थिक विकास और सामाजिक वितरण को लेकर बहस भी है. क्या चीन की तेज आर्थिक प्रगति ने ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी पैदा की है? क्या भारत में किसानों की आत्महत्या के पीछे नव-उदारवादी आर्थिक नीतियां हैं. साम्यवाद किनारे चला गया, पर पूंजीवाद की विजय भी नहीं हुई है. चीन में कम्युनिस्ट पार्टी और राज-व्यवस्था वैश्वीकरण के विस्तार का द्वार खोल रही है. क्यों, क्या मजबूरी है? ऐसा नहीं कि चीनी समाज सोच-विचार नहीं करता. कुछ जवाब वह देगा और कुछ समय देगा. हमें कम से कम एक दशक का इंतजार और करना होगा.

बदलावों की दिशा राजनीतिक है और संरचनात्मक भी. इसमें विसंगतियां भारी हैं. भारत में बीमा विधेयक, जीएसटी और आयकर अधिनियम में दूरगामी बदलाव और योजना आयोग की भूमिका को कम करने का काम मोदी सरकार की देन नहीं है, बल्कि यूपीए सरकार ने उसका सूत्रपात किया है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पिछले साल अक्तूबर में कहा कि इस वित्तीय वर्ष के अंत में भारत 2 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था बन जायेगा. हमारी अर्थव्यवस्था का आकार सन् 2006 के मुकाबले दोगुना हो गया है और 1991 के मुकाबले सात गुना. बावजूद इसके, हमारी औसत आय विश्व बैंक के अनुसार 2011-13 में 185 देशों में 124 वें स्थान पर थी. अफ्रीका के कई देश हमसे बेहतर हैं.

जनसंख्या के मोर्चे पर भारत स्थिरता की ओर बढ़ रहा है. देश के लगभग सभी इलाकों में औसत जन्मदर 2.1 के नीचे हो गयी है. यानी अगले दो दशक में हमारी जनसंख्या वृद्धि रुकेगी. लेकिन, तब तक हम जनसंख्या के लिहाज से दुनिया के सबसे बड़े देश हो जायेंगे. चिंता का विषय है कुपोषण. हाल में भारत सरकार और यूनिसेफ के एक सर्वेक्षण से पता लगा कि कुपोषण के कारण ‘अंडरवेट’ बच्चों की संख्या में सन् 2006 के बाद से 15 फीसदी की कमी आयी है, पर अब भी 30 फीसदी के आसपास बच्चे कुपोषित हैं. देश में शहरी मध्यवर्ग की राजनीतिक भागीदारी बढ़ी है. यही वजह है कि पिछले दो साल के चुनावों में मत प्रतिशत बढ़ा है और मतदाता सांप्रदायिक, जातीय और संकीर्ण क्षेत्रीय मुद्दों की अनदेखी करते नजर आ रहे हैं.

मोबाइल वीडियो पुलिस के अत्याचारों की कहानी सुनाते हैं. घूस मांगनेवालों की तसवीरें दिखाई पड़ने लगी हैं. लड़कियां ताकतवर हो रही हैं, पर बलात्कार भी बढ़ रहे हैं. सामाजिक विडंबनाएं उजागर हो रही हैं. एक नया शब्द उभरा है टेक-लिटरेसी. साक्षरता अब सिर्फ संख्याओं और अक्षरों के ज्ञान तक सीमित नहीं है. आपको सुविधाएं चाहिए तो तकनीक की मदद लेनी होगी. कंप्यूटर और मोबाइल ने आपको सारी दुनिया से जोड़ा है. आपके मोबाइल फोन में है नया डिजिटल इंडिया. इसके सहारे सांप्रदायिकता और संकीर्णता भी बढ़ी है. यह दोधारी तलवार है. लेकिन दोष इस फोन का नहीं किसी और का है.

हजारों साल से हाथ का लिखा एक महत्वपूर्ण स्मृति चिह्न् था. ‘सेल्फ पोट्र्रेट’ शब्द उन्नीसवीं सदी से प्रचलन में है, पर सेल्फी शब्द में नयापन है. फेसबुक और ट्विटर ने इसे नया आयाम दिया है. सन् 2012 के अंत में साल के ‘टॉप 10 बजवर्डस’ में टाइम मैगजीन ने सेल्फी को भी रखा था. इसके अगले साल नवंबर, 2013 में ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी ने इसे ‘वर्ड ऑफ द इयर’ घोषित कर दिया. लेकिन 28 मई, 2014 को जब शेन वॉर्न ने ‘ऑटोग्राफ’ की मौत की घोषणा की, तब लगा कि समय बदल गया है. शेन वॉर्न ने ट्वीट किया, अब फैन मेरे साथ सेल्फी खिंचाते हैं. गांव-गांव में सेल्फी खींचे जा रहे हैं. समय किसी एक तारीख को नहीं बदलता. तारीख तो बहाना है. देखते रहिए..

प्रमोद जोशी

वरिष्ठ पत्रकार

pjoshi23@gmail.com

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