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अतिथिदेव ओबामा क्या करेंगे पाक का?

1947 से 2011 तक पाकिस्तान दुनिया के बड़े देशों से डेढ़ सौ अरब डॉलर से अधिक वसूल चुका है. उसमें सिर्फ अमेरिका से 67 अरब डॉलर इस मुफ्तखोर मुल्क को मिला है. इसलिए भारत को पाकिस्तान के विरुद्ध अब आर्थिक नाकेबंदी का युद्ध लड़ना होगा. कूटनीति की भाषा कई बार इतनी महीन होती है कि […]

1947 से 2011 तक पाकिस्तान दुनिया के बड़े देशों से डेढ़ सौ अरब डॉलर से अधिक वसूल चुका है. उसमें सिर्फ अमेरिका से 67 अरब डॉलर इस मुफ्तखोर मुल्क को मिला है. इसलिए भारत को पाकिस्तान के विरुद्ध अब आर्थिक नाकेबंदी का युद्ध लड़ना होगा.
कूटनीति की भाषा कई बार इतनी महीन होती है कि असहमति का अंदाज-ए-बयां भी सहमति जैसा लगने लगता है. पाकिस्तान को 532 मिलियन डॉलर की अमेरिकी सहायता पर भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सैयद अकबरुद्दीन का बयान कुछ ऐसा ही है. उन्होंने कहा, ‘अमेरिकी करदाताओं का पैसा सरकार कहां खर्च करती है, यह उनका विशेषाधिकार है.’ इस पर मीर तकी मीर का एक शेर याद आता है, ‘नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए, पंखुड़ी इक गुलाब की सी है.’ ऐसा विनम्र, नाजुक, शालीन, सुकुमार असहमति वाले स्वर को विदेश मंत्रलय के इतिहास में दर्ज किया जाना चाहिए.
पाकिस्तान के विरुद्ध दहाड़ लगानेवाली मोदी सरकार की आवाज ओबामा प्रशासन पर टिप्पणी करते समय अचानक मेमने जैसी क्यों हो गयी, यह भाजपा के ‘मित्रों’ के लिए आत्ममंथन का विषय है. क्या राष्ट्रपति ओबामा को आईना दिखाने की जरूरत नहीं है कि जिस देश को आप 532 मिलियन डॉलर की सहायता दे रहे हैं, वह उस देश की सीमाओं पर गोलीबारी कर रहा है, जिसके गणतंत्र दिवस पर आप अतिथि होंगे? ऐसे पड़ोसी की वजह से भारत की समुद्री सीमाएं सुरक्षित नहीं हैं. अमेरिका के लिए दाऊद इब्राहिम, हाफिज सईद, जकीउर रहमान लखवी जैसे आतंकियों का सफाया ‘इश्यू’ क्यों नहीं है? समझ में नहीं आता कि अतिथि देवो भव: ओबामा से सवाल करने की कुव्वत सरकार में किसी के पास है, या नहीं! राष्ट्रपति ओबामा से पूछा जाना चाहिए कि 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध के समय अमेरिका ने पाकिस्तान को दी जानेवाली आर्थिक सहायता किस आधार पर अवरुद्ध कर दी थी? 1970 में पाकिस्तान ने जैसे ही परमाणु प्रसंस्करण संयंत्र लगाने की घोषणा की, तत्कालीन राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर ने खाद्य के अलावा सारी सहायता पर रोक लगा दी थी. 1990 में तब के राष्ट्रपति बुश ने पाकिस्तान को दी जानेवाली सहायता को इतने शून्य पर ला दिया था कि उसकी सांसें रुकने लगी थीं. बुश ने ऐसा इसलिए किया था, ताकि पाकिस्तान परमाणु हथियार कार्यक्रम को रोक दे. पाकिस्तान को आर्थिक चाबुक लगाने के बावजूद बुश मार्च 2006 में इस्लामाबाद गये, उसके साथ-साथ अमेरिकी राष्ट्रपति का भारत भी आना हुआ था.
बुश से बहुत पहले 1959 में अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहॉवर, भारत के साथ-साथ पाकिस्तान यात्र पर जा चुके थे. जॉनसन ने 1967 में पाकिस्तान की यात्र की थी, पर भारत नहीं आये. निक्सन 1969 में भारत आये, और पाकिस्तान भी गये. लेकिन 1978 में भारत यात्र पर आये जिमी कार्टर पाकिस्तान नहीं गये. उनके बाद बिल क्लिंटन मार्च 2000 में भारत और पाकिस्तान की यात्र पर प्रकारांतर से गये. ऐसा पहली बार हुआ कि पांच साल के अंतराल में बराक ओबामा का दूसरा दौरा भारत में हो रहा है, और अब तक उन्होंने पाकिस्तान का रुख नहीं किया है.

लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वाशिंगटन से इस्लामाबाद अरबों डॉलर नहीं जायेंगे. व्हाइट हाउस को इस बात की चिंता है कि पाकिस्तान, रूस और चीन की नयी धुरी को वह कैसे तोड़े. यह धुरी अफगानिस्तान में अमेरिका के सारे किये-कराये पर पानी फेरना चाहती है, इसलिए 532 मिलियन डॉलर का सहयोग भेजना अमेरिका की विवशता थी. हालांकि, पाकिस्तान ने वित्त वर्ष 2014 के लिए 766 मिलियन डॉलर की मांग की थी, लेकिन मिला 532 मिलियन डॉलर.

इस सहयोग के पीछे 2009 में पारित कैरी-लुगर-बर्मन ( केएलबी) बिल है. ‘केएलबी बिल’ के प्रावधानों के अनुसार, शुरू के पांच वर्षो में अमेरिका को हर साल डेढ़ अरब डॉलर पाकिस्तान को देना था. इस पैसे से पाकिस्तान को खैबर पख्तूनवाला से लेकर फाटा, बलूचिस्तान जैसे सीमाई क्षेत्रों में अल-कायदा, हक्कानी नेटवर्क, जैश-ए-मोहम्मद, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) जैसे आतंकी संगठनों के खिलाफ अभियान छेड़ना था, और उस दौरान उन क्षेत्रों से उजड़े लोगों को बसाना था. पर सच यह है कि पाकिस्तानी सेना, आइएसआइ और वहां की सरकार विदेशी पैसे के बंदरबांट में लगी है, और उसका एक बड़ा हिस्सा भारत-पाक सीमा पर आतंक की फैक्ट्री चलाने पर खर्च कर रही है. लेकिन क्या मोदी सरकार को नहीं चाहिए कि वह इसके पुख्ता सुबूत इकट्ठा कर पाकिस्तान को ‘एक्सपोज’ करे? इन सब के लिए हमारे पास अलहदा, और एक मजबूत खुफिया तंत्र की जरूरत है.
पाकिस्तान शुरू से ही दान के पैसे से अपने इन्फ्रास्ट्रर और अर्थव्यवस्था को मजबूत करता रहा है, दूसरी ओर आतंकवाद उन्मूलन की आड़ में वहां के सियासतदान खुद के लिए काले धन का अंबार खड़ा कर रहे हैं. उन्हें पता है कि जिस दिन पाकिस्तान की जमीन से आतंकवाद की खेती बंद हो जायेगी, केएलबी बिल, यूएसऐड, वर्ल्ड बैंक, एशियाई विकास बैंक (एडीबी) जैसे संगठन उसे अरबों डॉलर देना बंद कर देंगे. यह भी कम शर्मनाक नहीं है कि पाकिस्तान ने लोकतंत्र की बहाली के लिए ‘डेमोक्रेसी फंड’ बना रखा है, जिसके हवाले से वह अरबों डॉलर यूरोप-अमेरिका से वसूल चुका है. 2011 में उसे 4.15 अरब डॉलर खैरात में मिले थे, उसका सबसे बड़ा हिस्सा अमेरिका से आया था.
1947 से 2011 तक पाकिस्तान दुनिया के बड़े देशों से डेढ़ सौ अरब डॉलर से अधिक वसूल चुका है. उसमें सिर्फ अमेरिका से 67 अरब डॉलर इस मुफ्तखोर मुल्क को मिला है. इसलिए भारत को पाकिस्तान के विरुद्ध अब दूसरे किस्म का युद्ध लड़ना होगा. वह है, उसकी आर्थिक नाकेबंदी का युद्ध. यह ठीक है कि सीमा पर गोलीबारी का जवाब देने से हमारी सेना को पीछे नहीं हटना चाहिए. लेकिन एक परमाणु संपन्न पाकिस्तान से ‘फुल स्केल वार’ का क्या यह सही समय है? ऐसे बड़े फैसले ‘ईंट का जवाब, पत्थर से देंगे’ जैसे चुनावी नारों से नहीं लिये जा सकते. अभी ‘पोरबंदर शिप ब्लास्ट’ का पूरा सच आना बाकी है. मगर इस सच पर शायद ही चर्चा हुई कि 6 सितंबर, 2014 को ऐन ‘पाक डिफेंस डे’ के दिन कराची बंदरगाह से ‘पीएनएस जुल्फिकार’ नामक युद्धपोत का अपचालन (हाइजैक) एक नया ग्रुप ‘एक्यूआइएस’ (अल-कायदा इन इंडियन सबकांटिनेंट) ने करने का प्रयास किया था, जिसका मकसद अरब सागर में किसी अमेरिकी जहाज को उड़ाना था. ‘पीएनएस जुल्फिकार हाइजैक’ के खिलाफ कार्रवाई में 11 आतंकी मारे गये थे, जिनमें पाक नौसेना का एक अवकाशप्राप्त अफसर भी था. इस घटना की चर्चा इसलिए कर रहे हैं, ताकि हमारी सुरक्षा एजेंसियां अपनी जांच का दायरा थोड़ा और बढ़ाएं. समुद्री आतंकवाद एक नये रूप, और नये ग्रुप के साथ सामने आ रहा है. उसे रोकने के लिए क्या हम तैयार हैं?
पुष्परंजन
दिल्ली संपादक, ईयू-एशिया न्यूज
pushpr1@rediffmail.com

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