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प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार यूरोप और अमेरिका के समाजों ने ऐसा क्या किया, जो वे वैज्ञानिक प्रगति कर पाये. चीन ही नहीं जापान, ताइवान, कोरिया, हांगकांग, सिंगापुर और इजराइल हमसे आगे हैं. अपनी समस्याओं को समझना और उनके समाधान खोजना वैज्ञानिकता है. हाल में मुंबई में हुई 102वीं साइंस कांग्रेस तथाकथित प्राचीन भारतीय विज्ञान से […]

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
यूरोप और अमेरिका के समाजों ने ऐसा क्या किया, जो वे वैज्ञानिक प्रगति कर पाये. चीन ही नहीं जापान, ताइवान, कोरिया, हांगकांग, सिंगापुर और इजराइल हमसे आगे हैं. अपनी समस्याओं को समझना और उनके समाधान खोजना वैज्ञानिकता है.
हाल में मुंबई में हुई 102वीं साइंस कांग्रेस तथाकथित प्राचीन भारतीय विज्ञान से जुड़े कुछ विवादों के कारण खबर में रही. अन्यथा मुख्यधारा के मीडिया ने हमेशा की तरह उसकी उपेक्षा की. आम तौर पर 3 जनवरी को शुरू होनेवाली विज्ञान कांग्रेस हर साल नये साल की पहली बड़ी घटना होती है.
जिस उभरते भारत को देख रहे हैं, उसका रास्ता साइंस की मदद से ही हम पार कर सकते हैं. इस बार साइंस कांग्रेस का थीम था : ‘मानव विकास के लिए विज्ञान और तकनीकी’. इसके उद्घाटन के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि साइंस की मदद से ही गरीबी दूर हो सकती है और अमन-चैन कायम हो सकता है. यह कोरा बयान नहीं है, बल्कि सच है. बशर्ते उसे समझा जाये.
हमने साइंस पर रहस्य का आवरण डाल रखा है. अपने अतीत के विज्ञान को भी हम चमत्कारों के रूप में पेश करते हैं. साइंस चमत्कार नहीं, जीवन और समाज के साथ जुड़ा सबसे बुनियादी विचार है. प्रकृति के साथ जीने का रास्ता है. तकनीक कैसी होगी, यह समाज तय करता है. जो समाज जितना विज्ञानमुखी होगा, उतनी ही उसकी तकनीक सामाजिक रूप से उपयोगी होगी. जनवरी, 2008 में जब टाटा की नैनो पहली बार दुनिया के सामने आयी, तब वह एक क्रांति थी.
जिस देश में सुई भी नहीं बन रही थी, उसने दुनिया की सबसे कम लागत वाली कार बना कर दिखा दी. दूसरी ओर, 2013 में हमने उत्तराखंड की त्रसदी को होते देखा. दोनों बातें वैज्ञानिक व तकनीकी विकास से भी जुड़ी हैं.
देश की बुनियादी समस्याएं हैं गरीबी, बेरोजगारी और भोजन, पानी, स्वास्थ्य, ऊर्जा आदि की कमी वगैरह. इन सब का समाधान अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र के सिद्धांतों में जरूर है, पर रास्ते बनाना विज्ञान का काम है. पिछले हफ्ते कोलकाता में इन्फोसिस पुरस्कार वितरण समारोह में अमर्त्य सेन ने कहा कि भारतीय विज्ञान की शानदार परंपरा रही है, पर वह वैश्विक परंपरा से जुड़ी थी.
एकांगी नहीं थी. हमने मिस्र, यूनान, रोम और बेबीलोन से भी सीखा और उन्हें भी काफी कुछ दिया. हजार साल पहले हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी. यदि हम प्रगति की उस गति को बनाये नहीं रख पाये, तो उसके कारण खोजने होंगे. जाहिर है, इसमें हमारी कुछ कमियां भी होंगी.
आज का भारत विज्ञान और तकनीक में यूरोप और अमेरिका से बहुत पीछे है. आधुनिक विज्ञान की क्रांति यूरोप में जिस दौर में हुई, उसे ‘एज ऑफ डिस्कवरी’ कहते हैं. ज्ञान-विज्ञान आधारित उस क्रांति के साथ भी भारत का संपर्क सबसे पहले हुआ. एशिया-अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के मुकाबले यूरोप की उस क्रांति के साथ भारत का संपर्क पहले हुआ. 1928 में सर सीवी रामन को जब नोबेल पुरस्कार मिला, तो यूरोप और अमेरिका की सीमा पहली बार टूटी थी.
1945 में जब मुंबई में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना हुई थी, तब विचार यही था कि आधुनिक भारत विज्ञान और तकनीक के सहारे उसी तरह आगे बढ़ेगा जैसे यूरोप बढ़ा. पर ऐसा हुआ नहीं.
हमारी तुलना चीन से की जाती है, जो हमारी तरह एक पुरानी सभ्यता है. दोनों देश एक जमाने तक विज्ञान और तकनीक में आज से बेहतर थे. दोनों ही औद्योगिक क्रांति से वंचित रहे. दोनों देश आज आर्थिक विकास के दरवाजे पर खड़े हैं. 2025 में दोनों देशों की जनसंख्या लगभग बराबर होगी. पर चीन में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य की स्थिति भारत से बेहतर है. वहां की साक्षरता का प्रतिशत भी भारत से अच्छा है. उद्योग और तकनीक में चीन की उपलब्धियां भारत की तुलना में कहीं शानदार हैं.
2012 में भुवनेश्वर में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि हम विज्ञान और तकनीक में चीन से पिछड़ गये हैं. हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का एक फीसदी पैसा भी विज्ञान और तकनीक में नहीं लगता. हमारी तुलना में दक्षिण कोरिया कहीं आगे है, जो जीडीपी की 4 फीसदी से ज्यादा राशि अनुसंधान पर खर्च करता है. अमेरिका इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा खर्च करता है, पर ओइसीडी की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार, 2018 तक चीन उसे पीछे छोड़ कर नंबर एक देश बन जायेगा.
आज हमारे पास सोलह आइआइटी और तीस एनआइटी हैं. इनके अलावा तकरीबन साढ़े पांच हजार इंजीनियरिंग कॉलेजों से पढ़ कर पांच लाख इंजीनियर हर साल बाहर निकल रहे हैं. बायो टेक्नोलॉजी, मेडिकल कॉलेजों और भारतीय प्रबंध संस्थानों के अलावा तमाम निजी कॉलेजों से नौजवानों की टोलियां पढ़ कर निकल रहीं हैं. फिर भी नेशनल नॉलेज कमीशन के अनुसार, हमें अभी 1,500 नये विश्वविद्यालयों की जरूरत है. पर केवल विश्वविद्यालयों के खुलने से काम नहीं होता.
शिक्षा में गुणवत्ता सबसे जरूरी है. यह गुणवत्ता प्राइमरी शिक्षा से ही शुरू हो जानी चाहिए. स्कूली शिक्षा हर शिक्षा की बुनियाद है. इस पर निवेश होना चाहिए. काबिल अध्यापकों की व्यवस्था भी देखनी होगी. इस हफ्ते जारी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) के अनुसार, भारतीय स्कूलों में लिखने-पढ़ने और गणित के बुनियादी सवालों को हल करने लायक शिक्षा देने में कोई बड़ा सुधार नहीं हुआ है. नये स्कूलों को खोलने, उनकी इमारतों को खड़ा करने और अध्यापकों को भरती करने का काम हुआ भी हो, पर शिक्षा में गुणात्मक सुधार नहीं हुआ है.
सरकार सिर्फ औपचारिकताएं पूरी कर रही है. गांव के स्कूल स्थानीय राजनीति के केंद्र बन गये हैं, जो शिक्षा के अलावा सारे काम करते हैं. ‘पढ़े भारत, बढ़े भारत’ खोखला नारा लगता है.
भारत ने हाल के वर्षो में कुछ काम सफलता के साथ किये हैं. इनमें हरित क्रांति, अंतरिक्ष कार्यक्रम, एटमी ऊर्जा कार्यक्रम, दुग्ध क्रांति, दूरसंचार और सॉफ्टवेयर उद्योग शामिल हैं. पर विज्ञान का आस्था से जोड़ नहीं होता. विज्ञान और वैज्ञानिकता पूरे समाज में होती है. सीवी रामन, रामानुजम या होमी भाभा जैसे कई नाम हमारे पास हैं. व्यक्तिगत उपलब्धियों के मुकाबले असली कसौटी पूरा समाज होता है. भारत के लोग अमेरिका जाकर जिम्मेवारी से काम करते हैं, अपने देश में नहीं करते. इसके कारण कहीं हमारे भीतर छिपे हैं. उन्हें खोजने की जरूरत है.
यह देखना भी जरूरी है कि जापान और दक्षिणी कोरिया जैसे देशों के नागरिकों ने किस तरह मेहनत करके अपने जीवन को बेहतर बनाया; यूरोप और अमेरिका के समाजों ने ऐसा क्या किया, जो वे वैज्ञानिक प्रगति कर पाये. चीन ही नहीं जापान, ताइवान, कोरिया, हांगकांग, सिंगापुर और इजराइल हमसे आगे हैं. अपनी समस्याओं को समझना और उनके समाधान खोजना वैज्ञानिकता है. वैज्ञानिकता को खोजिये.

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