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‘लोक’ से ‘तंत्र’ का बढ़ता अलगाव

* एनकाउंटर पर राजनीति भारत घाटे की अर्थव्यवस्था वाला देश है- उदारीकरण से पहले अर्थशास्त्र और नागरिकशास्त्र पढ़ानेवाले शिक्षक यह बताते थे. इसके पीछे मंशा शायद सार्वजनिक जीवन में बचत को बढ़ावा देने और फिजूलखर्ची रोकने की होती थी. उस वक्त ‘घाटा’ शब्द सालोंभर अर्थव्यवस्था की सेहत बताने के लिए इस्तेमाल होता था. लेकिन, उदारीकरण […]

* एनकाउंटर पर राजनीति

भारत घाटे की अर्थव्यवस्था वाला देश है- उदारीकरण से पहले अर्थशास्त्र और नागरिकशास्त्र पढ़ानेवाले शिक्षक यह बताते थे. इसके पीछे मंशा शायद सार्वजनिक जीवन में बचत को बढ़ावा देने और फिजूलखर्ची रोकने की होती थी.

उस वक्त ‘घाटा’ शब्द सालोंभर अर्थव्यवस्था की सेहत बताने के लिए इस्तेमाल होता था. लेकिन, उदारीकरण के बाद के वर्षो में सार्वजनिक जीवन की भाषा में ‘घाटा’ शब्द सर्वव्यापी हो गया है. अब प्रशासन की कमियों को ‘गवर्नेस डेफिसिट’ तो बुनियादी ढांचे की कमी को ‘इंफ्रास्ट्रक्चर डेफिसिट’ कहा जाता है. इस कड़ी में बड़ा घाटा दिख रहा है उस विश्वास में, जो लोकतंत्र में ‘राज’ को ‘राजनीति’ से और ‘राजनीति’ को आम जनता से जोड़ता है.

कहा जा सकता है कि भारत की राजव्यवस्था अब घाटे की राजव्यवस्था है. इससे जुड़े पक्षकार यानी राजनीतिक दल, जनता, सरकार और अदालत एक-दूसरे की नजर में इतने अविश्वसनीय हो गये हैं कि जो फैसले सर्वमान्य होने चाहिए उस पर भी विवाद होते हैं. हद यह है कि राष्ट्रीय जीवन को सुरक्षित रखने के लिए कोई शहीद हो जाये तो हम उसकी कर्तव्यपरायणता पर भी शक करते हैं.

दिल्ली के ‘बाटला हाउस एनकाउंटर’ में गिरफ्तार अपराधी को अदालत ने साक्ष्यों के आधार पर दोषी पाया है, पर जामियानगर के लोगों का कहना है कि उनका विश्वास अब भी यही है कि इंस्पेक्टर मोहनचंद्र शर्मा को फर्जीवाड़े से मार कर दोष जामियानगर निवासी पर मढ़ा गया, क्योंकि वह अल्पसंख्यक समुदाय से था! कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह को भी ऐसा ही लग रहा है. अदालत का फैसला आने पर भी वे निजी तौर पर नहीं मानते कि एनकाउंटर में फर्जीवाड़ा नहीं हुआ.

हालांकि कांग्रेस का आधिकारिक बयान इससे उलट है और उसके एक अन्य नेता की सीख है कि अदालत के फैसले पर राजनीति मत कीजिए. चुनावी वेला में दिग्विजय अगर इस मुद्दे को गरमा कर कांग्रेस को अल्पसंख्यकों का हमदर्द साबित करना चाहेंगे, तो भाजपा ठीक ही इसे तुष्टीकरण की मिसाल बतायेगी. लेकिन भावनाओं को भड़का कर वोट बटोरने की तुच्छ राजनीति में शहीद इंस्पेक्टर शर्मा के परिवार के दु:ख व अपमान को कोई दर्ज नहीं कर रहा.

शहीद की पत्नी माया शर्मा का यह दर्द सुननेवाला कोई नहीं है कि ‘पिछले पांच वर्षो से कुछ नेता मुठभेड़ को फर्जी बता रहे थे, पति की मौत से ज्यादा इनके बयानों ने हमें रुलाया.’ जब राजव्यवस्था नागरिकों के एक हिस्से का दु:ख दर्ज न कर सके और अपनी संस्थाओं के फैसले पर व्यंग्य कसे, तो समझना चाहिए कि ‘लोक’ से ‘तंत्र’ का अलगाव बढ़ रहा है.

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