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बदलते बिहार में मिड-डे मील

।। अश्विनी कुमार ।। (टीआइएसएस में प्रोफेसर है.) – इस त्रासदी में नीतीश कुमार के लिए असली संदेश यह है कि वे गवर्नेस में अफसरशाही और जनकल्याण योजनाओं की असफलता को लेकर बढ़ते जनाक्रोश से खुद को बचाएं. – मिड–डे मील से बच्चों की मौत ने न केवल देश की अंतरआत्मा को झकझोरा है, बल्कि […]

।। अश्विनी कुमार ।।

(टीआइएसएस में प्रोफेसर है.)

– इस त्रासदी में नीतीश कुमार के लिए असली संदेश यह है कि वे गवर्नेस में अफसरशाही और जनकल्याण योजनाओं की असफलता को लेकर बढ़ते जनाक्रोश से खुद को बचाएं.

मिडडे मील से बच्चों की मौत ने केवल देश की अंतरआत्मा को झकझोरा है, बल्कि बिहार में सुशासन चमत्कारिक विकास की कमजोर नींव को भी उजागर किया है. पहले बगहा में 6 थारू आदिवासियों की पुलिस फायरिंग में मौत, फिर बोधगया आतंकी हमले के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने राजनीतिक जीवन में नौकरशाही के सहारे शासन चलाने के आरोप से बचने के लिए संभवत: सबसे कठिन हालात का सामना कर रहे हैं.

मिडडे मील से बच्चों की मौत चाहे दुर्घटनावश खाने के तेल में मिलावट से हुई हो या जानबूझकर जहर दिये जाने से, बिहार जनकल्याण और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के क्रियान्वयन की असफलता का एक दुखद उदाहरण बन गया है. यह त्रासदी उन्हें हमेशा परेशान करती रहेगी, जो नीतीश कुमार को बिहार में निर्माण केंद्रित उपभोक्ता आधारित नवउदारवादी विकास मॉडल अपनाने की सलाह देते हैं. कल्याण के बदले इस तरह के विकास के प्रति लगाव वास्तव में विडंबनापूर्ण है. बिहार में मिडडे मील योजना 2005 में लागू हुई, जब नीतीश कुमार ने बदनाम लालू राज से सत्ता छीनी थी. इस योजना के लाभार्थी 68 फीसदी पिछड़े बच्चे, 18 फीसदी दलित और 50 कृषि से जुड़े मजूदर परिवार के छात्र हैं.

इसमें संदेह नहीं कि बिहार में कानून का शासन स्थापित हुआ है. बाहुबलियों को राज्य की सड़कों पर आतंक फैलाने से अस्थायी रूप से रोक दिया गया है. इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मध्यवर्ग पहले से अधिक राहत महसूस कर रहा है, क्योंकि पटना में आइआइटी, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी और सुपर-30 जैसे कई प्रसिद्ध संस्थान खुल गये हैं. यहां मध्यवर्ग ने जीवन में पहली बार शंघाई जैसे हाइवे, मॉल्स और पिज्जा के दुकान देखे हैं.

राज्य के हर कोने में एटीएम खुले हैं. महादलितों के लिए भी सामाजिक गतिशीलता के बेहतर मौके हैं. अल्पसंख्यक अधिक सुरक्षित महसूस करते हैं, क्योंकि बिहार के हालिया इतिहास में दंगे के बराबर हुए हैं. यह भी स्वीकार करना होगा कि नीतीश कुमार की खुद की जातिवादी या सोशल इंजीनियरिंग ने बाजार आधारित विकास के साथ मिल कर राज्य को अचंभित करनेवाली 13 फीसदी विकास दर तक पहुंचाया है.

यूपीए सरकार से समय पर मिले सहयोग से बिहार विशेष दरजे वाला राज्य बनने की ओर अग्रसर है. धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के कारण भाजपा के साथ भावनात्मक अलगाव के बाद नीतीश संभवत: हिंदुत्व के हीरोनरेंद्र मोदी के रथ को रोकने के लिए बेहतर स्थिति में हैं. 2014 में बिखरे जनादेश के हालात में पहले बिहारी प्रधानमंत्री के सपने को भी पूरा कर सकते हैं. यह सब अच्छा है, लेकिन इस नये बिहार की कीमत राज्य के लोग आंखों में आंसू लिये चुका रहे हैं.

बिहार में तथाकथित बदलाव के अनछुए पहलुओं पर गौर करें. नीतीश कुमार के पहले कार्यकाल में विकास दर अचंभित स्तर पर पहुंची, तो बिहार में गरीबों की संख्या में 50 लाख का इजाफा हुआ, जो किसी राज्य के मुकाबले सबसे अधिक रहा.

भारत के योजना आयोग के मुताबिक 2009-10 और 2004-05 में बिहार में गरीबी घटने की दर निम्न रही. हालांकि उन्हें यह श्रेय जाता है कि साइकिल योजना और महिला स्वयं सहायता समूहों के लिए जीविका योजना के परिणामस्वरूप 2005 के बाद प्रति व्यक्ति सामाजिक क्षेत्र खर्च बढ़ा है, लेकिन स्वास्थ्य, सफाई, शिक्षा में सामाजिक विकास सूचकांक के पैमाने पर बिहार का प्रदर्शन राष्ट्रीय स्तर से नीचे है. बिहार के 49.2 फीसदी घरों में शौचालय सुविधा होना बेहद हैरान करनेवाला है.

2011 की जनगणना के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर 74 फीसदी साक्षरता दर के मुकाबले बिहार में साक्षरता दर 63.8 फीसदी है. एक ऐसा राज्य जहां जाति, अपराध और भ्रष्टाचार सार्वजनिक सोच में लंबे समय पर बना रहा हो, सार्वजनिक जनकल्याण की मिडडे मील योजना नीतिनिर्माताओं का अधिक ध्यान हासिल नहीं कर पायी, क्योंकि बच्चों की राजनीतिक आवाज नहीं होती और वे विकास योजनाओं के निष्क्रिय लाभार्थी माने जाते हैं.

तमिलनाडु, केरल, छत्तीसगढ़ और यहां तक कि गुजरात में मिडडे मील योजना के सफल क्रियान्वयन के उदाहरणों पर गौर करें.

देश में तमिलनाडु की मिडडे मील योजना सबसे अच्छी है, जहां यह योजना पहली बार 1925 में मद्रास कॉरपोरेशन क्षेत्र में शोषित बच्चों के लिए लागू की गयी थी. 1960 के दौर में कामराज, 1980 में एमजी रामचंद्रन के प्रयास और 2001 में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के खाने के अधिकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण प्राथमिक स्कूलों में बच्चों को पका खाना मुहैया कराना कानूनी अधिकार बना. आज इस योजना के तहत 13 करोड़ बच्चों को पका खाना मिल रहा है.

खाने के अधिकार आंदोलन पर शोध और सर्वे इशारा करते हैं कि योजना से कक्षाओं में भूख और लिंगभेद में कमी आयी है, गरीब महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने में मदद मिली है. इससे सामाजिक समानता भी आयी है.

बिहार में मनरेगा में खराब प्रदर्शन के तहत जहां 2011-12 में औसत 38 दिन का काम और औसत दैनिक मजदूरी 87 रुपये थी, मिडडे मील योजना भी असफल रही है. योजना आयोग की 2010 की रिपोर्ट में बिहार में मिडडे मील योजना के खराब प्रदर्शन का विस्तृत वर्णन है. हालांकि छात्रों और स्कूलों तक पहुंच के मामले में बिहार का प्रदर्शन अच्छा है, लेकिन केवल 47 फीसदी स्कूल पक्के भवन वाले हैं, महज 43 फीसदी स्कूलों में रसोई घर है और अधिकांश की स्थिति दयनीय है. रिपोर्ट में यह भी है कि केवल 50 फीसदी स्कूलों में अनाज रखने के लिए स्टोर सुविधा है. स्थिति इतनी खराब है कि योजना आयोग के मुताबिक बिहार में केवल 8 फीसदी बच्चे रोजाना दूध पीते हैं और 42 फीसदी को कभी फल नसीब नहीं होता.

बिहार सरकार के सामने पहली चुनौती है दोषियों को कानून के शिकंजे में लाना. इस त्रासदी ने मिडडे मील योजना की गुणवत्ता सुरक्षा के पहलू को लेकर भी मौलिक सवाल खड़े किये हैं. खासकर तमिलनाडु से बिहार को नीतिगत सबक सीखने की जरूरत है. तमिलनाडु के स्कूल मेनू में अंडा देने और सभी स्तरों पर कंप्यूटराइजेशन निगरानी की व्यवस्था है. वहां के महिला सशक्तिकरण मॉडल पर भी नजर डालने की जरूरत है. राजस्थान के चुरू जिले में एनजीओ द्वारा केंद्रीयकृत रसोई व्यवस्था का क्रियान्वयन भी भीड़ में एक रोचक सफल मॉडल पेश करता है.

कई राज्यों ने कई प्रयोग किये हैं, जैसे टाटा और विप्रो द्वारा मिडडे मील मुहैया कराया जाना है. कई राज्य हैं जहां रेडीटूइट के तहत बिस्कुट, फल, दूध और पका हुआ चना बच्चों को दिया जाता है. हालांकि ये मिडडे मील योजना के क्रियान्वयन को मजबूत करने के नीतिगत कदम हैं, लेकिन इस दुखद घटना में नीतीश कुमार के लिए असली संदेश यह है कि वे गवर्नेस में अफसरशाही और जनकल्याण योजनाओं की असफलता को लेकर बढ़ते जनाक्रोश से खुद को बचाएं.

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