युद्ध के मैदान में जब वीरता पीठ दिखाती है, तो छल और छद्म की धूल उड़ती है. वहीं राजनीति के मैदान से जब कोई पार्टी अपने पुराने संबंधों को तोड़ कर पलायन करती है, तो आत्ममुग्धता, ईष्र्या, अहम्, विश्वासघात और अवसरवादिता का परिचय देती है. भाजपा से 17 वर्ष पुराने गंठबंधन को तोड़ कर अब जदयू यदि अलग हुई है, तो यह अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता है.
नरेंद्र मोदी के भाजपा चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष पद पर निर्वाचन की घोषणा होते ही उनके धुर विरोधी रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को यह रास नहीं आया और मन ही मन भाजपा से अलग होने का मन बना लिया. नीतीश को अपने इस फैसले के पीछे दो लाभ नजर आये.
पहला तो यह कि सांप्रदायिक छविवाले नरेंद्र मोदी का विरोध कर बिहार में अल्पसंख्यकों के बीच हीरो बने रहेंगे और दूसरा यह कि मोदी के विरोधियों से शाबाशी मिलेगी. नीतीश के इस फैसले से भविष्य में उन्हें कितनी सफलता मिलेगी, ये तो आनेवाले लोकसभा चुनाव और फिर 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम ही बतायेंगे. आगे देखें कि नीतीश की छद्म–धर्मनिरपेक्षता उन्हें कहां ले जाती है?
।। नंद किशोर सिंह ।।
(हजारीबाग)