ताकि बनी रहे करोड़ों चेहरों पर खुशी

योजनाओं का निर्माण समस्याओं का समाधान करने के लिए किया जाता है. सिर्फ अच्छी और सदिच्छापूर्ण योजनाएं बना लेना ही अपने आप में काफी नहीं होता. जरूरत इस बात की होती है कि योजनाओं को जमीन पर उतारने के लिए, उनसे बदलाव की इबारत लिखने के लिए उसी अनुपात में इच्छाशक्ति और कर्मठता भी दिखायी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 19, 2013 2:51 AM

योजनाओं का निर्माण समस्याओं का समाधान करने के लिए किया जाता है. सिर्फ अच्छी और सदिच्छापूर्ण योजनाएं बना लेना ही अपने आप में काफी नहीं होता. जरूरत इस बात की होती है कि योजनाओं को जमीन पर उतारने के लिए, उनसे बदलाव की इबारत लिखने के लिए उसी अनुपात में इच्छाशक्ति और कर्मठता भी दिखायी जाये.


आजादी
के बाद से अब तक भारत में योजनाओं की कोई कमी नहीं रही है. कभी हमने विदेशों से योजनाओं का आयात किया और उनका भारतीयकरण कर अपनी जमीन पर उतारने की कोशिश की, तो कभी खांटी देसी योजनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया. बात सामुदायिक विकास कार्यक्रम की हो, समेकित बाल विकास कार्यक्रम की, अनौपचारिक शिक्षा, मिडडे मील योजना, सार्वजनिक वितरण प्रणाली से सस्ता अनाज गरीबों को उपलब्ध कराने की या फिर समयसमय पर बेरोजगारी और गरीबी मिटाने के लिए चलाये गये विभिन्न कार्यक्रमों कीविचार और उद्देश्य के स्तर पर ये योजनाएं बेहद कल्पनाशील, लोककल्याणकारी राज्य के वादे को जमीन पर उतारनेवाली कही जा सकती हैं. ले

किन क्या मशरक में जो कुछ हुआ उसमें इस लोककल्याणकारी राज्य की छवि देखी जा सकती है! मशरक हादसे के लिए किसी व्यक्ति या प्रशासनिक अक्षमता को दोषी ठहराया जा सकता है, लेकिन अगर खराब क्वालिटी वाले मिडडे मील और उससे होनेवाली फूड पॉयजनिंग की देश के विभिन्न हिस्सों से लगातार आनेवाली खबरों पर गौर करें, तो एहसास होगा कि मशरक हादसा कहीं भी हो सकता था. शायद कहीं और भी हो सकता है. यह बेहद चिंतित करनेवाली बात है. मिडडे मील योजना बच्चों में भूख, अल्प वजन, अशिक्षा, बालश्रम जैसी समस्याओं से लड़ने के लिए शुरू की गयी दुनिया की सबसे बड़ी योजना है.

आज देश के करीब 11 करोड़ बच्चे इसका लाभ उठा रहे हैं. स्कूलों में पढ़खेल रहे बच्चे, खाना खा रहे बच्चे संभवत: आजाद भारत की सबसे खुशनुमा तसवीर है. 1995 में केंद्रीय योजना के रूप में देशभर में शुरू किये गये इस कार्यक्रम ने साधारण घरों के करोड़ों बच्चों के लिए स्कूलों का दरवाजा खोलने, उनके जीवन में उम्मीद की एक लौ जगाने का काम किया है. लेकिन, नेक इरादों के साथ शुरू की गयी दूसरी योजनाओं की तरह ही पर्याप्त मॉनिटरिंग का अभाव इस योजना में भी दिखायी देता रहा है. देश के करोड़ों मासूम चेहरों पर मुस्कान बनी रहे, वे शिक्षित होकर बेहतर भविष्य की ओर आगे बढ़ सकें, इसके लिए जरूरी है कि मिडडे मील को सिर्फ योजना की तरह नहीं, मिशन की तरह समझा जाये.

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