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नरेंद्र मोदी के लिए संघ का सेफ पैसेज

पुण्य प्रसून वाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार मोहन भागवत ने संघ के तमाम संगठनों को छूट दे रखी है कि वे कुछ भी बोलते रहें. क्योंकि संघ को राजनीतिक तौर पर सक्रिय रखना दिल्ली की जरूरत है और दिल्ली के जरिये संघ को विस्तार मिले,यह संघ कीरणनीतिक जरूरत है. जिन आर्थिक नीतियों को लेकर वाजपेयी सरकार को […]

पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
मोहन भागवत ने संघ के तमाम संगठनों को छूट दे रखी है कि वे कुछ भी बोलते रहें. क्योंकि संघ को राजनीतिक तौर पर सक्रिय रखना दिल्ली की जरूरत है और दिल्ली के जरिये संघ को विस्तार मिले,यह संघ कीरणनीतिक जरूरत है.
जिन आर्थिक नीतियों को लेकर वाजपेयी सरकार को कटघरे में खड़ा किया गया था, उनसे कई कदम आगे मोदी सरकार बढ़ रही है. नीतियां राष्ट्रीय स्तर पर नहीं, राज्य-दर-राज्य के तौर पर लागू होंगी. यानी सरकार और संघ परिवार के विरोधाभास को नियंत्रण करना ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम होगा. तो क्या मोदी सरकार के लिए संघ परिवार खुद को बदल रहा है?
यह सवाल संघ के भीतर ही नहीं, भाजपा के उन कार्यकर्ताओं का भी है, जिन्हें अभी तक लग रहा था कि आगे बढ़ने का नियम सभी के लिए समान होता है. एक तरफ संघ की नीतियां, दूसरी तरफ राजनीतिक जीत और दोनों के बीच खड़े प्रधानमंत्री मोदी. सवाल सिर्फ इतना कि राजनीतिक जीत जहां थमी, वहां भाजपा के भीतर के उबाल को थामेगा कौन? और जहां आर्थिक नीतियों ने संघ के संगठनों का जनाधार खत्म करना शुरू किया, वहां संघ का दर्शन कि ‘रबर को इतना मत खींचो कि वह टूट जाये’, यह समङोगा कौन?
मोदी सरकार को लेकर ये हालात कैसे रौमांच पैदा कर रहे हैं, इसके लिए दिल्ली चुनाव के फैसले का इंतजार कर रहे भाजपा के ही कद्दावर नेताओं को टटोल कर भी समझा जा सकता है और भारतीय मजदूर संघ से लेकर किसान संघ और सांगठनिक तौर पर भाजपा को संभालनेवाले स्वयंसेवकों से बात कर भी समझा जा सकता है, जिनकी एक सांस में संघ, तो दूसरी सांस में भाजपा समायी हुई है. लेकिन जादूई छड़ी मोदी के पास रहेगी या भागवत के पास, यह समझना कम दिलचस्प नहीं है. क्योंकि मोदी को भागवत भी चाहिए और भगवती भी. वहीं भागवत को मोदी भी चाहिए और सामाजिक शुद्धीकरण भी.
मौजूदा वक्त में सरकार के किसी भी मंत्री से ज्यादा तवज्जो उसी के मंत्रलय पर मोदी के बोलने को दिया जाता है. कुछ ऐसी ही परिस्थितियां संघ परिवार के भीतर भी बन चुकी हैं. संघ के मुखिया ही हर दिन देश में कहीं-न-कहीं कुछ कहते हैं, जिन पर सभी की नजर होती है. असर इसी का है कि मोदी की नीतियों को लागू कराने के तरीके संघ के स्वयंसेवकों की तर्ज पर है और सरसंघचालक की टिप्पणियां नीतिगत फैसले के तर्ज पर है.
इसीलिए बीते आठ महीनों को लेकर जो भी बहस सरकार के मद्देनजर हो रही है, उसमें प्रधानमंत्री का हर ऐलान तो शानदार है, लेकिन उसे लागू नौकरशाही को करना है और नौकरशाही स्वयंसेवकों की टीम तो होती नहीं. नौकरशाही में सुधार सिर्फ वक्त पर आने और जाने से हो जायेगा, यह भी संभव नहीं है. ऐसे में जनधन योजना हो या फिर सरकार की कोई भी योजना हो, उसे परखें तो समझ में आयेगा कि नौकरशाही के जरिये सरकार काम कराना चाहती है या नौकरशाही स्वयंसेवक होकर काम करने लगे. जनधन योजना से बैंक कर्मचारी परेशान हैं कि बैंक संभालें या खाते खोलें. ये हालात आनेवाले वक्त में सरकार के लिए घातक हो सकते हैं.
दूसरी तरफ संघ के मुखिया सरकार की तर्ज पर चल पड़े हैं. मसलन, भारतीय मजदूर संघ को इजाजत है कि वह मोदी सरकार की मजदूर विरोधी नीतियों का विरोध करे. क्योंकि सरसंघचालक इस सच को समझते हैं कि देशभर में अगर 60 हजार शाखाएं लगती हैं, तो उनकी सफलता की बड़ी वजह भारतीय मजदूर संघ से जुड़े एक करोड़ कामगार भी हैं.
किसान संघ हो या आदिवासी कल्याण संघ, दोनों की मौजूदगी ग्रामीण भारत में संघ परिवार को विस्तार देती है. और इस तरह 40 से ज्यादा संगठनों का रास्ता केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों पर कई गुना ज्यादा भारी है. लेकिन मुश्किल यह है कि संघ की विचारधारा को विस्तार देने में लगे हैं. और मोदी सरकार की नीतियों का ऐलान संघ के सपनों के भारत की तर्ज पर हो रहा है, जिसमें नौकरशाही फिट बैटती ही नहीं है.
गंगा सफाई के लिए टेक्नोलॉजी और इंजीनियरिंग की टीम चाहिए या श्रद्धा के फूल. जो गंगा माता कह कर गंगा को गंदा न करने पर जोर दें. बिजली खपत कम करने के लिए एलक्ष्डी बल्ब सस्ते में उपलब्ध कराने से काम होगा या सोशल इंडेक्स लागू करने से. दुनिया के किसी भी देश में एलक्ष्डी बल्ब के जरिये बिजली खपत न कम हुई है और न ही एलक्ष्डी बल्ब का फॉमरूला किसी भी विकसित देश में सफल है. भारत सरीखे तीसरी दुनिया के देश में तो असंभव ही है.
प्रधानमंत्री की नियत खराब नहीं है, बल्कि वे देश को स्वयंसेवकों की टोली के जरिये ही देश के बिगड़े हालात पर नियंत्रण करना चाह रहे हैं. लेकिन संघ को मोदी का फॉमरूला रास नहीं आ सकता, क्योंकि समूचा विकास ही उस पूंजी पर टिकाया जा रहा है, जिसके आसरे विकास हो भी सकता है, इसकी कोई ट्रेनिंग स्वयंसेवकों को नहीं है. संघ परिवार जिन क्षेत्रों में काम कर रहा है, वहां पीने का साफ पानी तो दूर, दो जून की रोटी का जुगाड़ तक मुश्किल है.
दिल्ली छोड़ दें या फिर देश के उन सौ शहरों को, जिन्हें स्मार्ट शहर बनाने का सपना प्रधानमंत्री ने पाला है, तो देश में हर तीसरा व्यक्ति गरीबी की रेखा से नीचे है. तो रास्ता किस अंधेरी गली की ओर जा रहा है? यह सवाल महत्वपूर्ण है, क्योंकि संघ अब वाजपेयी सरकार की तर्ज पर मोदी सरकार को परख नहीं रहा. वाजपेयी सरकार के बाद भी कोई राजनीतिक पार्टी या नेता देश में है, यह मोदी सरकार के वक्त में दिख नहीं रहा है.
वाजपेयी सरकार के दौर में रज्जू भैया ने संघ के तमाम संगठनों पर नकेल कसी थी. लेकिन जब आर्थिक नीतियों को लेकर विरोध शुरू हुआ, तो 2004 के चुनाव में संघ राजनीतिक तौर पर निष्क्रिय हो गया.
अरबों खर्च करने के बाद भी शाइनिंग इंडिया अंधेरे में समा गया, क्योंकि देश अंधेरे में था. लेकिन 2015 में यदि हालात को परखें, तो मोहन भागवत ने संघ के तमाम संगठनों को छूट दे रखी है कि वे कुछ भी बोलते रहें. क्योंकि संघ को राजनीतिक तौर पर सक्रिय रखना दिल्ली की जरूरत है और दिल्ली के जरिये संघ को विस्तार मिले, यह संघ की रणनीतिक जरूरत है. मोदी आस बन कर इसलिए चमके, क्योंकि कॉरपोरेट की पूंजी पर संघ की विचारधारा का लेप था. नया संकट यह भी है कि 2004 में जिन राजनीतिक दलों या नेताओं को लेकर आस थी 2015 में उसी आस की कोई साख बच नहीं रही. कांग्रेस हो या वामपंथी या फिर क्षत्रप नये युवा भारत से कोई संपर्क इनका है नहीं, और पुराने भारत से संपर्क कट चुका है.
शायद इसलिए बड़ा सवाल यही है कि यदि भाजपा के चुनावी जीत का सिलसिला थमता है या फिर मोदी सरकार के आईने में संघ परिवार की विचारधारा कुंद पड़ती है, तो मोदी सरकार और संघ परिवार के बीच सेफ पैसेज देने का सिलसिला क्या गुल खिलायेगा? क्योंकि अंदरूनी सच यही है कि सेफ पैसेज की बिसात पर प्यादे बने नेता हों या स्वयंसेवक, इंतजार तो कर ही रहे हैं.

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