गांधी की वापसी का शताब्दी वर्ष
एमजे अकबर प्रवक्ता, भाजपा अपने संबोधनों में गांधी जी ने अपने राजनीतिक दर्शन के बुनियादी सिद्धांतों- अहिंसा, समुदायों के बीच एकता, सुधार, त्याग, समर्पण, स्वच्छता तथा भूख से मरते और वंचित लोगों के लिए भी एक भविष्य-को सामने रखा. जनवरी, 2015 में हमारे अखबारों में महात्मा की वापसी का लगभग उसी तरह स्वागत किया जाना […]
एमजे अकबर
प्रवक्ता, भाजपा
अपने संबोधनों में गांधी जी ने अपने राजनीतिक दर्शन के बुनियादी सिद्धांतों- अहिंसा, समुदायों के बीच एकता, सुधार, त्याग, समर्पण, स्वच्छता तथा भूख से मरते और वंचित लोगों के लिए भी एक भविष्य-को सामने रखा.
जनवरी, 2015 में हमारे अखबारों में महात्मा की वापसी का लगभग उसी तरह स्वागत किया जाना चाहिए, जैसा कि 9 जनवरी, 1915 को मोहनदास करमचंद गांधी का अपनी मातृभूमि लौटने पर किया गया था.
गांधी के भारत के स्वाधीनता आंदोलन में हस्तक्षेप करने के लिहाज से 1915 इतिहास का एक बीज क्षण है. उस आंदोलन ने बिना किसी बाधा के तीन सदियों तक उन्नतिशील रहनेवाली यूरोपीय उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया का अंत कर दिया था. कहावत मशहूर थी कि ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता. गांधी के बाद, किसी भी साम्राज्य का सूरज नहीं उदित हुआ.
1869 में जन्मे गांधी एक व्यवसायी अब्दुल्ला सेठ के वकील के रूप में कार्य करने हेतु 24 वर्ष की उम्र में वे 23 मई, 1893 को फ्रॉक कोट, धारीदार पतलून, घड़ी, चेन तथा काली पगड़ी में दक्षिण अफ्रीका के डरबन में उतरे थे. जब, वे एक वर्ष के अवकाश पर अक्तूबर 1901 में घर आये थे, तब उनकी ख्याति स्थानीय अभिजनों के बीच फैलनी शुरू हो गयी थी. वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के अधिवेशन में कोलकाता गये. अधिवेशन की पहली रात गांधी यह जान कर हतप्रभ थे कि प्रतिनिधियों ने बरामदे में ही खुद को निवृत्त कर लिया था.
सफाई के लिए उन्होंने किसी की प्रतीक्षा नहीं की, बल्कि एक झाड़ू लिया और खुद सफाई की. लेकिन तब उनके आदर्श का अनुसरण किसी ने नहीं किया.
गांधीवादी आंदोलन के मूल में एक प्रस्तावना थी. भारत ब्रिटेन की ताकत से नहीं, बल्कि अपनी कमजोरियों से पराजित हुआ था. भारत तभी मजबूती पा सकेगा, जब भारतीय अपने समाज से अस्पृश्यता के अभिशाप, अज्ञान तथा अंधविश्वास को मिटा देंगे. कोलकाता में गांधी ने स्वामी विवेकानंद से मिलने का प्रयास किया, जिन्होंने ऐसे ही एक मिशन की शुरुआत की थी. गांधी बेल्लूर मठ तक गये भी, लेकिन स्वामी के बीमार होने के कारण उनकी भेंट नहीं हो सकी.
गांधी ने उन शिक्षाओं पर अमल करना शुरू कर दिया, जिनका उपदेश स्वामी ने दिया था. ‘भारत की नियति उसी दिन तय हो गयी थी, जब भारतवासियों ने मलेच्छ शब्द खोज लिया था.. और याद रखें कि राष्ट्र झोपड़ियों में बसता है.’
1909 में गांधी ने अंग्रेज लेखक जीके चेस्टर्टन का एक लेख पढ़ा, जिसमें उनके सोच की गूंज थी. चेस्टर्टन ने भारतीय राष्ट्रवादियों के बारे में लिखा : ‘मैं ऊब गया हूं और उनको लेकर संदेह महसूस करता हूं. जो वे चाहते हैं वे न तो भारतीय हैं और न ही राष्ट्रीय.’ मान लें एक भारतीय ने कहा : ‘मैं चाहता हूं कि भारत हमेशा के लिए गोरे लोगों और उनके सभी क्रियाकलापों से मुक्त हो.
हर चीज में कमियां होती हैं और हमें अपनी कमियां स्वीकार्य हैं. यदि अंग्रेजों को हमारा रहन-सहन पसंद नहीं है, तो जाइए हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए.’ चेस्टर्टन दूरद्रष्टा था और अपनी जगह सही था. लेकिन वह अंग्रेज नहीं जानता था कि जिससे कुछ भारतीय जूझते आ रहे थे, उसे उसने शब्दों में व्यक्त कर दिया था.
गांधी अपनी वकालत करने जोहानसबर्ग लौट गये, लेकिन उनका दिल और दिमाग कभी भारत को छोड़ नहीं सका. उन्होंने महसूस किया कि यदि वो हिंदुओं के बीच सुधार की प्रक्रिया की अगुवाई करने जाते हैं, तो सबसे पहले उन्हें हिंदुत्व को पूरी तरह समझना होगा. उन्होंने खुद को भगवद्गीता के अध्ययन में डुबा दिया. उन्होंने भारत को, उसकी अपनी कुरीतियों तथा औपनिवेशिक शासन के असहनीय बोझ-दोनों से, मुक्त कराने के लिए बारह वर्षो से भी अधिक समय में खुद को तैयार किया.
उन्होंने धर्म को एक नया सामाजिक आयाम देकर, सभी धर्मो के लोगों के लिए उसे एक सशक्त संपदा में बदल दिया. धर्म, आपसी अनबन नहीं, बल्कि एकता का स्नेत है. सभी आस्था प्रणालियों का मूल आधार एक ही अनंत सत्य है. अपने संबोधनों उन्होंने अपने राजनीतिक दर्शन के बुनियादी सिद्धांतों- अहिंसा, समुदायों के बीच एकता, सुधार, त्याग, समर्पण, स्वच्छता तथा भूख से मरते और वंचित लोगों के लिए भी एक भविष्य- को सामने रखा.
बनारस में उन्होंने मंच पर विराजमान कुलीनों का उपहास करते हुए कहा कि भारत का उद्धार वकीलों और रईसों से नहीं, बल्कि किसान द्वारा होगा. 1916 में यह क्रांतिकारी विचार था.
सौ साल पहले के भारत और विश्व पर विचार करें और अचरज करें कि हम इस आवाज, दृष्टि और सिद्धांत के मूर्त स्वरूप को किस हद तक खो चुके हैं. संभव है, युद्ध से तबाह एक परिवेश में अहिंसा सबसे प्रासंगिक विचार रहा हो, लेकिन अपमानित करनेवाली गरीबी दूर करना कैसे कम जरूरी हो सकता था? जब धर्म के नाम पर हत्या और तबाही फैल रही हो, तब धर्म को शांति और सौहार्द की ताकत के तौर पर मानने का उनका विचार कितना अनिवार्य था? गांधी की वापसी के शताब्दी वर्ष में जन माध्यमों में उनका चेहरा लौटा है. अब हमें गांधी के दिल और दिमाग के लिए गुंजाइश बनाने की जरूरत है.