फिल्में आती हैं और चली जाती हैं. लेकिन अगर कोई फिल्म किसी की धार्मिक भावनावों पर चोट करे और फिर उससे हिंसा पैदा हो, तो यह कहां तक सही है? आखिर ऐसी फिल्मों की जरूरत क्या है? मनोरंजन के और भी कई विषय हैं, जो फिल्मों में दिखाये जा सकते हैं. ताजा विवाद आमिर खान कि बहुचर्चित फिल्म पीके को लेकर है.
ऐसा कहा जा रहा है कि इस फिल्म में अंधविश्वास पर चोट की गयी है, परंतु दुर्भाग्य से फिल्म को देख कर ऐसा लगता है कि मानो पूरा हिंदू धर्म ही अंधविश्वास पर खड़ा है. अंधविश्वास के खिलाफ एक हद तक बोलना ठीक है, परंतु आप किसी संप्रदाय के हर विधान को अंधविश्वास का नाम नहीं दे सकते. इस फिल्म में गाय को चारा खिलाने से लेकर साधु-संत तक, सबको गलत करार दिया गया है. यह कहां तक सही है? आखिर खामियां किसमें नहीं होतीं?
विवेकानंद विमल, देवघर