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चुप हो गयी एक सत्याग्रही की आवाज

डॉ कृष्ण बिहारी मिश्र वरिष्ठ साहित्यकार मूल्यों की गिरावट की गति जितनी तेज नजर आती थी, अशोकजी की पीड़ा उतनी ही गहराती थी और एक अजीब विक्षेप उनके स्नायुतंत्र को छिन्न-भिन्न कर उन्हें बुरी तरह से थका देता था.. आठ दशक की लोकयात्र पूरी कर ली थी अशोकजी ने. यानी बुढ़ौती तो आ ही गयी […]

डॉ कृष्ण बिहारी मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
मूल्यों की गिरावट की गति जितनी तेज नजर आती थी, अशोकजी की पीड़ा उतनी ही गहराती थी और एक अजीब विक्षेप उनके स्नायुतंत्र को छिन्न-भिन्न कर उन्हें बुरी तरह से थका देता था..
आठ दशक की लोकयात्र पूरी कर ली थी अशोकजी ने. यानी बुढ़ौती तो आ ही गयी थी, मगर अशोकजी की जीवनप्रियता और रचनात्मक सक्रियता पूरी तरह जवान थी.
इसलिए उनका यकायक आंख मूंद कर सदा के लिए चुप हो जाना कदाचार के सघन तमस् से निरंतर आहत दुनिया के निरूपाय लोगों के लिए असाधारण त्रसदी है, जैसे एक बड़ा सहारा अदृश्य हो गया, जैसे सुरक्षा की आश्वस्ति का आत्मीय संबल टूट गया.
नियति की त्रसद लीला अशोकजी के निजी स्तर पर लगभग दो दशकों से नाना रूपों में क्रियाशील थी. अनेक आत्मीय चरित्रों के वियोग-दंश को निरूपाय मुद्रा में अशोकजी ङोल रहे थे. मां के जाने के बाद सारा ममत्व बहनों से जुड़ गया था, जो एक-एक कर संसार से चली गयीं.
पिताजी के परलोक गमन के बाद शायद बुढ़ौती का अहसास होने लगा था. और छोटे भाई दिलीप सेकसरिया की मृत्यु ने अशोकजी को निपट अकेला बना दिया. पिछले कुछ दिनों से अशोकजी अधिक उदास रहने लगे थे. मगर युवा मित्र वार्ता-संपादक सुनील, जिनकी मृत्यु ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया था. और फिर ज्योत्सना मिलन का यकायक संसार छोड़ना, ज्येष्ठ बंधु कृती-संपादक नारायण दत्तजी की आकस्मिक मृत्यु अशोकजी की स्पर्श-कातर संवेदना के लिए बेहद त्रसद थी. पारिवारिक और सामाजिक परिदृश्य में मूल्यों का क्षरण उनको विक्षिप्त कर देता था.
यातना असह्य हो जाती थी, तो थोड़ी राहत के लिए बार-बार सोनेवाली टिकिया खाने लगते थे, विवेक को किनारे कर. लाचारी थी उनके स्वभाव की. ऐसी अनेक लाचारियों से उन्हें निरंतर जूझते रहना पड़ता था.
मूल्यों की गिरावट की गति जितनी तेज नजर आती थी, अशोकजी की पीड़ा उतनी ही गहराती थी और एक अजीब विक्षेप उनके स्नायुतंत्र को छिन्न-भिन्न कर उन्हें बुरी तरह से थका देता था. सिगरेट और सोनेवाली टिकिया एकमात्र उपचार थे उनके पास. उनकी जीवन-चर्या को देख कर भौतिक सीमा में कैद लोगों को सहज ही भ्रम होता था कि लोकाचार से उदासीन अशोकजी अपने आप में डूबे रहते थे. मगर उनके शील-स्वभाव की जिन्हें सटीक जानकारी थी, वे इस सत्य पर हस्ताक्षर करेंगे कि अपने में डूबने-खोने की बात तो दूर, अपने से यानी अपने सुख और कीर्ति से उनका कोई सरोकार नहीं था.
उनका एकमात्र सरोकार नि:स्व लोगों की पीड़ा से था और यातना-आक्रोश उन चालाक लोगों की घिनौनी चतुराई के प्रति था, जो अपने वैभव-विलास को समृद्धतर करने के लिए आम की बहुमुखी यातना की जमीन तैयार करते रहे हैं. मगर राजनीति से जुड़े लोगों की घिनौनी विलासिता- उन्हें ज्यादा उद्वेलित करती थी, क्योंकि उनका निजी आदर्श महात्मा गांधी और महामना मदन मोहन मालवीय का पाखंडशून्य जीवन था.
सुचेता कृपलानी और सुभाष बोस के अग्रज शरत् बोस की अशोकजी उच्छ्वसित कंठ से प्रशंसा करते थे, तो उसके मूल में उनकी राजनीति नहीं, धवल चरित्र और दायित्व-निष्ठा थी. अशोकजी के मानस और जीवनदर्शन को समझने के लिए उन चरित्रों को सटीक कोण से समझना जरूरी है, जिनकी अक्सर वे प्रदूषित भीड़ से अलगाकर श्लाघा सहित चर्चा करते थे. समाजवादियों में जयप्रकाश नारायण की भद्रता-शालीनता की चर्चा करते वे थकते नहीं थे.
जिस राजनीतिक दल से प्रतिबद्ध थे, उसके दार्शनिक थे राम मनोहर लोहिया और किशन पटनायक. किशनजी के आदर्श लोहिया थे, मगर अशोकजी किशनजी को अपना सजातीय मानते थे. लोहियाजी की किंचित अमर्यादित निजता पर जब-तब अंतरंग लोगों के बीच तीखी टिप्पणी करते उनका नैसर्गिक संकोच उन्हें दबाता नहीं था. इसी प्रकार अ™ोय और जयप्रकाश नारायण के आभिजात्य पर अन्यथा टिप्पणी करते फकीर मिजाज के अशोकजी को मैंने कभी नहीं सुना.
अट्ठेय की समृद्ध कर्म-साधना और प्रातिभ उत्कर्ष के प्रति उनकी श्रद्धा का स्तर बहुत ऊंचा था. इसलिए उन पर फूहड़ कटाक्ष करनेवालों से उनके संस्कार को आघात लगता था. किसी नामवर पुरुष का चारित्रिक मूल्यांकन करते अशोकजी शील को वरीयता देते थे.
अट्ठोयजी से उनका नैकटय़ नहीं था, शायद परिचय भी नहीं. अपनी साध एक बार मेरे सामने प्रकट की थी. 1986 में मैथिलीशरण गुप्त-शताब्दी समारोह में अट्ठोयजी का बीज वक्तव्य सुन कर अशोकजी के मन में सहज इच्छा जगी थी कि अट्ठोयजी से मिल कर बताऊं कि मैं आपके साहित्य का पाठक हूं. पर, संकोच इतना गहरा कि उनसे मिल कर इतनी-सी बात कहना उनके लिए संभव न हो सका.
अशोकजी को प्रसाद और अट्ठेय की कोटि का हिंदी में दूसरा कोई रचनाकार नहीं दिखता था, यद्यपि अपने समय के पांक्तेय लोगों से उनका अंतरंग रिश्ता था. मारवाड़ी समाज की विशिष्ट विभूति के रूप में जमना लाल बजाज और भागीरथ कानोड़िया को अशोकजी अक्सर श्रद्धा सहित स्मरण करते थे, यद्यपि अपने पिता के प्रति उनके हृदय में गहरी श्रद्धा थी.
विशिष्ट बौद्धिक अशोक सेकसरिया सबसे अधिक तथाकथित बौद्धिकों से ही चिढ़ते-खीझते थे. उनके पाखंड और घिनौनी भोग-लिप्सा से. सही बात उजागर की है उनके मित्र श्री जवाहर गोयल ने कि अशोकजी के हृदय में किसी के प्रति घृणा का भाव नहीं था. मेरा भी अनुभव यही है कि जिसके हीन आचरण से चिढ़ते थे, उसके प्रति भी घृणा नहीं, उदासीनता का भाव रहता था.
जिसे चित्त से उतारना कहते हैं, कुछ वैसी मनोदशा और मुद्रा. मगर जिनको अपना समझते थे, उनके हृदय में जिनके लिए प्रेम था, उनके शील का हल्का स्खलन उन्हें पागल बना देता था. और गहरी पीड़ा से स्वयं दहकने लगते थे. शायद यह उनकी नैसर्गिक प्रकृति थी या सत्याग्रही महात्मा गांधी की आत्मशुद्धि की अनुशासन-चर्या का प्रभाव था या स्वकीय जीवन-चर्चा.
इस संबंध में अशोकजी से कभी बात नहीं हुई. उनके अत्यंत प्रिय थे श्री योगेंद्र पाल सिंह, उनके राजनीतिक हमसफर, जिनकी पर दु:ख कातरता और मानवीय गुणों की मुग्ध कंठ से प्रशंसा करते थे, पर योगेंद्र पालजी की उग्रता और रोष-मुद्रा से आशंकित-आतंकित भी रहते थे कि कहीं आक्रामक भाषा से किसी को घायल न कर दे.
अशोकजी के दु:ख-सुख के प्रति अतिशय संवेदनशील अपनी प्रिय कथा-लेखिका अलका सरावगी के उग्र मिजाज से अशोकजी परिचित थे और सचेत रहते थे कि अलकाजी की भाषा-मुद्रा से किसी को चोट न लग जाये. बात-व्यवहार में उनके आदर्श थे नारायण दत्तजी और कृष्णनाथजी. उनकी सौम्य-संस्कृत बतकही-मुद्रा. अशोकजी एक बड़ी दुनिया के श्रद्धाभाजन थे, पर अलका सरावगी, संजय भारती और बालेश्वर राय के संवेदनशील परिवार की श्रद्धा का स्तर बहुत ऊंचा था.
अशोकजी के करीब मैं बाद में पहुंचा. विधा कर्म से जुड़े हम दोनों एक ही शहर में रहते थे, एक-दूसरे के चेहरे से परिचित थे, उनके घर की राह मेरी चिर-परिचित राह थी, जहां उनके पिताजी के आदेश से मैं अक्सर जाया करता था. मेरे प्रति स्नेहशील थे. बतकही के लिए बुलाया करते थे. और गहरे संकोच के साथ ही श्रद्धेय सेकसरियाजी जैसे देश-ख्यात समाज-विशिष्ट पुरुष के पास पहुंचता था. मुख्य द्वार का कपाट अशोकजी ही खोलते थे और बेहद उदासीन मुद्रा में अपने पिता के कमरे की ओर इशारा कर अपने कमरे में घुस जाते थे. उनकी मुद्रा रुचती कतई नहीं थी.
अशोकजी की मुझमें कोई रुचि नहीं थी. तथापि उनका फकीरी बाना मेरे निजी संस्कार को आकृष्ट करता था.मेरे समानधर्मा बंधु डॉ रमेशचंद्र सिंह की अकाल मृत्यु से मुङो गहरा आघात लगा था. उन्मथित चित्त से उनके प्रति श्रद्धांजलि निबंध लिखा था, उनकी विधा-निष्ठा और वैयक्तिक गुणवत्ता को रेखांकित करते, जो दैनिक ‘सन्मार्ग’ में छपा था. अशोकजी ने देखा था उस निबंध को. रमेशजी के प्रति उनकी धारणा ऊंची थी.
दोनों की राजनीतिक निष्ठा और राह एक थी. मेरा निबंध अशोकजी को पसंद आया था. स्वाभाविक था कि रमेशजी की श्रद्धांजलि-गोष्ठी में अशोकजी आग्रहपूर्वक मुङो बुलाते. और उनके आग्रह पर मैंने सदारत की थी. यद्यपि उनकी राजनीति से मेरा कोई सरोकार नहीं था. रमेशजी के धन पक्ष को मैं सहज भाव से बहुमान देता था. काफी अंश तक हम समशील थे. आम अध्यापकों की तरह वे व्यावसायिक बयार से अप्रभावित थे. गंभीर अध्ययन-निष्ठा और अध्यापना उनका धर्म था.
उनके प्रति मेरे विशेष आकर्षण का आधार महज इतना ही था. मेरे शोध-प्रबंध पर कलकत्ता विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि मिली, तो रमेशजी ने ‘आचार्य नरेंद्रदेव परिषद्’ के तत्वावधान में सम्मान-गोष्ठी आयोजित की थी, जिसमें अशोकजी अनुपस्थित थे. मगर कृती-संपादक, अशोकजी के आत्मीय बंधु नारायण दत्तजी की श्लाघा मूलक टिप्पणी सुन कर अशोकजी ने मेरी पुस्तक पढ़ी.
और फिर मेरे प्रति वे सुमुख हुए. जब-तब खास प्रयोजन से याद करने लगे. मेरी कुटिया में, जिसे गहरे स्नेह से ‘घोसला’ कहते थे, उनकी आवाजाही शुरू हुई. अधिकारपूर्वक छोटे-मोटे दायित्व सौंपने लगे थे. ‘बालेश्वरजी को व्याकरण का संस्कार करा दीजिए. आपके प्रति उसकी बड़ी श्रद्धा है. बड़ा संवेदनशील है.’ ‘लाल बिहारी मंडल को आपके पास भेज रहा हूं. बंगवासी कॉलेज में ग्यारहवीं कक्षा में इसका एडमिशन करा दीजिए, और कहीं नहीं हो रहा है.’ ‘मनजी पांडे की जरूरी सहायता कीजिए.
अभावग्रस्त हैं. नाती को पोस रहे हैं.’ और मैंने सदा कोशिश की कि अशोकजी की संवेदना को मेरी ओर से धक्का न लगे और उनका आग्रह अनुत्तरित न रहे. किसी असमर्थ आदमी को थोड़ा भी सहारा मिलते देख कर अशोकजी खिल जाते थे. और सहयोगी के प्रति कृतज्ञता से इतने विनीत हो उठते थे, जैसे उनकी आंतरिक साध किसी ने पूरी कर दी हो. इसी तरह अपने किसी खास और नामवर की हीनमन्यता तथा हल्के चारित्रिक स्खलन को लक्ष्य कर खीझते हुए गहरी उदासी में डूब जाते थे.
जो जितना करीब होता था, अशोकजी की खिन्नता उतनी ही गहरी होती थी. जब-तब मेरे हल्के आचरण ने भी उनके मानस को खरोंचा था. मगर प्रेम इतना गहरा कि मेरे पक्ष में किसी बड़ी हस्ती को टोकते उन्हें संकोच नहीं होता था.
और दुर्नीति तथा अनौचित्य के प्रतिरोध में सत्याग्रह व्रत शुरू करते थे, तो अपने साथ खड़े होने के लिए हांक लगाते थे. मेरे प्रति अशोकजी के भरोसे का यह स्तर था. और उनका सहयात्री होना मेरी मूल्यवान उपलब्धि थी.
तथ्य है कि अशोकजी का सत्याग्रह कभी हारा नहीं. पूंजीतंत्र की अमानवीय लीला के प्रतिरोध में उनका सत्याग्रह सक्रिय था. यह उनके उज्‍जवल चरित्र का ही प्रताप था कि उनकी लड़ाई में उनके साथ सत्याग्रहियों की बड़ी संख्या खड़ी हो जाती थी. अपने सौम्य आचरण से अशोकजी अपने साथियों को सत्याग्रह का प्रशिक्षिण देते थे.
इसी प्रकार निरक्षर लोगों को विद्या-ज्योति के विरल आस्वाद से संपन्न करना कदाचित् एक मात्र धर्म था उनका. अपने धर्म के प्रति अशोकजी बेहद संवेदनशील थे. बेबी हालदार और सुशीला राय से उनके दु:ख-सुख की कथा लिखवा कर कठोर आयास से और उसे मांज-धोकर पुस्तक का रूप दे उन्होंने प्रकाशित करायी. अभावग्रस्त लोगों के दुर्भाग्य-मोचन के लिए वे कई भूमिकाओं पर सक्रिय थे.
संजय भारती को अपना अघोषित पुत्र मान लिया था. वत्सल पिता की तरह संजय की गृहस्थी के प्रति अतिशय संवेदनशील थे. उदासी से जब श्लथ हो जाते विश्रम के उद्देश्य से झोला उठाये कचरापाड़ा हफ्ते-दो हफ्ते के लिए संजय के घर चले जाते, अपना घर मान कर. संपादन-कला में अत्यंत दक्ष अशोकजी अपनी बड़ी दीदी पन्ना देवी पोद्दार के दो संस्मरण निबंध लिये मेरी कुटिया में एक दिन पहुंचे.
दीदी के लेख हैं. इन्हें संपादित कर कहीं छपवा दीजिए, अशोकजी के प्रस्ताव ने मुङो चौंकाया था. आग्रह अशोकजी का था, जो मेरी ओर से अनुत्तरित नहीं रह सकता था. और रांची की ‘घर’ पत्रिका में दीदी के लेख को प्रकाशित देख कर अशोकजी खिल उठे थे. फिर एक दिन गहरी पीड़ा के साथ बोले, ‘देखिए कृष्ण बिहारीजी, संवेदना का स्तर कितना गिर गया है, दीदी के लेख को न तो उसके घर में किसी ने पढ़ा, न ही बाबूजी के परिवार में किसी ने देखा.’
उनकी पीड़ा उनके उदास चेहरे की रेखाओं पर मुखर थी. और एक दिन अपराह्न में मेरे यहां पहुंचे. विशेष प्रयोजन से आये थे. कहने लगे ‘दीदी आपसे मिलना चाहती हैं. किसी दिन समय निकालिए.’ ‘आप जब कहें चलें.’
स्वनाम धन्य पिता की ज्येष्ठ संतान होने के नाते श्रीमती पन्ना देवी पोद्दार को महात्मा गांधी, विश्व कवि रवींद्रनाथ ठाकुर, माता आनंदमयी, जमना लाल बजाज जैसे विश्वख्यात देश की शीर्ष विभूतियों के अंतरंग सानिध्य को जिसे सहज ही सौभाग्य मिला हो, उससे मिलने-बतियाने का मूल्यवान सुयोग कौन अभागा गंवाना चाहेगा! सो मैंने उल्लसित कंठ से कहा, ‘जब आप कहें चलें.’ आज आपको असुविधा न हो तो आज चलें. और दीदी के घर हिंदुस्तान पार्क उसी दिन ले गये.
मेरा सौभाग्य कि मुझसे मिल-बतिया कर दीदी प्रीत हुईं. और एक अंतराल के बाद अशोकजी दीदी के आदेश से विनोबा ग्रंथावली ढोकर मेरे यहां पहुंचाने लगे. दीदी का आशीर्वाद मुझ तक पहुंचाने अशोकजी को बस की भीड़ से धक्का खाते मेरे द्वार आना पड़ा था.
उनके अंतरंग लोक से परिचित जानते हैं कि कैसी-कैसी ऊबड़-खाबड़ माटी से अपनी प्रातिभ स्पर्श से अशोकजी ने मूल्यवान मूर्तियां रची हैं, और ताटस्थ्य ऐसा जैसे किसी के लिए कुछ किया ही नहीं. उनकी दुनिया के लोग इस प्रेरक तथ्य को जानते हैं कि उनकी दृष्टि में नैष्ठिक ब्राह्मण और हरिजन में कोई भेद नहीं था.
पर, सत्य यह भी है कि उनकी पक्षधरता नि:स्व और हरिजन से जुड़ी थी. उन्हीं के साथ खड़े होते थे. यह उनके शील और विवेक का स्वकीय पक्ष था. और उनका सबसे बड़ा दु:ख था नारी जाति और शिशुओं की अवमानना. नारी जाति के प्रति अप्रतिम सम्मानशील अशोकजी भारतीय मर्यादा के प्रति अतिशय आग्रहशील थे. इस बिंदु पर वे महात्मा गांधी के पथानुगामी थे, समाजवादी नायक डॉ लोहिया की जीवन-चर्या पूरी तरह स्वीकार्य नहीं थी उनके संस्कार को. भारतीय समाज के अनुशासन छंद के प्रति अशोकजी सदा सचेत-संवेदनशील रहते थे.
अपने कर्म-धन्य पिताजी श्री सीता राम सेकसरिया के प्रभाव-प्रताप तथा अपनी प्रतिभा और पुष्ट-शील के आधार पर अशोकजी उस ऊंची जमीन को सहज ही उपलब्ध कर सकते थे, जिसे हथियाने के लिए कैसे घिनौने आचरण करते हैं विद्या के सौदागर. मगर तब अशोकजी, अशोकजी न रह जाते, सामान्य और विशिष्ट श्रेणी के अपने संस्कारी मित्रों का भरोसा गंवा देते.
रोशनी की तलाश में दिशाहारा वर्ग का कोई सरल मानुष उनके दरवाजे दस्तक देने न जाता. तब अशोकजी का परिवार सिकुड़ जाता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अशोकजी शेष-शेष तक अशोकजी बने रहे और बुढ़ौती के बावजूद सक्रिय बने रहे. उनके जागरूक विवेक ने उन्हें शुरू में ही सचेत कर दिया था कि अपने संसार का विश्वास गंवा देने पर आदमी जीने का भ्रम जीते हुए मर जाता है. जितने सहज-सरल और सहृदय थे अशोकजी उतने विचक्षण थे. करीबी लोग जानते हैं कि अशोकजी लोगों की घिनौनी चतुराई और पाखंड को सटीक रूप में समझते थे.
जीवन के उपसंहार काल में गहरी थकान और उदासी में डूबे रहते थे. ‘वार्ता’ के अस्तित्व-रक्षा की चिंता में डूबे वय-विवेक छोड़ कर सदा सक्रिय रहते थे.
बालेश्वर राय और उनके परिवार को अशोकजी ने अपना सहचर बना लिया था. बालेश्वरजी की पत्नी सुशीला जिस श्रद्धा भाव से बूढ़े अशोकजी की सेवा करती थी, केवल मां से वह दुर्लभ छोह मिल सकता है. सुशीला की सेवा-साधना के प्रति मन में सहज ही श्रद्धा जगती है. और स्वाभविक चिंता कि इस त्रसद रिक्तता को बालेश्वर और उसका संवेदनशील परिवार कैसे ङोलेगा. कोई समाधान नहीं सूझता. नृशंस नियति का मनुष्य के पास कोई उपचार नहीं होता शायद.
लोकबुद्धि कहती है, वार्धक्य काल की गहरी चोट हड्डी व्यवस्थित होने के बावजूद कष्ट देती रहती और सुशीला की सेवा-निष्ठा भी सामान्य स्थिति को उपलब्ध न करा पाती. मगर बुद्धि की बोली-भावना कहां समझ पाती है. अब तो एक साधु सखा की रिक्तता सदा हृदय में दहकती रहेगी. नियति के विधान के सामने हम निरूपाय हैं. दंश ङोलने को अभिशप्त. विकल्प के रूप में इस सघन तमस् में कोई नजर नहीं आता-‘अब न आंखि तर आवत कोऊ.’

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