।। अभिषेक दुबे ।।
(खेल संपादक, आइबीएन-7)
– इंडियन बैडमिंटन या हॉकी लीग भी बिजनेस मॉडल के तौर पर आइपीएल की तरह ही कामयाब हो, इसके लिए आइपीएल बिजनेस मॉडल के छह मजबूत पहलुओं पर गौर करें. –
आइबीएल के कोच और पूर्व बैडमिंटन खिलाड़ी पुलेला गोपीचंद पूरी स्थिति को देख कर दंग रह गये और साफ नाराजगी जतायी. दिल्ली में हुए ऑक्शन में सायना नेहवाल से लेकर पीवी सिंधू तक को मिलनेवाली रकम भले ही इंडियन प्रीमियर लीग (आइपीएल) के क्रिकेटरों को मिली रकम की तुलना में बौनी लगे, पर यदि यह लीग कामयाब रहा, तो बैडमिंटन समेत दूसरे स्पोर्ट्स में दुर्गापुर जैसी घटनाएं कम होती चली जाएंगी. आइपीएल ने रायपुर, रांची से लेकर धर्मशाला तक को कोलकाता और मुंबई जैसा अंतरराष्ट्रीय स्तर का स्टेडियम बनाने का भरोसा दिया है, बैडमिंटन से लेकर हॉकी तक को भी अब ऐसे ही भरोसे की जरूरत है.
आइपीएल की तर्ज पर भारतीय खेलों में इंडियन बॉक्सिंग लीग, इंडियन हॉकी लीग, गोल्फ लीग के बाद अब बैडमिंटन लीग खड़े किये गये हैं. स्पोर्ट्स अब ग्लोबल व्यवसाय है. बैडमिंटन या हॉकी लीग भी बिजनेस मॉडल के तौर पर आइपीएल की तरह ही कामयाब हो, इसके लिए आइपीएल बिजनेस मॉडल के छह मजबूत पहलुओं पर गौर करें.
पहला, कोई मुकाबला नहीं होने की वजह से आइपीएल के पास एक खुला मैदान था. सोने पर सुहागा ये रहा कि भारतीय क्रिकेट के पास पहले ही जबरदस्त फैन बेस था. वल्र्ड कप 2011 में भारत-पाक सेमीफाइनल मैच को टीवी-इंटरनेट समेत हर माध्यम को मिला कर दुनियाभर में एक अरब से अधिक लोगों ने देखा. भारतीय उपमहाद्वीप में मशहूर होने की वजह से फुटबॉल के बाद क्रिकेट दुनिया भर में संख्या के हिसाब से देखे जानेवाला दूसरा सबसे बड़ा स्पोर्ट्स बन चुका है. इसके विपरीत बैडमिंटन और हॉकी के पास वफादार फैन बेस तो है, पर क्रिकेटप्रेमियों की तुलना में इसकी तादाद काफी कम है.
दूसरा, किसी बिजनेस मॉडल को मुनाफा कमाने के स्तर पर आने में वक्त लगता है, जिसे ‘जेस्टेशन पीरियड’ कहते हैं. जबरदस्त वित्तीय और राजनीतिक ताकत की वजह से आइपीएल इस दौर से निकलने में कामयाब रहा, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या दूसरे स्पोर्ट्स लीग के पास भी इसका माद्दा है?
तीसरा, आइपीएल को ऑस्ट्रेलिया के बिग बैश, इंग्लैंड के प्रो टी-20, श्रीलंका प्रीमियर लीग और बांग्लादेश प्रीमियर लीग से चुनौती मिल सकती थी, लेकिन आइसीसी में भारतीय क्रिकेट बोर्ड की तूती बोलती है और इस वजह से ये सभी लीग कभी आइपीएल के सामने खड़े तक नहीं हो सके. क्या यह सही नहीं कि बैडमिंटन एसोसिएशन ऑफ इंडिया या फिर हॉकी इंडिया की इस तरह से अपने अंतरराष्ट्रीय खेल संघों में धमक नहीं है?
चौथा, आइपीएल आधुनिक भारतीय कल्चर के तीन अहम पहलुओं को पिरोने में कामयाब रहा. क्रिकेट, बॉलीवुड और कॉरपोरेट के तालमेल ने आइपीएल को ऐसा कॉकटेल दिया, जिसे करोड़ों दीवाने खारिज नहीं कर सके. दूसरे स्पोर्ट्स लीग ने भी अपनी पहुंच और ताकत के हिसाब से इस फॉर्मूले को अपनाने की पूरी कोशिश तो की है, लेकिन दोनों के स्तर के बीच बड़ी खाई है. सहारा परिवार ने जहां पुणे वारियर्स को रिकॉर्ड 1900 करोड़ रुपये में खरीदा, वहीं बैडमिंटन लीग और हॉकी की टीमों को तुलनात्मक तौर पर बहुत कम कीमत मिली. यह भारत में क्रिकेट और दूसरे खेलों के बीच की खाई को दिखाता है. क्रिकेट और दूसरे खेलों के स्टार को मिलनेवाली रकम में जमीन आसमां का अंतर है. क्या यह अंतर कम हो सकता है?
पांचवां, आइपीएल के मालिकों ने लीग की ब्रांडिंग, लोकप्रियता और कमाई को बढ़ाने के लिए इसे आठ-नौ सेंटरों से दूर ले जाने के लिए कदम उठाये. केकेआर ने अपने मैच कोलकाता के अलावा रांची में कराये, तो दिल्ली डेयरडेविल्स ने रायपुर को चुना, किंग्स 11 पंजाब के मैच धर्मशाला के खूबसूरत स्टेडियम में हुए. इससे जहां फ्रेंचायजी को मिलनेवाले गेट मनी में इजाफा हुआ, वहीं घरेलू और स्थानीय क्रिकेटरों को विश्वस्तरीय सुविधाओं का फायदा मिला. अगर प्राइवेट लीग से दूसरे खेलों को भी ऐसा ही फायदा पहुंचा, तो सब-जूनियर नेशनल टूर्नामेंट में इतनी खराब हालत में युवा खिलाड़ियों को पूरी रात मैच नहीं खेलने होंगे.
छठा, सबसे अहम पहलू वल्र्ड क्लास ट्रेनिंग से लेकर टैलेंट पूल से जुड़ा है. इंग्लैंड में चैंपियंस ट्रॉफी में जब दुनिया ने धौनी की टीम को चीते की तरह फील्डिंग करते देखा तो सभी दंग रह गये. सुविधाओं में बेहतरी और स्पेसलिस्ट कोच के जुड़ने से फील्डिंग जैसी विधा मजबूत हुई, जो भारतीय क्रिकेट का सबसे कमजोर पक्ष रहा था. आइपीएल ने युवा क्रिकेटरों को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटरों के साथ हाथ आजमाने का प्लेटफॉर्म दिया.
इस एक्सपोजर की वजह से वे अपने पहले ही अंतरराष्ट्रीय मैच में ऐसा खेलते हैं, जैसे मंझे खिलाड़ी हों. आइपीएल मॉडल पर बने दूसरे दूसरे स्पोर्ट्स लीग चल पड़े, तो भारत के पास आधुनिक ट्रेनिंग से लबरेज हॉकी और बैडमिंटन के ऐसे सितारे होंगे जो विश्वस्तर पर विरोधियों को टक्कर देने का माद्दा रखेंगे.
अब बात करते हैं आइपीएल के कमजोर पहलुओं पर, जो दूसरे स्पोर्ट्स लीग के लिए संक्रामक बीमारी बन सकते हैं. पहला, विवादों ने ब्रांड आइपीएल को प्रभावित किया है. 2008 में पहले सीजन से लेकर 2013 में छठे सीजन तक कभी ललित मोदी तो कभी एन श्रीनिवासन की मनमानियों से लीग में पारदर्शिता की कमी रही, मनमाने फैसले लिये गये. डोप से लेकर फिक्सिंग जैसे आरोपों ने मैचों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाये. दूसरे स्पोर्ट्स लीग को खुद को ऐसी गलतियों से दूर रहना होगा. लंदन ओलिंपिक 2012 में बैडमिंटन में फिक्सिंग के आरोप लग चुके हैं.
इसलिए जरूरी है कि इंडियन बैडमिंटन लीग इस बारे में हर तरह से एहतियात बरते. दूसरा, आइपीएल में फ्रेंचाइजी ने पैसा तो लगाया है, लेकिन अहम और निर्णायक मामलों में वे हिस्सेदार नहीं होते. स्पांसर परेशान रहे और लीग को छोड़ भी गये. हॉकी या बैडमिंटन लीग को इससे बचना होगा और फ्रेंचाइजी से लेकर स्पांसर तक से बेहतर तालमेल बना कर आगे बढ़ना होगा. तीसरा, आइपीएल के पास तो क्रिकेट के दीवानों का जबरदस्त फैनबेस था, इस वजह से इस बेस को बढ़ाने के लिए प्रयोग नहीं किये गये, लेकिन अन्य लीग को ऐसे प्रयोग युद्ध स्तर पर करने होंगे.
प्रस्तावित स्पोर्ट्स बिल से लेकर नाडा मामले में टकराव के बावजूद भारतीय क्रिकेट का कारवां आगे बढ़ा है, क्योकि भारतीय क्रिकेट बोर्ड सरकार के रहमोकरम पर निर्भर नहीं है. लेकिन दूसरे खेल सरकारी फंडिंग पर निर्भर हैं. अब स्पोर्ट्स लीग को रेगुलेट करने के लिए एक पारदर्शी रेग्युलेटरी बॉडी की भी जरूरत है. यह रेफरी लीग के संचालन में खेल भावना को बनाये रखे और गड़बड़ी के संकेत मिलते ही हूटर भी बजा दे.