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‘टिकस’ से टिकट हुआ तो इतराने लगा

।। दीपक कुमार मिश्र ।। (प्रभात खबर, भागलपुर) अपने यहां टिकट पुराण काफी पुराना है. जहाज के टिकट से लेकर रेल और सिनेमा तथा डाक का टिकट तो है ही, चुनाव में उम्मीदवारी के लिए टिकट की महिमा भी निराली है.अब तो नेताओं को सुनने तक का टिकट लग रहा है. टिकट से हमारा जुड़ाव […]

।। दीपक कुमार मिश्र ।।

(प्रभात खबर, भागलपुर)

अपने यहां टिकट पुराण काफी पुराना है. जहाज के टिकट से लेकर रेल और सिनेमा तथा डाक का टिकट तो है ही, चुनाव में उम्मीदवारी के लिए टिकट की महिमा भी निराली है.अब तो नेताओं को सुनने तक का टिकट लग रहा है. टिकट से हमारा जुड़ाव पुराना है. हमारे गिरमिटिया भाई भी पानी के जहाज का टिकट लेकर ही मारीशस पहुंचे थे.

बिना टिकट का तो सफर पहले होता था और अब होता है. सिनेमासर्कस, खेलतमाशा से लेकर चिट्ठीपतरी तक सभी जगह टिकट है. टिकट के लिए पैसे तो लगेंगे ही और यह लाजिमी भी है. चुनाव में उम्मीदवारी के लिए भी टिकट मिलता है. चर्चा होती है कि कई दल चुनाव फंड में पैसे लेकर टिकट बांटते है. कई जगह टिकट को सहायता राशि का भी नाम दिया जाता है. टिकट को सहायता राशि कहने के भी अलग मायने हैं.

शायद यह पहली बार अपने देश में हो रहा है कि किसी नेता का भाषण सुनने के लिए पांच रुपये का टिकट लग रहा है. जिस दल के नेता का संबोधन सुनने के लिए टिकट लग रहा है, उस दल के इस नयी व्यवस्था के पीछे कई तर्क हैं. लेकिन अन्य दलों को बैठेबिठाये एक मुद्दा मिल गया है.

राजनीति के सूखे रेगिस्तान में यह मुद्दा अन्य दलों के लिए बारिश बन कर आया है और आयोजकों को बिना कोई खर्च किये जबरदस्त प्रचार मिल रहा है. बिहार और यूपी का एक पुराना लोकगीत है टिकस गल जाए..’- यह बिरह का लोकगीत है. इसमें पत्नी अपने पति के बाहर जाने से गमगीन है और वह कहती है कि पानी में टिकस (टिकट) गल जाये, ताकि वह बाहर नहीं जा सके. यानी टिकस को वह सौतन मान रही है.

टिकस ही उसके और पति के बीच में दूरी खड़ा कर रहा है. दूसरे राजनीतिक दल के लोग जनता और नेता के बीच टिकट को सौतन बता रहे हैं. टिकट अभी खुद पर जरूर इतरा रहा होगा. उसे अब समझ में रहा होगा कि उसकी कितनी अहमियत है. वैसे तो टिकट की अहमियत लोग वर्षो से जानते हैं. चार आने का टिकट पहले देश में कहीं भी संदेश (पत्र) पहुंचा देता था. लेकिन इस नये टिकट की बात ही निराली है. फिल्मीहीरो हिरोइन को देखने के लिए टिकट लगता था, नेताओं को देखने का सुनने का नहीं.

नेताओं का बाजार भाव इतना कमजोर था कि रैलियों में लोगों को घरों से खर्च देकर बुला कर ले जाया जाता था. लेकिन अब हमारे नेता डॉलर की तरह मजबूत हुए हैं. उनका भी बाजार मूल्य बढ़ा है, तभी तो सुनने के लिए पैसा लग रहा है.

आगे चल कर कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि हमारे नेता कहें कि हमको वोट देना है तो पांच का नोट भी देना होगा. नोट दो, तभी वोट दो, वरना नहीं. अभी टिकट और खेल दिखायेगा.

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