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जबान हिलाने से नहीं पल जाते बच्चे

कोई कहता है तीन बच्चे पैदा करो, कोई चार, तो कोई दस बच्चे पैदा करने की बिन मांगी सलाह दे रहा है. इंतजार कीजिए! यह सिलसिला अभी जारी है.. संख्या और बढ़ सकती है. जितना बड़ा मुंह उतनी बड़ी संख्या. खैर मनाइए कि प्रकृति का सिस्टम अभी बिगड़ा नहीं है और बच्चे सिर्फ जुबान हिलाने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 20, 2015 5:51 AM

कोई कहता है तीन बच्चे पैदा करो, कोई चार, तो कोई दस बच्चे पैदा करने की बिन मांगी सलाह दे रहा है. इंतजार कीजिए! यह सिलसिला अभी जारी है.. संख्या और बढ़ सकती है. जितना बड़ा मुंह उतनी बड़ी संख्या. खैर मनाइए कि प्रकृति का सिस्टम अभी बिगड़ा नहीं है और बच्चे सिर्फ जुबान हिलाने से पैदा नहीं होते. वरना अंजाम क्या होता, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. ऐसी बेतुकी सलाह देनेवाले, घर-परिवार, दुनियादारी से भागे फिरने वाले वो ‘जीव’ हैं जिनको जिंदगी का मर्म मालूम ही नहीं. इनके बारे में तो बस एक ही बात कही जा सकती है- संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे.. इन्हें क्या मालूम कि आज के समय में पैदा होने वाले अधिकतर बच्चों का संघर्ष उनके पैदा होने से पूर्व ही आरंभ हो जाता है.

गर्भस्थ शिशु अस्पताल और डॉक्टर के लापरवाह रवैये पर अपने मां-बाप को उनसे लड़ते देखता है. जन्म के बाद महंगे डोनेशन और महंगी फीस को लेकर स्कूल प्रबंधन से लड़ते देखता है. स्कूल बस वाले के देर से आने पर उससे झगड़ते देखता है. दूध डेयरी पर अठन्नी के बदले टॉफी थमा देने वाले डेरी वाले से लड़ते देखता है. टिकट का पैसा बचाने के वास्ते, ट्रेनों और बसों में बच्चे की उम्र कम साबित करने के लिए टीटी और कंडक्टर से लड़ते देखता है. सब्जी के साथ धनिया-मिर्च मुफ्त देने में आनाकानी करने पर सब्जी वाले से लड़ते देखता है. गेहूं-चावल बाजार भाव से कम पर मिल जाये इसके लिए राशन डीलर के चक्कर काटते देखता है. बिजली और टेलीफोन का अनाप-शनाप बिल भेजने पर विभाग के बड़े बाबुओं से लड़ते देखता है. अपने गेट के आगे गाड़ी पार्क करने पर पड़ोसी से लड़ते देखता है.

गनीमत है कि हमारे बच्चे हमारे साथ दफ्तर नहीं जाते वरना वो वहां भी हमें अपने सहकर्मियों और बॉस के साथ लड़ते देखते. कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी न्याय की खातिर, तो कभी रोजगार के लिए सड़क से लेकर संसद तक, हर रोज हर घंटे, हर पल, हर मुद्दे पर और हर मोरचे पर हमारे बच्चे हमें लड़ते हुए देख कर बड़े होते हैं. वाह! परवरिश का क्या शानदार माहौल उन्हें नसीब होता है. अब जरा आप ही सोचिए! जिंदगी के हर मोरचे पर इतनी सारी लड़ाइयां लड़ने के लिए भला कौन सा बच्च पैदा होने को आतुर होगा? हर रोज घर से सब्जी खरीदने जाता हुआ जो इनसान इस बात से डरा रहता है कि आज कहीं आलू-प्याज का रेट फिर न बढ़ गया हो. देर रात तक जाग कर वह टीवी देखता रहता है कि कहीं डीजल-पेट्रोल के दाम तो नहीं बढ़ गये. सुबह अखबार देखते हुए सहमा रहता है कि कहीं बस वालों ने किराया न बढ़ा दिया हो. भला उसके घर पैदा होने के लिए कौन सा बच्च लाइन में लगा है!

अखिलेश्वर पांडेय

प्रभात खबर, जमशेदपुर

apandey833@gmail.com

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