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सुरक्षा : आर्थिक शब्दावली का हिस्सा
एमजे अकबर प्रवक्ता, भाजपा पिछले वर्षो में शब्दों के मायने बदल गये हैं. सुरक्षा कभी सीमाओं से संबद्ध थी, पर अब हम खाद्य सुरक्षा की बात भी करते हैं. लेकिन राजनीतिक वर्ग इसे ठीक से समझ नहीं पाया है. अर्थव्यवस्था अब आंतरिक सुरक्षा का द्योतक है. लोकतांत्रिक खींचतान के उतार-चढ़ाव कुछ अलिखित नियमों पर निर्भर […]
एमजे अकबर
प्रवक्ता, भाजपा
पिछले वर्षो में शब्दों के मायने बदल गये हैं. सुरक्षा कभी सीमाओं से संबद्ध थी, पर अब हम खाद्य सुरक्षा की बात भी करते हैं. लेकिन राजनीतिक वर्ग इसे ठीक से समझ नहीं पाया है. अर्थव्यवस्था अब आंतरिक सुरक्षा का द्योतक है.
लोकतांत्रिक खींचतान के उतार-चढ़ाव कुछ अलिखित नियमों पर निर्भर करते हैं. एक बुनियादी नियम है कि किसी सुरक्षा-संकट के समय राजनीतिक दलों में एकता की आवश्यकता है. जो दल इसका उल्लंघन करते हैं, उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है.
मतदाताओं के बीच वे अपनी साख खो देते हैं. अब मतदाता आर्थिक सुरक्षा के मुद्दे पर भी ऐसी अपेक्षा रखने लगे हैं. इसका कारण साफ है : पिछले एक दशक की गलतियों, और एक भ्रष्ट तथा बेपरवाह सरकार की विफलताओं के कारण देश में स्पष्ट रूप से आर्थिक संकट व्याप्त है. लोग इस स्थिति से बहुत बहुत जल्दी बाहर निकलना चाहते हैं.
दस वर्षो की दुविधा, देरी, कटुता और पतन के बाद भारतीय चाहते हैं कि पार्टियां अपने वास्तविक या बनावटी शत्रुता को किनारे रख कर, गतिहीनता को तोड़ने के लिए आवश्यक कानूनों पर तथा लोगों की अपेक्षा के अनुसार विकास के मानदंडों को उच्च स्तर पर ले जाने के लिए परस्पर सहयोग की प्रवृत्ति अपनायें.
यह राजनीति से संबद्ध नहीं है, इसका संबंध राष्ट्र से है. यह कल्याण और आकांक्षा से संबद्ध है. इसका संबंध फैक्ट्रियों और उत्पादन से है. इसका संबंध उस आत्मसम्मान से है, जो रोजगार के साथ मिलता है. यह युवाओं के लिए भविष्य के निर्माण से संबद्ध है, न कि उन निष्क्रिय राजनेताओं से जो अपने बीते हुए को फिर से जीने के लिए व्यग्र हैं.
भारतीयों के पास दिखावे की परख करनेवाली गहरी नजर है. उन्हें पता है कि ममता बनर्जी के सांसद राज्यसभा में अपमानजनक और व्यवधान पैदा करनेवाला रवैया इसलिए नहीं अपना रहे हैं कि उनके पास आर्थिक नीतियों के लिए कोई मूल्यवान सुझाव या संशोधन है, बल्कि वे सारदा चिट फंड घोटाले की सीबीआइ जांच में पार्टी के शिखर नेतृत्व के फंसते चले जाने से परेशान हैं. ममता बनर्जी के बहुत नजदीकी नेताओं- मदन मित्र और मुकुल रॉय- से पूछताछ हुई है और उन्होंने कुछ-कुछ उगलना भी शुरू कर दिया है. मुकुल रॉय ने माना है कि वे सारदा के प्रमुख सुदीप्त सेन से मिले थे, संभवत: बंगाल की मुख्यमंत्री की उपस्थिति में.
आंतरिक दबावों के कारण पार्टी में बिखराव शुरू हो चुका है. मंत्री मंजुल ठाकुर ने पार्टी में बढ़ते भ्रष्टाचार से परेशान होकर इस्तीफा दे दिया है. भाजपा द्वारा पीछा किये जाने से ममता बनर्जी नाराज हो सकती हैं, लेकिन इसका बदला लोगों से लेना निहायत ही नासमझी का काम है. राज्यसभा में अवरोध पैदा करना ऐसी ही एक हरकत है.
विचारों से हीन और राहुल गांधी के असुरक्षित नेतृत्व में बेबस कांग्रेस ने नकारात्मकता को ही हताश रवैये के रूप में अपना लिया है. इसके प्रवक्ता अर्थव्यवस्था की हर बहस को महत्वहीन बना रहे हैं; ऐसा लगता है कि वे निंदा को ही तर्क मानने लगे हैं. लेकिन यह प्रभावहीन है. दो दशक पहले सुधारों की शुरुआत करनेवाली कांग्रेस अगर अब सुधारों के अगले दौर की निंदा करेगी, तो गुमनाम जायेगी. दिल्ली में इसका मत-प्रतिशत एकल अंक में आ जायेगा, जहां इसने 15 वर्षो तक आत्मविश्वास के साथ शासन किया था.
हर राज्य में मान्यताप्राप्त दलों की सूची में इसका स्थान सबसे अंत में आता जा रहा है. जब बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश में चुनाव होंगे, तो यह चौथे स्थान पर रहेगी. अविश्वसनीय रूप से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 34 उपाध्यक्ष, 64 महासचिव, 43 सांगठनिक सचिव और 84 कार्यकारिणी समिति सदस्य हैं. कुल मिला कर पदाधिकारियों की संख्या 402 है, जबकि कई सीटों पर इसे शायद 400 वोट भी नहीं मिलेंगे.
वाम पंथ हाशिये पर पड़ा बेसुरे ढंग से बड़बड़ानेवाला समूह हो चुका है; अनेक जनता पार्टियां एक साथ कुछ कर सकने में अक्षम हैं, और अपने स्वार्थ से वशीभूत हैं कि कोई रचनात्मक राष्ट्रीय दृष्टि अपनाने में असफल हैं. इन प्रवृत्तियों से बिल्कुल अलग ओड़िशा में नवीन पटनायक और तमिलनाडु में जयललिता की पार्टियों का रवैया है, जो स्थिति के मुताबिक चिंता व्यक्त करती हैं और देशहित में जरूरी आर्थिक नीतियों का समर्थन भी करती हैं. अन्य कारणों के साथ उनको मतदाताओं का समर्थन मिलते रहने का यह भी एक बड़ा कारण है.
संसद के सत्र के दौरान कोई भी सरकार अध्यादेश का रास्ता नहीं अपनाना चाहती है. लेकिन मोदी सरकार बेमतलब के व्यवधानों को सफल नहीं होने देना चाहती है. वे शासन के लिए चुने गये हैं, रिरियाने के लिए नहीं. पिछले वर्षो में शब्दों के मायने बदल गये हैं. सुरक्षा कभी सीमाओं से संबद्ध थी, पर अब हम खाद्य सुरक्षा की बात भी करते हैं.
लेकिन राजनीतिक वर्ग इसे ठीक से समझ नहीं पाया है. अर्थव्यवस्था अब आंतरिक सुरक्षा का द्योतक है. अगर हम गरीबी की भयावहता का निवारण कर नागरिकों के जीवन-स्तर को बेहतर नहीं कर पाते हैं, तो फिर हमारे देश में शांति की कोई संभावना नहीं है.
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