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शुजात बुखारी वरिष्ठ पत्रकार पश्चिमी पाक के शरणार्थियों को लेकर खूब रोना-धोना चल रहा है, जबकि उनके बारे में कोई नहीं बोल रहा है, जिन्होंने न केवल 1954 तक, बल्कि 1990 के बाद तक, पाकिस्तान को विस्थापन किया था, जब सीमा के आर-पार की गोलाबारी के सामने उनका बने रहना कठिन हो गया था. 35 […]
शुजात बुखारी
वरिष्ठ पत्रकार
पश्चिमी पाक के शरणार्थियों को लेकर खूब रोना-धोना चल रहा है, जबकि उनके बारे में कोई नहीं बोल रहा है, जिन्होंने न केवल 1954 तक, बल्कि 1990 के बाद तक, पाकिस्तान को विस्थापन किया था, जब सीमा के आर-पार की गोलाबारी के सामने उनका बने रहना कठिन हो गया था. 35 हजार से ज्यादा लोग पाकिस्तान शासित कश्मीर में एक कठिन जीवन जी रहे हैं.
सांप्रदायिक आधार पर खदबदाती अनबन ने एक बार फिर जम्मू-कश्मीर की एकता के लिए जोखिम पैदा कर दिया है. 2008 में हम देख चुके हैं कि अमरनाथ भूमि-विवाद ने जम्मू और कश्मीर के बीच पहले से ही कमजोर रिश्ते को और चोट पहुंचायी थी. हालांकि, मुद्दा उन कुछ लाख लोगों तक सीमित है, जिन्हें पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरणार्थी के रूप में जाना जाता है.
2008 में व्यापार में उन्हें हुए नुकसान को देखते हुए, संभव है कि इस मुद्दे को जम्मू के सभी लोगों का समर्थन भी न मिले. फिर भी राजनीतिक माहौल गर्म है और इस बार कश्मीर के कई हलकों में एक जनमत बनता दिख रहा है. ये लोग इसे जनसांख्यिकी बदलने की साजिश के तौर पर देख रहे हैं.
शरणार्थियों के मतदान तथा दूसरे अधिकारों को लेकर संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की एक सिफारिश ने तूफान खड़ा कर दिया है. पीडीपी और भाजपा, दोनों मिल कर सरकार बनाने के लिए बातचीत कर रही हैं. दोनों की वैचारिकी भिन्न है और यह मुद्दा भी उनके विचार-विमर्श का हिस्सा है.
1947 से जम्मू में बसे ये शरणार्थी, जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं, उन्हें मानवीय आधार पर समझना जरूरी है, लेकिन यह निश्चित तौर पर राज्य की एकता की ऊंची कीमत पर होना नियत है. इसने भारत में ‘घर-वापसी’ सरीखे संघ के विभाजनकारी एजेंडे की पृष्ठभूमि में एक बहस शुरू की है कि राज्य में 1947 के बाद से हुए सभी विस्थापनों के संबंध में भी विचार किया जाना चाहिए.
वेस्ट पाकिस्तान रिफ्यूजी ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूपीआरओ) के अध्यक्ष लाभराम गांधी का दावा है कि 1947 में केवल 5,764 परिवार ही विस्थापित हुए थे, जो अब बढ़ कर 25,460 हो गये हैं. लेकिन जम्मू के मुसलमानों पर काम करनेवाले एक शोधार्थी के मुताबिक, ‘उस समय ऐसे परिवारों की संख्या लगभग बारह हजार थी, जो कि मोटे तौर पर पचास हजार हो गयी होगी. अनेक ऐसे परिवार रहे हैं, जिन्होंने संगठन के पास अपना पंजीकरण नहीं कराया था.’
वास्तविक परिवारों की संख्या जो भी हो, उन्हें अधिकार देने को एक मानवीय मुद्दे की तरह बरतने के बजाय एक राजनीतिक मकसद की तरह देखा जा रहा है. भाजपा के इसे चुनाव घोषणापत्र में शामिल करना तथा प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चुनाव सभाओं में इनकी चर्चा किये जाने को इस तरह देखा गया कि जेपीसी की सिफारिशें लागू की जायेंगी, पर सिफारिशें दिल्ली और जम्मू के बीच झूल रही हैं.
विवादित मुद्दा है- शरणार्थियों को विधानसभा चुनाव में मताधिकार देना. यह उन ताकतों को मदद पहुंचायेगा, जो सीटों की संख्या के लिहाज से जम्मू और कश्मीर में समानता चाहते हैं.
यानी कश्मीर के मतदाताओं पर निर्भर हुए बिना राज्य में सत्ता की राह तैयार करना. हालांकि, विधानसभा सीटों के सीमा निर्धारण का काम 2026 तक अवरुद्ध है. यह कदम उन पार्टियों के लक्ष्य को साकार करने की दिशा में काम करेगा, जो पार्टियां भेदभाव व कश्मीरी वर्चस्व के सहारे फलती-फूलती आ रही हैं.
एक प्रासंगिक प्रश्न, जिसका जवाब चाहिए कि इन शरणार्थियों को 1947 में जम्मू में ही क्यों धकेला गया, देश के दूसरे भागों में क्यों नहीं?. इस बात से यह साफ था कि इसका मकसद राज्य की जनसांख्यिकी में बदलाव लाना था. जम्मू क्षेत्र मुसलिम बहुमत वाला क्षेत्र था और इसके अतिरिक्त तीन लाख से अधिक मुसलमानों की हत्या, उस अंतर को पाटने का एक ढंग हो सकता था.
यह हत्याकांड, डांवाडोल डोगरा रियासत का अपनी प्रजा, जो एक सदी से भी अधिक समय तक उनके प्रति वफादार थी, को विदाई ‘उपहार’ था. मसलन, आज जम्मू में मुसलिम आबादी पांच फीसदी है, जो 1947 में 39 फीसद थी. इसी तरह, कठुआ जिले में 30 फीसद के विरुद्ध उनकी संख्या आठ फीसदी है.
पाकिस्तान में रह रहे जम्मू-कश्मीर के शरणार्थियों की वापसी को सरल बनाने के क्रम में शेख अब्दुल्ला 1977 में पुनर्वास विधेयक लाये थे, जिसे विधेयक संख्या-9 के नाम से भी जाना गया. इसका मकसद राज्य की उस जनता के लिए द्वार खोलना था, जो 1954 तक विस्थापित हुए थे. यह विधेयक आज भी सर्वोच्च न्यायालय के पास अनिर्णित पड़ा है.
जम्मू-कश्मीर के लगभग बारह लाख शरणार्थी मुख्य पाकिस्तान में रहते हैं. उनमें से लगभग ग्यारह लाख लोग पहले के जम्मू तथा कठुआ जिले के मूल निवासी रहे हैं.
जिस तरह वे मारे और अपने घरों से खदेड़े गये थे, उसका वर्णन पत्रकार वेद भसीन ने 9 अक्तूबर, 2003 को एक साक्षात्कार में किया कि यह महाराजा के शासन तथा आरएसएस द्वारा सुनियोजित था- ‘जब मीरचंद महाजन (पीएम) जम्मू आये थे, तब सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे. उन्होंने सांप्रदायिक दलों तथा नेशनल कॉन्फ्रेंस से कुछ अल्पसंख्यक नेताओं को बुलाया था. इनमें त्रिलोक चंद दत्त, गिरधारी लाल डोगरा तथा ओम सराफ आदि थे. छात्रों के एक प्रतिनिधि के तौर पर मैं भी था.
महाराजा के महल में उन्होंने कहा कि जम्मू और कश्मीर में लोगों के बीच सत्ता का स्थानांतरण हो रहा है, तो आप हिंदू और सिख भी समानता की मांग क्यों नहीं करते. समानता का मतलब-हिंदुओं व मुसलमानों का समान प्रतिनिधित्व. सिवाय ओम सराफ के किसी ने जवाब नहीं दिया. सराफ ने कहा कि हम समानता की मांग कैसे कर सकते हैं. मुसलमानों का भारी बहुमत है और हिंदू एक छोटे अल्पसंख्यक हैं. इस पर मीरचंद ने महाराजा के महल के नीचे के जंगली हिस्से की ओर संकेत किया, जहां कुछ गुर्जरों के शव पड़े थे. उन्होंने कहा कि आबादी भी बदली जा सकती है. मैंने पूछा कि आखिर उनके कहने का क्या अर्थ था?’ जम्मू और कश्मीर विधानसभा में आठ सुरक्षित सीटों के अलावा शरणार्थियों के पास पूरे अधिकार नहीं हैं.
कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की 25वीं वर्षगांठ पर पत्रकार एस अंकलेसरिया अय्यर ने टीओआइ में लिखा- ‘1947 में जम्मू के मुसलमानों के साथ जो हुआ था, उसे भूलना नहीं चाहिए. इस धुंधली वर्षगांठ पर यह कहानी याद की जानी चाहिए.’
पश्चिमी पाक के शरणार्थियों को लेकर खूब रोना-धोना चल रहा है, जबकि उनके बारे में कोई नहीं बोल रहा है, जिन्होंने न केवल 1954 तक, बल्कि 1990 के बाद तक, पाकिस्तान को विस्थापन किया था, जब सीमा के आर-पार की गोलाबारी के सामने उनका बने रहना कठिन हो गया था. 35 हजार से ज्यादा लोग पाक शासित कश्मीर में एक कठिन जीवन जी रहे हैं.
कश्मीरी पंडितों तथा जो लोग पाकिस्तान प्रस्थान के लिए बाध्य थे, दोनों की वापसी के मुद्दों का समाधान समानता के साथ होना चाहिए. इसके अलावा, पश्चिमी पाक शरणार्थियों के मुद्दे में, पहले से ही बंटे राज्य को विघटन के कगार पर ला देने की संभावना को देखते हुए, इसे मतदान तथा राज्य की जनता के अधिकारों के अभिप्राय से अलग हट कर संबोधित करना होगा.
हैरत होती है कि सशस्त्र बलों के विशिष्ट अधिकार कानून (एएफएसपीए) को खत्म करने के मामले में जब संसदीय समिति, जस्टिस जीवन समिति, प्रधानमंत्रियों के सक्रिय समूह आदि की रपटों की अनदेखी कर दी गयी, तब भला ऐसे मामलों में ये कैसे पवित्र हो सकते हैं.
(अनुवाद : कुमार विजय)