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अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत दौरे पर पढ़िए स्तंभकार एमजे अकबर का विशेष आलेख : भारत को दुनिया से जोड़ रहे ओबामा

एमजे अकबर प्रवक्ता, भाजपा आतंक से युद्ध में भारत अमेरिका का स्वाभाविक साझीदार है. इसका बड़ा कारण सैद्धांतिक भी है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने एक स्पष्टता कायम की है कि वह कहां खड़ा है और भविष्य में कहां पहुंचना चाहता है. ओबामा भारत के नये इरादों की अहमियत को पहचान चुके हैं. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 26, 2015 6:23 AM

एमजे अकबर

प्रवक्ता, भाजपा

आतंक से युद्ध में भारत अमेरिका का स्वाभाविक साझीदार है. इसका बड़ा कारण सैद्धांतिक भी है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने एक स्पष्टता कायम की है कि वह कहां खड़ा है और भविष्य में कहां पहुंचना चाहता है. ओबामा भारत के नये इरादों की अहमियत को पहचान चुके हैं.

भारत और अमेरिका के रिश्ते एक अनुवांशिक दोष के साथ त्रुटिपूर्ण रहे हैं. यह तब से है, जब प्रधानमंत्री नेहरू को अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रमैन ने 1949 में वाशिंगटन बुलाया था. संघर्ष की प्रकृति को लेकर दोनों देशों की अलग राय रही है, युद्ध के बाद भी और उत्तर औपनिवेशिक युग में भी.

शीत युद्ध के दौर में भी सहयोगियों की तलाश के क्रम में भारत जहां आजादी और विभाजन जैसे शब्दों के साथ आगे बढ़ रहा था, वहीं अमेरिका पश्चिमी यूरोप के पुननिर्माण की जिम्मेवारियों से पल्ला झाड़ रहा था.

नेहरू की विदेश नीति साम्राज्यवाद और अपने घरेलू पूंजीवाद के उनके अनुभवों से प्रेरित थी. जाहिर तौर पर अमेरिका भी साम्यवाद को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सामूहिक लोकतंत्र, निजी क्षेत्र और मुक्त व्यापार के मूल्यों के लिए बड़ी चुनौती के रूप में देख रहा था. नेहरू अमेरिका के उभार को लेकर शुरू से सशंकित थे. अमेरिका के पेशेवर मूल्यों और इतिहास को लेकर व्यापक विरोधाभास के चलते नेहरू उसे एक नव-औपनिवेशिक शक्ति के रूप में उभरते देख रहे थे.

यही कारण है कि नेहरू ने तटस्थता को चुना, जो गुट-निरपेक्ष के नाम से जाना जाता है. उन्होंने महसूस किया कि तेजी से बदलती दुनिया में नये राष्ट्रों में किसी संकट की स्थिति में एक लोकतांत्रिक गणराज्य में ही स्वतंत्रता की बेहतर गारंटी हो सकती है. नेहरू का यह विचार अपने समय की मुश्किलों का एक प्रासंगिक उपचार था, लेकिन एक समय के बाद या तो यह उपचार अप्रासंगिक हो गया या वे मुश्किलें खत्म हो गयीं.

सोवियत संघ, और उसके विशाल साम्राज्य, के पतन के साथ गुटनिरपेक्षता के रणनीतिक प्रभाव का आकर्षण खत्म हो गया. तब इस तरह का कोई दूसरा, अधिक स्थायी, समाधान नहीं था.

उस समय अर्थव्यवस्था में कुछ समाजवादी प्रावधानों को जोड़ने को वरीयता दी गयी. साथ ही राज्य का बौद्धिक रूपांतरण करते हुए, अर्थव्यवस्था के प्रशासनिक इंजन को योजना आयोग से जोड़ा गया. इसमें लालफीताशाही और चौंकानेवाले भ्रष्टाचार के साथ देश के निजी क्षेत्र की रचनात्मक क्षमताओं की राह रोक दी गयी, विकास का गला घोट दिया गया.

दुर्भाग्य से देश का व्यापारिक समुदाय लाइसेंस राज के मकरजाल में फंस गया. वैश्विक उत्पादन और बाजार की सवरेत्तम प्रथाओं के साथ उसका संपर्क टूट गया. इससे लोगों को गरीबी के अभिशाप से बाहर निकालने की देश की क्षमता क्षीण हो गयी.

पिछले साल की बरसात में मोदी और ओबामा की पहली मुलाकात के बाद से भारत और अमेरिका के रिश्तों में नाटकीय उछाल आया है. इसमें व्यक्तित्व की भूमिका महत्वपूर्ण है. ओबामा ने मोदी में विजन और प्रशासनिक क्षमता के संयोजन की खुले तौर पर प्रशंसा की है.

संभवत: इसमें मोदी के संबंध में अमेरिका के पिछले गलत फैसलों का खेद भी शामिल था, पर वह ओबामा की गलती नहीं थी, वे तो अपनी संस्थाओं के संदेशों पर भरोसा कर रहे थे. दोनों नेताओं ने अपने विवेक और परिपक्वता से अतीत को किनारे कर दिया और संभावनाओं के क्षितिज की तलाश कर ली. ये संभावनाएं जमीनी हकीकत पर आधारित हैं.

भारत और अमेरिका ऐसे मोड़ पर खड़े हैं, जहां से वे, दो कारणों के चलते, लंबे समय तक एक साथ सफर कर सकते हैं. पहला, रिश्तों के दो छोड़ पर खड़े दोनों देश एक ही राग अलाप रहे हैं- सुरक्षा और समृद्धि. दुनिया में संघर्ष की प्रकृति अब बदल गयी है. शीत युद्ध, जिसने दोनों देशों में दूरियां पैदा की थी, ने पिछली एक सदी में चौथे बड़े युद्ध की नींव रखी- आतंक से युद्ध. भू-राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अमेरिका ने शीत युद्ध के दौरान पाकिस्तान को अपना प्राथमिक सहयोगी बनाया. लेकिन, अब आतंक से युद्ध के दौर में, अमेरिका को अहसास होने लगा है कि पाकिस्तान की भूमिका सबसे संदिग्ध और आतंकियों के पनाहगाह के रूप में है.

पाकिस्तान, अपने जन्मसिद्धांत के रूप में धर्मतंत्र को स्वीकार कर, उन इसलामी योद्धाओं के लिए अभयारण्य और आपूर्ति केंद्र बन गया, जिन्होंने अपने हिंसक युद्ध की सीमाओं का विस्तार वाघा बॉर्डर से लेकर अफ्रीका के अटलांटिक तट तक कर लिया है.

आतंक से युद्ध में भारत अमेरिका का स्वाभाविक साझीदार है. इसका बड़ा कारण सैद्धांतिक भी है. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने एक स्पष्टता कायम की है कि वह कहां खड़ा है और भविष्य में कहां पहुंचना चाहता है. भारत की सबसे बड़ी चुनौती, जो प्रधानमंत्री के जोश के साथ अभिव्यक्त हो रही है, यह है कि कैसे गरीबी के चरम से पार पाया जाये और विकास का लाभ सीधे गरीबों तक पहुंचाया जाये. साथ ही, वे देश की समृद्धि के संसाधनों का निर्माण देश में ही करना चाहते हैं.

ओबामा भारत के नये इरादों की अहमियत को पहचान चुके हैं. इसलिए वे अपने व्यक्तिगत विश्वास और पद के प्रभाव की शक्ति के जरिये भारत को दुनिया के साथ जोड़ना और अग्रणी देशों में शामिल देखना चाहते हैं.

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