उर्मिलेश,वरिष्ठ पत्रकार
किरण बेदी को दिल्ली का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के बाद दिल्ली चुनाव में अगर मोदी का प्रयोग सफल रहा तो ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ के जयगान की गूंजें जल्दी ही बिहार की तरफ कूच करेंगी. अगर केजरीवाल जीते, तो मोदी की चमक भी फीकी पड़ेगी.
वैसे तो दिल्ली को आज तक पूर्ण राज्य का दर्जा भी नहीं मिला है, पर इसकी 70 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव राष्ट्रीय-राजनीति के लिए महत्वपूर्ण बन गये हैं. राष्ट्रीय राजधानी को विधानसभा मिलने के बाद से ऐसा महत्वपूर्ण चुनाव पहले कभी नहीं देखा गया. केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में तीन राज्यों-महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनावों में जीत दर्ज करा कर अपनी सरकार बना ली. इसे आठ महीने पुरानी मोदी सरकार की बड़ी सियासी कामयाबी माना गया.
भाजपा के नेता बड़े गर्व से कहते हैं कि मोदी जी के विजय अभियान को रोकने की क्षमता किसी के पास नहीं है. दिल्ली के बाद अब वे बिहार, बंगाल और फिर उत्तर प्रदेश में अपनी विजय-पताका फहराने के सपने देख रहे हैं. लेकिन, दिल्ली में भाजपा को अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने जिस तरह की गंभीर चुनौती दी है, उसकी कल्पना मोदी और उनकी टीम ने भी नहीं की थी. लोकसभा चुनाव में ‘आप’ को दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली थी.
इसीलिए शुरू में मोदी-शाह की जोड़ी को दिल्ली का चुनाव आसान लग रहा था. महज आठ महीने पहले, जिस कांग्रेस पार्टी के हाथ में पूरे देश की सत्ता थी और जिसने राष्ट्रीय-राजधानी की प्रांतीय सरकार का भी लगातार 15 वर्षो तक नेतृत्व किया, इस चुनावी-मुकाबले से वह लगभग बाहर हो चुकी है. सीधा मुकाबला भाजपा और आप के बीच है.
दिल्ली में कितने कांटे की लड़ाई है, इसका अंदाजा इस बात से लगता है कि चुनावी-जीत के ‘मास्टर’ मोदी-शाह को यहां कुछ अभूतपूर्व फैसले लेने पड़े. अपने राजनीतिक विस्तार के लिए सिने-सितारों, अवकाशप्राप्त सेनाधिकारों और तरह-तरह के जाने-पहचाने चेहरों को पार्टी में शामिल करने में भाजपा आगे रही है.
लेकिन, जनसंघ-भाजपा राजनीतिक धारा के 63 साल के इतिहास में यह पहला मौका है, जब पार्टी को अपने किसी ‘तपे-तपाये नेता’ के बदले बाहर से ‘सक्षम नेतृत्व’ उधार लेना पड़ा. मोदी-शाह की जोड़ी ने देश की पहली महिला आइपीएस (अवकाशप्राप्त) अधिकारी और अन्ना आंदोलन में केजरीवाल के साथ रहीं किरण बेदी को पार्टी में शामिल किया और स्थानीय नेताओं की असहमति-विरोध की परवाह किये बगैर कुछ ही घंटे के अंदर उन्हें मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी भी घोषित कर दिया.
भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में किसी राष्ट्रीय दल ने ऐसा राजनीतिक-प्रयोग कभी नहीं किया! जो पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर और उसके बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को एक के बाद एक लगातार हराती आ रही थी, दिल्ली के सियासी दंगल में इस कदर पिचक क्यों गयी और चुनाव से महज 15 दिन पहले ऐसा कदम क्यों उठाया?
चुनाव कार्यक्रम की घोषणा से ऐन दो दिन पहले 10 जनवरी को प्रधानमंत्री मोदी की रामलीला मैदान रैली की विफलता भाजपा के लिए एक बड़े सदमे की तरह थी. देश भर में अपनी गर्जना से मतदाताओं को मोहित करनेवाले मोदी क्या दिल्ली में अपना ‘जादुई-आकर्षण’ खो बैठे हैं? क्या एकमात्र ‘जिताऊ ताकत’ का उनका खिताब दिल्ली में प्रासंगिक नहीं रह गया है? राजधानी की सियायी सरगर्मी में इस तरह के सवाल लगातार उठने लगे. शायद ऐसे ही सवालों के दबाव में मोदी-शाह ने दिल्ली भाजपा के लिए किरण बेदी को सामने किया.
अगर प्रयोग कामयाब रहा, तो यह उनका दूरगामी राजनीतिक फॉमरूला भी बन सकता है. बहुत संभव है, हताशा में ही सही मोदी दिल्ली में एक नये राजनीतिक-प्रशासनिक फॉमरूले की आजमाइश कर रहे हों! भारत को विकसित और मजबूत राष्ट्र बनाने के लिए मोदी के पास दो मॉडल हैं-अमेरिका और इजरायल. फिर वह इनके राजनीतिक-प्रशासनिक मॉडल की नकल क्यों न करें?
इन दोनों देशों में कॉरपोरेट, सिविल सोसायटी, एकेडेमिक्स, थिंक टैंक, सेना या सिनेमा से किसी चमकदार चेहरे को सामने लाकर सरकार चलाने का फॉमरूला पहले से ही राजकाज की ‘स्मार्ट शैली’ का हिस्सा है. फिर अपने देश में स्मार्ट स्टेशन, स्मार्ट ट्रेन और स्मार्ट-सिटी के प्रकल्पों में जुटे मोदी राजकाज की इस ‘स्मार्ट-शैली’ का प्रयोग क्यों नहीं करते!
जिस तरह आज के समाज में पारंपरिक राजनेताओं की छवि और लोकप्रियता तेजी से घट रही है, उसे देखते हुए मोदी का यह एक नया प्रयोग हो सकता है. पर इस प्रयोग का अभी सिर्फ ‘लोकार्पण’ हुआ है, सफलता-विफलता की कड़ी परीक्षा तो 7 फरवरी को होगी, जिसका परिणाम 10 फरवरी को सामने आयेगा.
दिल्ली में मोदी की मुश्किलें कुछ खास वजहों से हैं. पहली खास वजह है कि यहां भाजपा अपना चुनाव-अभियान गरमाने के लिए कोई ‘पसंदीदा शत्रु’ नहीं खोज सकी. वह किस पर निशाना साधे! दिल्ली में बीते आठ महीने से तो वही सरकार चला रही है. राष्ट्रपति शासन के तहत राज तो केंद्र का ही है.
ऐसे में महंगाई, सुरक्षा तंत्र, खासकर महिलाओं की सुरक्षा के मामले में शासकीय विफलता, पानी-बिजली संकट, स्वास्थ्य समस्या और 1984 के बाद पहली बार राजधानी में बिगड़ते सांप्रदायिक सद्भाव की तोहमत वह किसके माथे मढ़े! दूसरी खास वजह कि दिल्ली में भाजपा को चुनौती एक कार्यकर्ता-आधारित पार्टी दे रही है. केजरीवाल की पार्टी दिल्ली के हर क्षेत्र में साल भर सक्रिय रहनेवाली सियासी ताकत है. बीते दो साल से वह लगातार काम कर रहे हैं.
और तीसरी खास वजह यह कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, श्रम कानून में संशोधन की पहल, छोटे दुकानदारों, रेहड़ी-खोमचे वालों से उगाही आदि पर कोई अंकुश न लगने के नकारात्मक असर से राजधानी का माहौल कम से कम भाजपा-मय नहीं कहा जा सकता. दिल्ली सिर्फ एक शहर नहीं है, इसमें सौ-सवा सौ छोटे-मझोले गांव और देहाती इलाके भी हैं. इनमें अनेक हैं, जहां आज भी खेती-बाड़ी होती है.
इनके खेत दिल्ली के बाहरी इलाकों में हैं. यहां के किसानों को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का भय सता रहा है. इन मुद्दों को केजरीवाल ने बहुत खूबसूरती से जनता के बीच रखा. इससे भाजपा नेतृत्व का आत्मविश्वास डगमगाता नजर आया. सवाल है, क्या किरण बेदी उसके डगमगाते आत्मविश्वास को थाम सकेंगी?
भाजपा के स्थानीय नेता जोर-जोर से कह रहे हैं कि दिल्ली का चुनाव ‘किरण बनाम केजरीवाल’ है, ‘मोदी बनाम केजरीवाल’ नहीं. यह बात एक हद तक सही हो सकती है कि दिल्ली का मौजूदा चुनाव मोदी सरकार की साख पर कोई जनमत-संग्रह नहीं, लेकिन राजधानी के मतदाता किरण-केजरीवाल के प्रति अपनी पसंद-नापसंद के अलावा आठ माह पुरानी केंद्र सरकार के कामकाज पर अपने रुख का भी इजहार करेंगे.
अगर मोदी का प्रयोग सफल रहा तो ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ के जयगान की गूंजें जल्दी ही बिहार की तरफ कूच करेंगी. अगर केजरीवाल जीते, तो मोदी की चमक भी फीकी पड़ेगी.