तय करिए, ब्रह्नागुप्तों की चलेगी या श्रीषेणों की
जो संकेत मिल रहे हैं वे वराह मिहिर, श्रीषेण, आर्यभट या विष्णुगुप्त की जगह ब्रह्नागुप्तों को स्थापित किये जाने वाले हैं. इतिहास, साहित्य, विज्ञान आदि को आस्था के नजरिये से देखने का नतीजा पड़ोस में दिख रहा है. यह हमारे समाज को ही तय करना है कि यहां ब्रह्नागुप्तों की चलेगी या वराह मिहिर और […]
जो संकेत मिल रहे हैं वे वराह मिहिर, श्रीषेण, आर्यभट या विष्णुगुप्त की जगह ब्रह्नागुप्तों को स्थापित किये जाने वाले हैं. इतिहास, साहित्य, विज्ञान आदि को आस्था के नजरिये से देखने का नतीजा पड़ोस में दिख रहा है. यह हमारे समाज को ही तय करना है कि यहां ब्रह्नागुप्तों की चलेगी या वराह मिहिर और श्रीषेणों की.
इंडियन साइंस कांग्रेस के 102वें अधिवेशन का आज आखिरी दिन है. इसमें जिस तरह की बातें हुई हैं, उन्हें यदि राष्ट्रीय गौरव के नाम पर वैज्ञानिक मान्यताओं के तौर पर स्थापित करने की मुहिम तेज होती है, तो यह अधिवेशन भारतीय समाज की विकास यात्र में बैक गीयर लगानेवाला साबित हो सकता है. कथित वैज्ञानिक तथ्यों को जिस अवैज्ञानिक तरीके से यहां प्रस्तुत किया गया है, उसे मानव विकास के पहिये को पीछे धकेलनेवाला ही कहा जायेगा. जिन लोगों ने विज्ञान को वाकई पढ़ा है या थोड़ी बहुत भी वैज्ञानिक दृष्टि विकसित कर सके हैं, वे इस साइंस कांग्रेस में कुछ कथित भारतीय साइंसदानों द्वारा पढ़े गये परचों पर या तो दुखी हो रहे होंगे या हंस रहे होंगे. मैं यहां उनकी बात नहीं कर रहा, जिन्होंने साइंस विषय लेकर सिर्फ कक्षाएं पास की हैं.
खैर छोड़िए इन बातों को. मेरे दिमाग में कुछ सवाल हैं, जिन्हें मैं यहां शेयर करना चाहता हूं. पहला सवाल यह है कि यदि राइट ब्रदर्स से पहले ही भारत में किसी ने हवाई जहाज बनाने की चेष्टा की थी, तो फिर उन प्रयासों को हमारे समाज ने आगे क्यों नहीं बढ़ाया? यदि भारद्वाज ऋषि ने वैमानिकी का पूरा विज्ञान लिख रखा है, तो फिर उसके आधार पर प्रयोगशाला में विमान निर्माण क्यों नहीं किया गया? यदि राडार विज्ञान हमारे यहां पहले ही विकसित था, तो क्यों नहीं उस ज्ञान का इस्तेमाल कर राडार बना? यदि शल्य क्रिया को लेकर सब जानकारियां हमारे पास पहले ही थीं, तो हमारे डॉक्टरों को विशेषज्ञता हासिल करने के लिए पश्चिमी विश्वविद्यालयों का रुख क्यों करना पड़ता है? कुछ लोग इसके जवाब में कहेंगे कि सैकड़ों साल की गुलामी ने हमारा सब कुछ नष्ट कर दिया और इसके लिए मुसलमानों व अंगरेजों को जिम्मेवार ठहरायेंगे. यदि इसे मान भी लिया जाये, तो सवाल यह उठता है कि करीब पांच हजार साल पुराने हड़प्पा व मोहनजुदाड़ो के अवशेषों में किसी विमान, फैक्ट्री, प्रयोगशाला या शल्य चिकित्सा यंत्रों के चिह्न् क्यों नहीं मिले? गौतम बुद्ध, सम्राट अशोक, चंद्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त आदि के पास उन्नत तकनीक से युक्त कम्युनिकेशन साधन क्यों नहीं थे? नालंदा व तक्षशिला विश्वविद्यालयों में इस ज्ञान-विज्ञान को व्यावहारिक अनुप्रयोग में लाने के लिए प्रयोगशालाएं क्यों नहीं बनीं? ज्ञान-विज्ञान के मामले में इतना उन्नत समाज गजनवी और गोरी का सामना क्यों नहीं कर पाया?
वैसे ये सवाल मूल सवाल नहीं हैं. मूल सवाल यह है कि 400 साल पहले तक हमारा समाज दुनिया के सबसे धनी समाजों में था. यानी हमारे यहां संसाधनों की कमी नहीं थी. फिर यूरोप में क्यों ज्ञान विकास की व्यवस्थित प्रक्रिया शुरू हो सकी और हमारे यहां नहीं हुई? यूरोप ज्ञान-विज्ञान को अनुप्रयोगों में उतार सका, पर हमारे पास जो ज्ञान परंपरागत रूप से था, हम उसे भी व्यवस्थित स्वरूप नहीं दे सके, क्यों? इसका जवाब समझने के लिए हमें 11वीं सदी में भारत आये ईरानी विद्वान अल-बरूनी द्वारा रचित किताब-उल-हिंद पढ़नी चाहिए. अल-बरूनी महमूद गजनवी के साथ भारत आया था. जिज्ञासा ब्लॉग पर वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी ने इसी संदर्भ में अल-बरूनी की किताब का जिक्र किया है, जो गौर करने योग्य है. ब्लॉग में लिखा गया है- ग्यारहवीं सदी में भारत आये ईरानी विद्वान अल-बरूनी ने लिखा है कि प्राचीन हिंदू वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष की अनेक परिघटनाओं की बेहतर जानकारी थी. उन्होंने खासतौर से छठी सदी के गणितज्ञ और खगोलविज्ञानी वराह मिहिर और सातवीं सदी के ब्रह्नागुप्त का उल्लेख किया है, जिन्हें वे महान वैज्ञानिक मानते थे. इन विद्वानों को इस बात का ज्ञान था कि सूर्य और चंद्र ग्रहण क्यों लगते हैं. वराह मिहिर की पुस्तक वृहत्संहिता में इस बात का हवाला है कि चंद्र ग्रहण पृथ्वी की छाया से बनता है और सूर्य ग्रहण चंद्रमा के बीच में आ जाने के कारण होता है. साथ ही, यह भी लिखा था कि काफी विद्वान इसे राहु और केतु के कारण मानते हैं. अल-बरूनी ने वराह मिहिर की संहिता से उद्धरण दिया है, ‘चंद्रग्रहण तब होता है, जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया में प्रवेश कर जाता है और सूर्य ग्रहण तब होता है, जब चंद्रमा सूर्य को ढंक कर हमसे छिपा लेता है. यही कारण है कि न तो चंद्र ग्रहण कभी पश्चिम से परिक्रमा करता है और न सूर्य ग्रहण पूर्व से. लेकिन जन-साधारण जोर-शोर से यह मानता है कि राहु का शिर ही ग्रहण का कारण है.’ इसके बाद वराह मिहिर ने लिखा है, ‘यदि शिर उभर कर नहीं आता और ग्रहण का कारण न बनता तो ब्राह्नाणों के लिए अनिवार्य रूप से उस समय स्नान का विधान न किया जाता.’ अल-बरूनी को वराह मिहिर की यह बात अजीब लगी, पर उसने इसका कारण यह माना कि शायद वह ब्राह्नाणों का पक्ष लेना चाहता था, जो वह खुद भी था. वराह मिहिर से तकरीबन सौ साल बाद ब्रह्नागुप्त ने लिखा, ‘कुछ लोगों का मत है कि ग्रहण का कारण शिर नहीं है, किंतु यह विचार मूर्खतापूर्ण है.. संसार के जन-साधारण का कहना है कि ग्रसित करनेवाला शिर ही है. वेद में, जो ब्रह्ना के मुख से निकली भगवद्वाणी है, कहा गया है कि शिर ही ग्रसित करता है.’ वराह मिहिर, श्रीषेण, आर्यभट और विष्णुचंद्र मानते थे कि यह छाया है. अल-बरूनी ने इसके बाद लिखा है, ‘मेरा तो यही विश्वास है कि जिस बात ने ब्रह्नागुप्त से उपरोक्त शब्द कहलाये (जिनमें अंतरात्मा के विरुद्ध पाप का भाव निहित है), उसमें कोई भयंकर विपत्ति रही होगी. कुछ वैसी ही जिसका सामना सुकरात को करना पड़ा था.’
गड़बड़ कहां हुई, इसकी तरफ अल-बरूनी ने स्पष्ट इशारा किया है. अब सवाल यह है कि हम इस गड़बड़ी के नतीजे को राष्ट्रीय गौरव के नाम पर स्थापित करने का काम करेंगे या फिर इस गड़बड़ी से मुक्ति पाने का कोई जतन करेंगे? जो संकेत फिलहाल मिल रहे हैं वे वराह मिहिर, श्रीषेण, आर्यभट या विष्णुगुप्त की जगह ब्रह्नागुप्तों को स्थापित किये जानेवाले हैं. इतिहास, साहित्य, विज्ञान आदि को आस्था के नजरिये से देखने का नतीजा पड़ोस में दिखाई दे रहा है. पहले की तरह अब कोई राजशाही तो है नहीं, हमारा समाज लोकतांत्रिक व्यवस्था में जी रहा है. इसलिए यह हमारे समाज को ही तय करना है कि यहां ब्रह्नागुप्तों की चलेगी या वराह मिहिर व श्रीषेणों की.
और अंत में..
ब्रह्नागुप्तों की चली तो क्या-क्या हो सकता है, इसकी एक बानगी मुङो कृष्णकांत की फेसबुक वाल पर कुछ मजाकिया पोस्टों में देखी. एक पोस्ट आप सबकी नजर- ईशवाक नूतन यानी आईजैक न्यूटन. देखा! ये शातिर फिरंगियों ने कैसे हमारी मौलिकता का सत्यानाश कर डाला? इस महान भारतीय हिंदू वैज्ञानिक का नाम तक शुद्ध संस्कृत में था, ईशवाक नूतन, जिसे बदल कर आईजैक न्यूटन किया गया. हमारे इस हिंदू महर्षि ने दुनिया में जो भी ज्ञान-विज्ञान बांटा, वह सब वेदों से निकला था. बाबा बत्र रचित ऋग्वेद के शिवसंकल्प सूक्त में यह सारी बातें लिखी हुई हैं. उसमें लिखा है कि जब नूतन ध्यान की मुद्रा में बैठा था, उसी समय एक जंबू फल उसके कपार पर गिरा और इस कारण उसे ज्ञान की प्राप्ति हुई. इस घटना के बाद तो ब्रह्नांड के तमाम रहस्यों का पता चल गया. बाद में फिरंगियों ने इस जंबू वृक्ष को सेब के पेड़ के रूप में प्रचारित किया.
राजेंद्र तिवारी
कॉरपोरेट एडिटर
प्रभात खबर
rajendra.tiwari@prabhatkhabar.in