भारत निस्संदेह विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है. यहां का इतिहास हमेशा विविध धर्मो और संस्कृतियों के साथ जीवंत रहा है. यहां के नीति- निर्धारकों ने हमेशा सौहार्द और सद्भाव पर विशेष जोर दिया है. यही कारण है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता के साथ संविधान के अनुच्छेद 26, 27 और 28 में मूल अधिकार के तौर पर धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को प्रमुखता से स्थान दिया गया है.
बावजूद इसके कई वर्षो से भारतीय राजनीतिक परिदृश्य कुछ बदलता जा रहा है. उसकी यह विडंबना रही है कि सियासतदारों ने हमेशा सत्ता की रोटी सेंकने के लिए जाति और धर्म का सहारा लिया.
वर्तमान में धर्मातरण और लव-जिहाद जैसी चीज इसी की बानगी है, जिसने विभिन्न संप्रदायों में बेवजह तनाव और रोष पैदा किया हुआ है. इससे भारत की पंथनिरपेक्ष पहचान भी धूमिल होती जा रही है. सबसे बड़ा सवाल यह नहीं है कि हमारे देश में यह सब क्यों हो रहा है? सवाल यह है कि आखिर ये सब काम किया ही क्यों जा रहा है? क्या इससे देश का विकास होगा? यदि नहीं, तो फिर हम वह सब काम क्यों नहीं करें, जिससे देश का विकास हो, यहां से गरीबी और भुखमरी मिटे तथा लोगों का कल्याण हो. आज यही वजह है कि धर्माधता की आड़ में दुनिया के देशों का विकास बाधित है और लोग आपस में कट मर रहे हैं. यदि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के लिए सही दिशा में काम किया जाये, तो आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समृद्धि से दुनिया में स्वयमेव अमन-चैन कायम हो सकता है. आज जरूरत इस बात की है कि देश में धार्मिक विद्वेष पैदा करने के बजाय गरीबी और भुखमरी मिटाने पर सरकार ध्यान दे.
सूरज ठाकुर, साहिबगंज