फिर जल रहा है कश्मीर
।। शुजात बुखारी ।। (एडिटर–इन–चीफ, राइजिंग कश्मीर) – एक ओर दिल्ली, श्रीनगर में चुनी हुई सरकार होने पर गर्व करती है, तो वहीं दूसरी ओर इसे शक्तिहीन बना दिया गया है. यह उन लोगों के लिए रास्ता बना रहा है, जो शांति के खिलाफ हैं. – कश्मीर एक बार फिर सुलग रहा है. जो विश्लेषक […]
।। शुजात बुखारी ।।
(एडिटर–इन–चीफ, राइजिंग कश्मीर)
– एक ओर दिल्ली, श्रीनगर में चुनी हुई सरकार होने पर गर्व करती है, तो वहीं दूसरी ओर इसे शक्तिहीन बना दिया गया है. यह उन लोगों के लिए रास्ता बना रहा है, जो शांति के खिलाफ हैं. –
कश्मीर एक बार फिर सुलग रहा है. जो विश्लेषक यह मानते थे कि कश्मीर घाटी में ऊपर से दिखाई देनेवाली शांति अस्थायी और बेहद नाजुक डोर से बंधी है, जिसमें कभी भी बदलाव हो सकता है, सही साबित हुए हैं. इस बार सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के हाथों रामबन जिले के गूल क्षेत्र में आम नागरिकों के मारे जाने की घटना ने व्यापक पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया है. और केवल चेनाब क्षेत्र ही नहीं (गूल जिसका हिस्सा है) बल्कि कश्मीर घाटी भी गुस्से से धधक रही है.
पिछले दो दशकों में कश्मीर की तुलना में चेनाब क्षेत्र में हालात कम विस्फोटक रहे हैं. हालांकि आतंकवाद का असर इस क्षेत्र में भी रहा है और नागरिकों को आतंकवादियों और सुरक्षा बलों, दोनों ही के हाथों कष्ट उठाना पड़ा है, पर पिछले एक दशक से यह क्षेत्र अमूमन शांत रहा है. यहां के आम लोगों ने अपनी मर्जी से चुनावों में बढ़–चढ़ कर हिस्सा लिया था.
लेकिन बीएसएफ जवानों की कार्रवाई ने इस कटु सत्य पर मुहर लगाने का काम किया है कि यहां नागरिकों और सुरक्षा बलों के बीच हमेशा से एक गहरी खाई रही है. अन्यथा बीएसएफ जवानों को इस क्षेत्र में पुलिस को साथ लिये बगैर देर रात तलाशी के लिए जाने की कोई जरूरत नहीं थी. न ही स्थानीय मसजिद के इमाम के साथ तकरार करने और मामले को हद से ज्यादा तूल देने की ही कोई आवश्यकता थी.
प्रभावित क्षेत्र से आ रही खबरें व्यथित करनेवाली हैं. यहां तक कि रामबन के पुलिस अधीक्षक ने एक राष्ट्रीय समाचार पत्र को कहा कि वे भी बीएसएफ की फायरिंग का निशाना बन सकते थे, क्योंकि यह बिल्कुल अचानक हुआ. राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर जो इस गोलीबारी में मारे गये, क्रोधित भीड़ को समझाने–बुझाने में लगे लोगों में शामिल थे. उन्हें भी नहीं बख्शा गया. इन सबसे ऊपर बीएसएफ प्रवक्ता ने इस कार्रवाई को जायज ठहराते हुए कहा कि सुरक्षा बलों ने आत्मरक्षा में उस वक्त गोली चलायी, जब भीड़ उनके हथियार लूटने की कोशिश कर रही थी.
सवाल यह है कि भीड़ की नजर हथियारों पर क्यों होगी? आखिर किस वजह से? क्या वे इन्हें हथियारों के बाजार में बेचनेवाले थे? वे सिर्फ इमाम के साथ हुए दुर्व्यवहार को लेकर अपना विरोध जता रहे थे, जिनका वहां काफी सम्मान है. बीएसएफ ने जिस तरह का व्यवहार किया, उसने राज्य मंत्रिमंडल को भी इस घटना की आलोचना करने पर मजबूर कर दिया, जो कश्मीर के 22 सालों के हिंसा के इतिहास में पहली बार हुआ.
रामबन की घटना नयी या अजूबी नहीं है, लेकिन यह हमें इस बारे में आगाह करती हुई आयी है कि आखिर कैसी स्थितियों के बेकाबू हो जाने का खतरा होता है. कुछ हफ्ते पहले ही सेना ने बांदीपुर में दो नागरिकों को गोली मार दी थी और पूरा कश्मीर लपटों की आगोश में समा गया था. एक ओर सरकार दावा करती है कि कश्मीर में शांति लौट रही है और पर्यटकों की संख्या बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर सुरक्षा बल सरकार के इस दावे की हवा निकालने में लगे हैं.
हकीकत में कश्मीर के लोगों में शांति की प्रबल इच्छा है, क्योंकि वर्ष 2008 से 2010 तक के उपद्रवों ने लगभग 200 लोगों की जान ले ली थी. वर्ष 2011 और 2012 को अमन के वर्षो के तौर पर देखा गया और अब इस शांति को पुख्ता करने की जरूरत थी. लेकिन, इसके उलट आम लोगों की सुरक्षा के लिए तैनात किये गये सुरक्षा बल, उन्हें ही निशाना बना रहे हैं. ऐसे समय में जब बड़ी संख्या में घाटी के लोग शांति और उम्मीदों से भरे वातावरण की ख्वाहिश पाल रहे हैं, तब आखिर यह क्या हो रहा है?
इसका जवाब संभवत: आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट के तहत मिली ताकत और जवाबदेही की भावना की कमी के बीच खोजा जा सकता है. सुरक्षा बलों के मन में गैर– जबावदेही इतने गहरे तक बस गयी है कि वे यह मानने लगे हैं कि वे चाहे कुछ भी क्यों न कर लें, उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा.
ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब इसी तरह के अपराध करने वाले सशस्त्र बलों के जवान बिना किसी सजा के छोड़ दिये गये हैं. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह की अगुवाईवाली नागरिक सरकार की बेबसी से भी साफ जाहिर होता है कि राज्य में सुरक्षा ग्रिड आखिर कैसे काम करता है?
जब भी ऐसी घटना होती है, उनके पास सिवाय जांच का आदेश देने और घटना की निंदा करने के अलावा कुछ नहीं होता है. वह हर बार एक ही शब्द– ‘अक्षम्य है’ दोहराते पाये जाते हैं. ऐसी स्थिति इस हकीकत को सामने लाती है कि जमीन पर एक बड़ा निर्वात मौजूद है. यह निर्वात है– अर्थवान राजनीतिक संवाद का. ऐसी घटनाओं के हर महीने दोहराये जाने से शांति का माहौल सिकुड़ रहा है.
जो लोग कश्मीर में भारतीय शासन को चुनौती दे रहे हैं, उनको राजनीतिक संवाद की मेज पर लाने की कोई कोशिश नहीं की जा रही है. एक ओर दिल्ली, श्रीनगर में चुनी हुई सरकार होने पर गर्व करती है, तो वहीं दूसरी ओर इसे शक्तिहीन बना दिया गया है. जाहिर तौर पर यह उन लोगों के लिए रास्ता बना रहा है, जो शांति के खिलाफ हैं. निदरेष नागरिकों को निशाना बना रहे सुरक्षा बल दरअसल शांति के खिलाफ काम कर रहे हैं, जिससे राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो रही है, जबकि घाटी का आम नागरिक किसी भी कीमत पर शांति का इच्छुक है.
लगातार दूसरे दिन पूरा कश्मीर बंद है. राज्य ने सख्त पाबंदी लगा दी है और अलगाववादियों ने बंद का आह्वान किया है. सभी चीजें पहले के हालात पर पहुंचती दिख रही हैं और इस बार यह सीमा पार द्वारा नहीं भड़काया गया है. दुश्मन जवानों के बीच ही छिपे हैं, जिनका दावा है कि वे शांति बहाल करने का काम कर रहे हैं.
किसी राजनीतिक पहल की गैरमौजूदगी में औसत कश्मीरी दिल्ली से काफी दूर है. वह यह मानता है कि भारत सरकार इस राजनीतिक समस्या का समाधान नहीं करना चाहती और उसे लोगों की चिंता नहीं है. अलगाव की यह भावना काफी गहरी है और तत्काल मेल–मिलाप के लिए कोई जगह नहीं बची है.
यहां तक कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी 25 जून को अपने कश्मीर दौरे के दौरान लोगों का दिल जीतने में असफल रहे. हालात से निबटने के प्रधानमंत्री के संकल्प के बाद ही नागरिकों की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या हुई. हकीकत में यह कश्मीर के लिए बेहद नाजुक समय है, लेकिन इसके लिए कश्मीरी दोषी नहीं हैं.
दिल्ली को अवश्य ही जगना होगा और यह महसूस करना होगा कि कश्मीर किस तरह हाथ से फिसल रहा है और एक खरतनाक रास्ते पर बढ़ रहा है.