आंकड़े शानदार या शर्मनाक!

।।अरविंद मोहन।।(वरिष्ठ पत्रकार)योजना आयोग ने इस हफ्ते गरीबी से संबंधित जो आंकड़े जारी किये, उनसे सामान्य ढंग से किसी का भी मन खुश हो सकता है. आंकड़ों के अनुसार 2004-05 में देश की आबादी में गरीबों का अनुपात 37.2 फीसदी था, जो 2011-12 में 21.9 फीसदी रह गया है. यह 2009-10 में 29.8 फीसदी था. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 26, 2013 3:00 AM

।।अरविंद मोहन।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
योजना आयोग ने इस हफ्ते गरीबी से संबंधित जो आंकड़े जारी किये, उनसे सामान्य ढंग से किसी का भी मन खुश हो सकता है. आंकड़ों के अनुसार 2004-05 में देश की आबादी में गरीबों का अनुपात 37.2 फीसदी था, जो 2011-12 में 21.9 फीसदी रह गया है. यह 2009-10 में 29.8 फीसदी था. इस हिसाब से आज का अंदाजा लगाएं, तो करीब 18 फीसदी होना चाहिए. सात साल में गरीबी में 15 फीसदी से ज्यादा की कमी उल्लेखनीय है, क्योंकि यह प्रतिवर्ष दो फीसदी की गिरावट दर्शाती है. खास बात यह भी है कि गरीबी में सबसे ज्यादा गिरावट ओड़िशा, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे सबसे पिछड़े राज्यों के आंकड़े में आयी है.

और अगर इस दावे का आधार देखें, तो भरोसा और भी जमता है. यह हिसाब राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ताजा आंकड़ों पर आधारित है, जिसके तौरतरीके और सर्वे पर सभी भरोसा करते हैं. सो कायदे से तो इस आंकड़े के बाद सरकार की, इसके आर्थिक कर्ताधर्ता लोगों की, नयी आर्थिक नीतियों की और उसके सूत्रधारों की जयजय होनी चाहिए और उदारीकरण के दूसरे चरण के बचेखुचे फैसलों को ज्यादा जोरशोर से शुरू किया जाना चाहिए. पर हो रहा है ठीक उल्टा. चारों ओर से इन आंकड़ों को गलत और शर्मनाक बताने का प्रयास हो रहा है, तो इस पूरी आर्थिक नीति को ही अमीरीगरीबी के बीच फासला बढ़ानेवाला (सिर्फ भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में) माना जाता है. कोई इसे आंकड़ों की बाजीगरी बता रहा है, तो कोई चुनावी राजनीति का हिस्सा.

जाहिर तौर पर शहरी निवासी के लिए 33.3 रुपये रोज और ग्रामीण लोगों के लिए 27.2 रुपये रोज के खर्च को गरीबी रेखा मान लेने के पैमाने की सबसे ज्यादा आलोचना हो रही है. हर कोई अपने खानेपीने और पहनने के हिसाब से यह जोड़ रहा है कि 27 या 33 रुपये में क्या मिलता है. कोई एक दर्जन केले के भाव को आधार बना कर इसका मजाक उड़ा रहा है, कोई उसी योजना भवन में बने वीआइपी टॉयलेट के घोषित खर्च को, तो कोई आंकड़े तैयार करते हुए पिये गये चाय के खर्च को. जब से योजना आयोग देश के गरीबों की गिनती राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण जैसे आधार पर करने की कोशिश कर रहा है, दांडेकर के समय से ही, तभी से उसके पैमानों को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं. आज प्रति व्यक्ति रोज 2200 कैलोरी ऊर्जा देनेवाले भोजन के खर्च को आधार बनाने की बात कोई भी नहीं मानता, पर सच कहें तो वही एकमात्र हिसाब है, जो सारी कमियों के बावजूद ठोस जमीन पर खड़ा है.

उसके बाद से तो सुरेश तेंडुलकर और अजरुन सेनगुप्ता समेत जाने कितने लोगों ने प्रयास किया और हर किसी के आंकड़े और प्रयास को खारिज कर दिया गया. असल में यह क्रम हाल में तेज हुआ है, क्योंकि आज हमारी आर्थिक योजनाओं में गरीबों को लक्षित करके चलनेवाले कई कार्यक्रम हैं और अगर कोई सिर्फ सरकारी हिसाब से इस श्रेणी से बाहर हो जाता है, तो कई तरह के लाभ से वंचित हो जाता है. यही कारण है कि गरीबों की गिनती का यह सवाल सीधे सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचा और उसने भी एनसी सक्सेना की अगुआई में एक कमेटी बना कर गरीबों की गिनती का जिम्मा सौंपा. पर इधर सारी कोशिश वैश्विक पैमानों और आंकड़ों के हिसाब पर ही पहुंचने की है, जो लगभग एक डॉलर रोज भी खर्च करनेवालों को गरीब मानता है. योजना आयोग के ही सदस्य अजरुन सेनगुप्ता ने अपने अध्ययन के आधार पर कहा था कि देश के 76 फीसदी लोग बीस रुपये से कम पर गुजारा करते हैं.

कविवर दुष्यंत कुमार की एक गजल की दो पंक्तियां हैं, हो कमीज तो पांवों से पेट ढक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए’. भारतीय लोगों, खास कर गरीबों पर ही नहीं अर्थशास्त्रियों पर भी यह गजल कितनी फिट बैठती है. सरकार के लिए तो ऐसे लोग, ऐसे अर्थशास्त्री और ऐसा मीडिया मुनासिब है ही, जो गरीबी और आर्थिक मसलों को छोड़ कर बुर्काऔर पिल्लाजैसे सवालों पर ही चरचा करके सो जाते हैं. सो जब भी गरीबों की संख्या की बात चलती है, कभी दूर तक या किसी नतीजे तक नहीं पहुंचती. इसलिए यह उम्मीद करना कि इस बार का हंगामा कुछ करा देगा, दिवास्वप्न ही साबित होगा. पर कुछ बातों का जिक्र करना चाहिए. जब यही पैमाना 2005 में भी था (हालांकि मुद्रास्फीति का हिसाब भी भुला दिया गया है), तो तब और अब में जरूर बड़ा फर्क गया है. और चाहे नीतीश कुमार, मायावती और नवीन बाबू को श्रेय भी देना पड़े तो यह कहना होगा कि गरीब प्रदेशों की स्थिति सुधरने का मतलब वहां के गरीबों के लाभ से लेकर पूरे मुल्क का फायदा है.

पर बड़ा सवाल यह है कि क्या योजना आयोग को यह अंदाजा नहीं था कि चुनाव के कुछ समय पूर्व ही इस तरह के आंकड़े जारी करने से लाभ की जगह घाटा हो सकता है. आखिर अब हो रही आलोचना और इतने बेढंगे आधार से गरीबी का निर्धारण उसको महंगा ही पड़ेगा. पर यह सब जानसमझ कर अगर वह आंकड़े जारी करता है तो इसके कई लाभ भी हैंखास कर सरकार और योजना आयोग को. सबसे बड़ा लाभ तो चुनाव में अपनी नीतियों की सफलता के दावे करने का ही है. फिर यह भी होगा कि उदारीकरण के दूसरे चरण के फैसले लेते हुए सरकार को किसी अपराधबोध की दरकार नहीं रहेगी. तीसरा लाभ संख्या कम होने से विभिन्न लाभकारी योजनाओं के लाभार्थियों की संख्या को कम कर देना होगा. और जब सब्सिडी और सीधे कैश ट्रांसफर का लाभ पानेवालों की संख्या कम हो जायेगी तो सरकार का खर्च बचेगा. उसे वित्तीय अनुशासन बनाये रखने में मदद मिलेगी. अभी कैश ट्रांसफर का जो प्रयोग राजस्थान के कुछ गांवों में हुआ है, उसमें सबसे बड़ा फायदा तो लाभार्थियों की संख्या 40 फीसदी हो जाने के सरकारी जादू के चलते ही हुई है. अभी सरकार को अगले चुनाव से पहले पौने दो लाख करोड़ की कैश ट्रांसफर योजनाएं जमीन पर उतारनी हैं. अगर संख्या में इतनी कमी है, तो जाहिर तौर पर सरकार के बजट में भी लाभ होगा. सिर्फ 18 फीसदी लोगों को लाभ देना और 65 करोड़ को भोजन की गारंटी योजना में लाने या 76 फीसदी को लाभ देने का प्रयास करने में तो अंतर है ही.

इस आंकड़ेबाजी में दोतीन काम और हुए हैं, जिनकी चर्चा जरूरी है. एक तो जिन दस राज्यों में औसत से ज्यादा दर से गरीबी कम हुई है, उनमें छह तो यूपीए शासनवाले हैं. इनमें बिहार भी है, झारखंड भी, जहां अब नयी राजनीति या नये समीकरण बन रहे हैं. एक राज्य ओड़िशा भी है, जो यूपीए में हो पर पक्के तौर पर एनडीए में नहीं जानेवाला है. फिर यह खेल समझ से परे है कि 2008 की वैश्विक मंदी की चपेट में कमोबेस हम भी आये, पर आंकड़ों से लगता है कि भारत में गरीबी घटने की रफ्तार 2008 के बाद ही तेज हुई है. उससे पहले ही रफ्तार प्रति वर्ष डेढ़ फीसदी भी नहीं बैठती. सो कई स्तर पर झोल है, चालाकी है और कुछ सच्चाई भी है.

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