।।सुरेंद्र किशोर।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
15 अगस्त 1975 की सुबह बांग्लादेश की सेना के कुछ बागी युवा अफसरों के हथियारबंद दस्ते ने ढाका स्थित राष्ट्रपति आवास पर पहुंच कर राष्ट्रपति शेख मुजीब–उर–रहमान की हत्या कर दी. हमलावर टैंक लेकर गये थे. पहले उन लोगों ने बंगबंधु मुजीब–उर–रहमान के बेटे शेख कमाल को मारा और बाद में मुजीब और उनके अन्य परिजनों को.
मुजीब के सभी तीन बेटे और उनकी पत्नी की बारी–बारी से हत्या कर दी गयी. हमले में कुल 20 लोग मारे गये थे. मुजीब शासन से बगावती सेना के जवान हमले के समय कई दस्तों में बंटे थे. अप्रत्याशित हमले में मुजीब परिवार का कोई पुरुष सदस्य नहीं बचा. उनकी दो बेटियां संयोगवश बच गयीं, जो घटना के समय जर्मनी में थीं. उनमें एक शेख हसीना और दूसरी शेख रेहाना थीं. शेख हसीना अभी बांग्लादेश की प्रधानमंत्री हैं. अपने पिता की हत्या के बाद शेख हसीना ब्रिटेन में रहने लगी थीं. वहीं से उन्होंने बांग्लादेश के नये शासकों के खिलाफ अभियान चलाया. 1981 में वह बांग्लादेश लौटीं और सर्वसम्मति से अवामी लीग की अध्यक्ष चुन ली गयीं.
15 अगस्त की सुबह जब भारत में स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारी चल रही थी, उसी समय यह दुखद खबर मिली. ढाका रेडियो पर फौजी आवाज में एक मेजर ने यह समाचार दिया. सैनिक क्रांति के समय बांग्लादेश का संपर्क बाकी दुनिया से काट दिया गया था. ढाका रेडियो ही खबरों का एकमात्र जरिया था. यही नहीं, बांग्लादेश की बागी सेना ने पश्चिम बंगाल से लगी सीमा की नाकेबंदी भी कर दी थी. इस खबर से पूरा भारत सन्न रह गया था. भारत का बंगबंधु से एक विशेष तरह का लगाव था. याद रहे कि भारत की सरकार ने बांग्लादेश के स्वतंत्रता आंदोलन में मुजीब की मदद की थी. पर भारत सरकार ने हत्या पर दु:ख जताने के बावजूद यह कहा कि यह बांग्लादेश का अंदरूनी मामला है. जब घटना हुई, उस समय भारत में आपातकाल था. भारत के मित्र रहे मुजीब की हत्या के बाद दो कारणों से इस देश की सत्ताधारी राजनीति में भी उदासी छा गयी थी. एक तो एक भरोसेमंद मित्र नहीं रहा.
दूसरी बात यह भी थी कि हत्यारों ने बंगबंधु पर बांग्लादेश में तानाशाही कायम करने का आरोप लगाया था. अफवाह उड़ी थी कि उस घटना के बाद नयी दिल्ली में कुछ कांग्रेसी नेता डर गये थे, क्योंकि कांग्रेस पर भी तब इस देश में तानाशाही कायम करने का आरोप लग रहा था. पर बाद में उन्हें यह सोच कर राहत मिली कि भारत की सेना गैर राजनीतिक है.
खैर, मुजीब के धानमंडी स्थित आवास पर जब बागी सैनिकों ने हमला किया तो वहां के सुरक्षा प्रहरियों ने उनका प्रतिरोध नहीं किया. हमलावरों के कई दस्ते थे. बांग्लादेशी सेना के पांच मेजर उन हमलावर दस्तों का नेतृत्व कर रहे थे. इस विद्रोह में मुजीब मंत्रिमंडल के एक प्रमुख सदस्य मुश्ताक अहमद और सेना के मेजर जनरल जियाउर रहमान का हाथ था. इसके बाद खुंदगार मुश्ताक अहमद राष्ट्रपति बने. मेजर जनरल जियाउर रहमान सेना प्रमुख बने.
बंगबंधु ने 16 अगस्त, 1971 को स्वतंत्रता हासिल करने के बाद प्रधानमंत्री का पद संभाला था. अपनी हत्या के कुछ समय पहले मुजीब ने सत्ता के स्वरूप में भारी परिवर्तन किया था. वे प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति बन गये. उन्होंने एकदलीय शासन प्रणाली लागू कर दी. चार सरकारी प्रकाशनों को छोड़ कर सारे अखबारों पर प्रतिबंध लगा दिया गया. इतना ही नहीं, 1975 में एक संवैधानिक संशोधन के जरिये उन्होंने खुद को आजीवन राष्ट्रपति घोषित कर दिया और यह दलील दी कि हमने देश को अराजकता और भुखमरी से बचाने के लिए ऐसा किया. इसे सेना और नेताओं के एक हिस्से ने नापसंद किया. नतीजा सैनिक क्रांति के रूप में सामने आया.
नये राष्ट्रपति मुश्ताक अहमद ने रेडियो पर राष्ट्र के नाम संदेश में कहा कि भूतपूर्व शासकों ने सत्ता में बने रहने का षड्यंत्र कर रचा था. जन साधारण की हालत बहुत खराब हो गयी थी. देश की संपत्ति कुछ लोगों के हाथों में सिमट गयी थी. लाखों लोगों ने देश की आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था. लेकिन उनके सपने अधूरे ही रहे. प्रमुख उद्योग जूट की हालत भी बहुत बिगड़ गयी थी. उन्होंने यह भी कहा कि मानव अधिकारों की रक्षा की जायेगी. बांग्लादेश सभी देशों के साथ दोस्ताना संबंध बनाना चाहेगा. उन्होंने दुनिया के देशों से अपील की कि वे बांग्लादेश की नयी सरकार को मान्यता दें. सबसे पहले इसे पाकिस्तान ने मान्यता दे दी.