चैनल बदलने से कुछ नहीं बदलता

कुणाल देव प्रभात खबर, जमशेदपुर सप्ताह में एक दिन दफ्तर से छुट्टी मिल भी जाये, तो बीवी और टीवी से छुट्टी नहीं मिलती. सुबह से बीवी का हुक्म बजाने के बाद, शाम को टीवी के खबरिया चैनल खोल कर बैठ गया. जैसा कि आजकल होता है, टीवी खुलते ही कान में जो पहला शब्द पड़ा, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 23, 2015 5:22 AM
कुणाल देव
प्रभात खबर, जमशेदपुर
सप्ताह में एक दिन दफ्तर से छुट्टी मिल भी जाये, तो बीवी और टीवी से छुट्टी नहीं मिलती. सुबह से बीवी का हुक्म बजाने के बाद, शाम को टीवी के खबरिया चैनल खोल कर बैठ गया.
जैसा कि आजकल होता है, टीवी खुलते ही कान में जो पहला शब्द पड़ा, वह था- ‘मोदी’. वैसे भी अब यह शब्द कानों में इस प्रकार सेट हो गया है, जैसे ऊंचा सुनने वालों के कानों में ‘हियरिंग एड.’ ताज्जुब तो यह है कि दिसंबर भर जो खबरिया चैनल सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव की बात कर रहे थे, उनमें जनवरी आधी बीत जाने के बाद भी रत्ती भर बदलाव नहीं आया है.
प्राइम टाइम के एंकर से पैनलिस्ट तक के न तो चेहरे बदले, न उनकी बातें. कुछ नये की चाह में बटन टीपते हुए उंगलियां थक गयीं, रिमोट भी घर्षण से गर्म हो गया, लेकिन खोज पूरी नहीं हुई. फिल्मी चैनलों का रुख करने वाला ही था कि ‘बेबाक सिंह’ आ धमके. दुआ-सलाम के साथ ‘बेबाक सिंह’ ने कुरसी पर ही पालथी जमा ली.
उनके इस आसन को देख श्रीमतीजी समझ गयीं और थोड़ी ही देर में चाय की प्याली पेश कर दी. चाय की चुस्की के साथ ‘बेबाक सिंह’ ने पूछा- ‘‘क्या देख रहे थे गुरु?’’ मैंने कहा- ‘‘चैनलों पर न्यूज खोज रहा था. लेकिन, यहां तो न्यूज का मतलब ही मोदी हो गया है. अभी तुम आ गये वरना कोई फिल्मी चैनल लगाने वाला था.’’
उन्होंने फरमाया, ‘‘तो वहां कौन सी पीके मिलेगी? घुमा-फिरा कर वही फिल्में रोज आती हैं. यकीन नहीं आता, तो मैं नाम बोलता हूं और तुम मिला कर देख लो- कशमकश, शिवाजी-द बॉस, इंटरटेनमेंट, कृष, रेस, धूम, टाजर्न- द वंडर कार, सूर्यवंशम.. मान गये कि और गिनाऊं.’’ इससे पहले कि मैं कुछ कहता वह फिर बोल पड़े- ‘‘अब तो बच्चे भी टीआरपी का खेला जानते हैं और तुम्हें समझ में नहीं आ रहा! एक जमाना था जब ‘जय संतोषी मां’और ‘जय हनुमान’ सरीखी फिल्में वर्षो स्क्रीन पर टिकी रहती थीं. आज इन्हें देखने के लिए कौन हॉल का रुख करेगा?
भाई, ऐक्शन के इस दौर में ‘खामोशी’ की भाषा कौन समङोगा? हां, ‘दबंग’ स्टाइल वालों की बात ही कुछ और है.. फिर, बुद्धिजीवियों से होड़ लेने या उनकी समीक्षा करने का अधिकार तुम्हें दे किसने दिया? तुम्हें बदलाव चाहिए? बैठे-ठाले बदलाव खोजोगे तो गिरगिट ही मिलेगा, लेकिन जो वर्षो से अपनी बात पर टिके हैं, उनकी तुलना तो हिमालय से ही की जायेगी न. और हर बदलाव अच्छे के लिए ही नहीं होता.
सोचो, तुम्हें अगर कोई जवान से बूढ़ा बना दे, तो कैसा लगेगा? कहते हैं इंसान का नेचर और सिग्नेचर कभी नहीं बदलता. और, मर्द की जुबान भी एक होती है. और ये भले लोग भी अपनी जगह कायम हैं, तो तुम्हें दिक्कत क्यों है भाई? अपने हो इसलिए समझा रहा हूं. बदलाव शब्द अच्छा है, लेकिन इसका प्रयोग तभी करना जब संघर्ष की कुव्वत पैदा हो जाये.’’

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