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पुनर्परिभाषित हो रहे भारत-अमेरिका संबंध
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तीनदिनी भारत यात्रा के पहले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी भावपूर्ण मुलाकातें भारत-अमेरिका संबंधों में एक नयी गर्मजोशी का साफ संकेत दे रही थीं. मोदी ने कहा भी कि ‘दो देशों के बेहतर रिश्ते समझौतों के कॉमा-फुल स्टॉप से कम निर्धारित होते हैं, नेताओं के आपसी रिश्तों और […]
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तीनदिनी भारत यात्रा के पहले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी भावपूर्ण मुलाकातें भारत-अमेरिका संबंधों में एक नयी गर्मजोशी का साफ संकेत दे रही थीं.
मोदी ने कहा भी कि ‘दो देशों के बेहतर रिश्ते समझौतों के कॉमा-फुल स्टॉप से कम निर्धारित होते हैं, नेताओं के आपसी रिश्तों और नजदीकियों पर ज्यादा निर्भर करते हैं.’ दोनों की आपसी और प्रतिनिधिमंडल स्तर की मुलाकातों में परमाणु करार, रक्षा उत्पादन और सहयोग, संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता और ग्रीन हाउस गैसों जैसे अहम सवालों पर बनी सहमति भी रिश्तों की बेहतरी के संकेत दे रहे हैं.
हालांकि इन बढ़ती नजदीकियों के अर्थ सिर्फ दोनों नेताओं की मित्रता में ही नहीं, दोनों देशों की जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं में भी तलाशे जाने चाहिए. भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. इसकी महत्वाकांक्षा दुनिया की बड़ी आर्थिक ताकत बनने की है. वहीं अमेरिका सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और उसकी जरूरत अपने लिए ऐसा शक्ति-समीकरण तैयार करने की है, जो एशिया-प्रशांत क्षेत्र में उसके सामरिक वर्चस्व को कायम रखे. अमेरिका आर्थिक महाशक्ति के रूप में चीन के उदय के समानांतर अपनी अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा और टिकाऊ बाजार भी खोज रहा है. भारत का सकल घरेलू उत्पादन 2014 के अंत में करीब 2 ट्रिलियन डॉलर का हो चला था.
अमेरिका और चीन से भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार का अंतर बड़ा और स्पष्ट है. अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के नये आकलन में अमेरिकी अर्थव्यवस्था 17.42 ट्रिलियन डॉलर की है, तो चीन की 10.35 ट्रिलियन डॉलर की. जाहिर है, भारत आर्थिक-वृद्धि की रफ्तार कायम रखते हुए अगले पांच वर्षो में चीन की अर्थव्यवस्था को टक्कर देने की स्थिति में पहुंच सकता है.
मोदी सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था की इस संभावना को पहचान कर, ‘मेक इन इंडिया’ के जरिये दुनियाभर के निवेशकों को संदेश देना चाहती है कि वह भारत को ‘मैन्युफैक्चरिंग हब’ के रूप में विकसित करने के लिए हर संभव कोशिश करेगी. मोदी सरकार अपने इसी विजन के कारण यह कहने की स्थिति में आ चुकी है कि उसका इरादा विश्व के बाजार को भारतीय उत्पादों (सेवा और सामान) से पाट देने का है.
भारत की यह महत्वाकांक्षा एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी हितों के अनुकूल है, क्योंकि भारत के रूप में अमेरिका को जहां बड़ा बाजार मिल सकता है, वहीं चीन की व्यापारिक महत्वाकांक्षाओं की काट करनेवाला प्रतिस्पर्धी भी. अब असल सवाल जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं के इस मेल को जमीन पर साकार करने से जुड़ा है. भारत-अमेरिकी संबंधों को एक-दूसरे के हित-संवर्धन के नजरिये से पढ़नेवाले विश्लेषकों के हिसाब से सोचें, तो ओबामा और मोदी की मुलाकात का नतीजा भारत-अमेरिका के बीच व्यापार में इजाफे की मात्र पर निर्भर करेगा.
दोनों नेताओं ने आपसी व्यापार को 100 अरब डॉलर के पार पहुंचाने का इरादा जाहिर किया है. 2013 में दोनों देशों के बीच 93 अरब डॉलर का व्यापार हुआ था. लेकिन, 2000 के बाद से अब तक भारत में अमेरिका की ओर से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सिर्फ 12.7 अरब डॉलर का हुआ है. यह निवेश सिंगापुर, नीदरलैंड और अरब अमीरात जैसे छोटे देशों में हुए अमेरिकी निवेश से भी कम है.
भविष्य में निवेश की गति बहुत कुछ परमाण्विक ऊर्जा, रक्षा मामलों में संयुक्त उद्यम की स्थापना तथा पर्यावरणीय परिवर्तन के मुद्दे पर हुई बातचीत के नतीजे पर निर्भर करेगी. भारत-अमेरिका के बीच हुए एटमी करार से संबंधित निवेशक के दायित्व (दुर्घटना की स्थिति में) का मामला 2008 के बाद से ही सहमति के इंतजार में ठहरा हुआ है. अमेरिका के साथ रक्षा मामलों में सहयोग का एक दशक लंबा समझौता इस साल समाप्त हो रहा है. भारत सालाना 6 अरब डॉलर का अमेरिकी हथियार खरीदता है.
अब भारत की कोशिश अमेरिका से रक्षा-उत्पादों से जुड़ी तकनीक हासिल कर संयुक्त रूप से हथियारों के उत्पादन की होगी. इस साल के अंत में पेरिस में पर्यावरणीय परिवर्तन से संबंधित अंतरराष्ट्रीय बैठक होनेवाली है. चीन और अमेरिका के बीच इस मुद्दे पर सहमति बन चुकी है और अमेरिका चाहता है कि भारत भी अपने कार्बन उत्सर्जन की मात्र सीमित करने को सहमत हो.
मोदी ने साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह कह कर सकारात्मक और सूझबूझ भरे संकेत दिये हैं कि इस मामले में भारत पर किसी देश का नहीं, बल्कि भविष्य का दबाव है कि हम आनेवाली पीढ़ी को कैसे प्रदूषण मुक्त धरती सौंपें. हालांकि वामपंथी दलों ने ओबामा के दौरे को संदेह की नजर से देखा है, लेकिन देखा जाना चाहिए कि आज दुनिया की बड़ी लड़ाइयां युद्ध-क्षेत्र की जगह आर्थिक मैदान में लड़ी जा रही हैं और देशों के बीच दूरी सीमा-रेखाओं से कम, आर्थिक-संबंधों, छूट और प्रतिबंध से कहीं ज्यादा परिभाषित हो रही है.
अब विश्व की बहुध्रुवीयता बहुत कुछ इस बात पर निर्भर है कि एक से ज्यादा आर्थिक गुट बन रहे हैं या नहीं. भारत-अमेरिकी संबंधों में आती नयी गर्मजोशी को ऐसी ही बहुध्रुवीय दुनिया के नजरिये से देखना, गुटनिरपेक्षता के पारंपरिक नजरिये से देखने की जगह आज कहीं ज्यादा प्रासंगिक है.
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