कहां गये ग्रीटिंग कार्ड के वो दिन
नये साल के तीन हफ्ते गुजर चुके हैं. नौजवान 31 दिसंबर की सर्द रात की गरमागरम पार्टी और एक जनवरी की पिकनिक की तसवीरें फेसबुक पर अपलोड कर, लाइक-लाइक खेल कर, भूल चुके हैं और अब वैलेंटाइन डे की तैयारी में लगे हैं. कुछ हैं जिन्हें पाश्चात्य संस्कृति से नफरत है, वे विशुद्ध भारतीय पर्व […]
नये साल के तीन हफ्ते गुजर चुके हैं. नौजवान 31 दिसंबर की सर्द रात की गरमागरम पार्टी और एक जनवरी की पिकनिक की तसवीरें फेसबुक पर अपलोड कर, लाइक-लाइक खेल कर, भूल चुके हैं और अब वैलेंटाइन डे की तैयारी में लगे हैं. कुछ हैं जिन्हें पाश्चात्य संस्कृति से नफरत है, वे विशुद्ध भारतीय पर्व सरस्वती पूजा के लिए चंदा-चिट्ठा में जुटे हैं और जीन्स पहन कर ‘लट्टू पड़ोसन की भाभी हो गयी..’ पर देसी ठुमका लगाने की तैयारी कर रहे हैं. लेकिन, ‘मूव ऑन’ के इस जमाने में हमारे चौबेजी की सूई दूर अतीत में ही अटकी हुई है. वह नये साल पर ग्रीटिंग कार्ड का इंतजार कर रहे हैं.
हालांकि पिछले 10 सालों से उनके यहां कोई ग्रीटिंग कार्ड नहीं आया है, लेकिन पुरानी आदत है कि जाती ही नहीं. बेचारे मोबाइल में ही नये साल की बधाई के एसएमएस दोबारा-तिबारा पढ़ कर खुश होने की कोशिश में लगे हुए हैं. उनके बच्चे स्मार्ट से होते हुए सुपर स्मार्ट फोन तक पहुंच गये हैं, जबकि वह बार-बार बैटरी बदलवा कर एंटीक मोबाइल नोकिया 3315 पर अटके हुए हैं. ऐसे अटके हुए लोग अक्सर पुरानी यादों की गलियों में भटक जाते हैं.
फिर उन यादों को बिना किसी से साझा किये दिल नहीं मानता. बच्चे तो आधा-एक मिनट के बाद ही टका सा जवाब दे देते हैं, ‘‘क्या पापा! बोर मत कीजिए.’’ लेकिन, बच्चों के साथ कदम मिला कर चलने की कोशिश में जुटी रहनेवाली श्रीमतीजी बेचारी नहीं बच पाती हैं. तो चौबेजी उन्हें पकड़ लिया, ‘‘वो भी क्या जमाना था, हम ग्रीटिंग कार्ड अपने हाथों से बनाते थे. रंग-बिरंगे स्केच पेन, ग्लिटर पेन, रंगीन कागज, गोंद, रंगीन धागे, सीप-मोती और न जाने किन-किन चीजों का इस्तेमाल किया करते थे. हाथों में गजब का हुनर था. ऐसे कार्ड बनाते थे कि सीधे लोगों के दिल में उतर जायें. दिसंबर से ही कार्ड बनाना शुरू हो जाता था. मानो किसी उत्सव की तैयारी चल रही हो.
नये साल की बधाई हम लोग कभी जुबानी नहीं देते थे. एक -एक दोस्त, नातेदार-रिश्तेदार को खूबसूरत कार्ड भेज कर अपनी भावनाओं का इजहार करते थे. हम जितने कार्ड भेजते, उससे कहीं ज्यादा कार्ड मिलते. तब ख्याल आता कि अरे! फलां को तो हम भेजना ही भूल गये थे. भर जनवरी डाकिये का इंतजार रहता. आज चाचा का कार्ड, तो कल मामा का. परसों मुंबई वाले दोस्त का, तो नरसों हजारीबाग वाले का. कई बार तो एक ही दिन दो-तीन कार्ड पहुंच जाते थे. उन सभी कार्डो को हम बड़ी खूबसूरती से दीवारों पर सजा दिया करते थे. यह सजावट अगले साल जनवरी में ही बदलती थी. जब लोग घर आते, तो उन्हें उनका कार्ड दिखाते कि देखिए आपकी याद को कैसे संभाल कर रखा है. लेकिन न जाने कहां गये वो दिन.. अब तो लोग दो लाइन का एसएमएस भेज देते हैं, वो भी सेकेंड हैंड.’’ अब श्रीमतीजी का धीरज चुकने लगा, ‘‘आप मेसेज पढ़िए, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’
राकेश कुमार
प्रभात खबर, रांची
rakesh.kumar@prabhatkhabar.in