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शेयर बाजारों में बड़ी गिरावट के निहितार्थ

अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें कम हुईं, तो उसे भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए शुभ माना गया. कहा गया कि अब जरूरी चीजें सस्ती होंगी. थोक मुद्रास्फीति की दर बीते दिनों शून्य पर पहुंची, तो इसे तेल की गिरती कीमतों के सकारात्मक प्रभाव के रूप में देखा गया. तेल कंपनियों को हो रहे मुनाफे […]

अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें कम हुईं, तो उसे भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए शुभ माना गया. कहा गया कि अब जरूरी चीजें सस्ती होंगी. थोक मुद्रास्फीति की दर बीते दिनों शून्य पर पहुंची, तो इसे तेल की गिरती कीमतों के सकारात्मक प्रभाव के रूप में देखा गया. तेल कंपनियों को हो रहे मुनाफे के कारण उनके शेयर चढ़ रहे थे. लेकिन, तेल में बढ़ती गिरावट ने अब शेयर बाजार को भारी झटका दिया है. अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 50 डॉलर प्रति बैरल से नीचे आ गयी है और बीते पांच वर्षो की इस सबसे बड़ी गिरावट के साथ दुनियाभर के शेयर बाजार कांप गये हैं.

ऊर्जा कंपनियों के शेयरों की तेज बिकवाली के बीच डाओ जोन्स में तीन सौ से ज्यादा अंकों की गिरावट आयी है. इससे भारतीय शेयर बाजार भी तेज गिरावट का शिकार हुआ है. विशेषज्ञ कह रहे थे कि तेल की कीमतों में गिरावट अमेरिकी शह पर हो रही है. अमेरिका रूस और वेनेजुएला सरीखी तेल के निर्यात पर निर्भर अर्थव्यवस्थाओं को संकट में डाल कर उन्हें सबक सिखाना चाहता है.

शुरू में अमेरिकी तेल व ऊर्जा कंपनी के निवेशकों को लगा था कि कच्चे तेल में गिरावट से अमेरिकी अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा, लेकिन कीमतों के 50 डॉलर से नीचे पहुंचने पर उन्हें लग रहा है कि मामला तेल की आपूर्ति बढ़ने का नहीं, बल्कि खपत कम होने का है. यानी तेल और ऊर्जा कंपनियों के निवेशकों के मन में यह बात बैठ रही है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बढ़वार के दिन अभी दूर हैं. ग्रीस में उत्पन्न राजनीतिक संकट ने निवेशकों के मन में और ज्यादा भय पैदा किया है. ग्रीस में इस माह चुनाव होनेवाले हैं और जीतने की संभावना सीरिजा पार्टी की है. यह पार्टी ग्रीस को यूरोजोन से अलग रखना चाहती है. यूरोजोन में उत्पन्न ग्रीस केंद्रित राजनीतिक व आर्थिक अस्थिरता से बड़ी कंपनियां के अमेरिकी निवेशक चौकन्ने हो गये हैं. उनके कारोबार का बड़ा हिस्सा यूरोजोन से जुड़ा है. जाहिर है, यूरोजोन पर अमेरिकी निवेशकों का डोलता विश्वास भी शेयर बाजार की गिरावट का एक बड़ा कारण है. ऐसे में अपने देश में जहां छोटे निवेशकों को संभल कर कदम उठाने की जरूरत है, वहीं सरकार को विदेशी संस्थागत निवेश की स्थिति पर नये सिरे से विचार की जरूरत पड़ सकती है.

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