।। पुष्परंजन ।।
(नयी दिल्ली संपादक, ईयू–एशिया न्यूज)
– भुट्टो–जरदारी परिवार की परिधि में घूमती पीपीपी की राजनीति का 11 मई के आम चुनाव में जो हश्र हुआ, उससे पूरे दक्षिण एशिया के परिवारपरस्त राजनेताओं को सबक लेने की जरूरत है. –
इससे पहले सैयद ममनून हुसैन को पाकिस्तान से बाहर शायद ही लोग जानते थे. दक्षिण एशिया के किसी राजनीतिक–सामाजिक शोबे में सैयद ममनून हुसैन की चर्चा कभी नहीं सुनी गयी थी. आगरा में 1940 में पैदा हुए कराची के टेक्सटाइल कारोबारी सैयद हुसैन पाक राजनीति में एक घूमकेतु की तरह अवतरित हुए हैं.
1999 से पहले बहुत थोड़े समय के लिए हुसैन साहब सिंध के 27वें गवर्नर हुए थे, लेकिन तख्तापलट के बाद उनकी गवर्नरी भी चली गयी थी. इतना जरूर था कि सैयद हुसैन पाकिस्तान मुसलिम लीग ‘एन’ के वरिष्ठ नेता के रूप में जाने जाते थे, क्योंकि वे नवाज शरीफ के खास रहे हैं. लेकिन वे देश के राष्ट्रपति बन पायेंगे, इस नुक्ते–नजर से उन्हें कभी नहीं देखा गया था.
सैयद हुसैन को ईद से पहले राष्ट्रपति बनने की खुशी हासिल हो, इसका इंतजाम पाकिस्तान मुसलिम लीग ‘एन’ के आलाकमान ने कर रखा था. इससे पहले पाकिस्तानी चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति चुनाव की तारीख 6 अगस्त तय की थी. लेकिन सत्तारूढ़ पाकिस्तान मुसलिम लीग ‘एन’ ने तर्क दिया कि रमजान के अंतिम दिनों में सांसद मक्का–मदीना जाने की तैयारी में होते हैं, इसलिए उससे एक हफ्ते पहले 30 जुलाई को मतदान हो जाये.
इस पर चुनाव आयोग की सहमति को जरदारी की पार्टी पीपीपी ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी. लेकिन पाक सुप्रीम कोर्ट ने भी समय से पहले चुनाव करा लेने के फैसले को सही ठहराया. पीपीपी की शिकायत की है कि सुप्रीम कोर्ट ने हमारी बात ठीक से नहीं सुनी, न ही प्रांतीय असेंबलियों में प्रचार का हमें समय मिल रहा है, इसलिए हम राष्ट्रपति चुनाव का बहिष्कार करते हैं.
बीते सोमवार को पाकिस्तान की संसद ‘नेशनल असेंबली’ का तापमान इस सवाल पर चढ़ा हुआ था. सदन में विपक्षी पीपीपी के नेता सैयद खुर्शीद अहमद शाह मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयोग के चारों सदस्यों के इस्तीफे की मांग कर रहे थे. पीपीपी नेता खुर्शीद अहमद शाह ने कहा कि नवाज सरकार, कोर्ट और चुनाव आयोग का ‘नैक्सस’ इस देश में काम कर रहा है.
11 मई का चुनाव ‘आर ओ’ ( रिटर्निग आफिसर्स) के दम पर जीता गया और 30 जुलाई का चुनाव ‘चीफ आर ओ’ (मुख्य चुनाव अधिकारी) के माध्यम से जीता जा रहा है. पीपीपी अदालत और सरकार के खिलाफ हमलावर रुख अपना कर ऐसी पृष्ठभूमि तैयार कर रही है, ताकि आनेवाले दिनों में जब आसिफ अली जरदारी पर कानूनी शिकंजे कसे जायें, तब उसे यह कहने का मौका मिले कि यह सबकुछ राजनीतिक बदले की भावना से हो रहा है.
इस चुनाव में सत्तारूढ़ पाकिस्तान मुसलिम लीग–एन के समर्थन में आठ पार्टियां हैं. पीएमएल–एन के संसद के निचले सदन ‘नेशनल असेंबली’ में 184 वोट हैं. इसके अलावा सीनेट में 15, चार विधानसभाओं में से पंजाब में 50, खैबर पख्तूनवाला में आठ, सिंध में दो और बलूचिस्तान में 17 वोट हैं. इस तरह नवाज शरीफ की पार्टी ने 276 वोट के दम पर राष्ट्रपति चुनाव में फतह हासिल कर ली है.
राष्ट्रपति चुनाव में पाकिस्तान तहरीक–ए–इंसाफ के प्रत्याशी अवकाश प्राप्त न्यायाधीश वजीहुद्दीन अहमद को पहले से ही पता था कि उनकी पार्टी कुछ बेहतर नहीं कर पायेगी. इस राष्ट्रपति चुनाव का एक दिलचस्प पहलू नवाज शरीफ की पार्टी को मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट (एमक्यूएम) का समर्थन है. एमक्यूएम के बारे में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने लंदन में हुई एक सर्वदलीय बैठक में कह दिया था कि यह आतंकवादियों की पार्टी है. लंदन प्रवास के समय दिये मियां नवाज शरीफ के इस बयान को भी विपक्ष ब्रrास्त्र की तरह इस्तेमाल कर रहा है.
नये राष्ट्रपति के शपथग्रहण के बाद राष्ट्रीय सामंजस्य अध्यादेश (एनआरओ) एक बार फिर पाक राजनीति का टाइमबम साबित होगा. 5 अक्तूबर, 2007 को तत्कालीन पाक राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने एनआरओ लाकर 8 हजार 41 नेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों को बचाने की कवायद की थी, जो भ्रष्टाचार, हवाला कारोबार, हत्या, तस्करी और आतंकवाद जैसे गंभीर आरोपों में फंसे हुए थे.
इन भ्रष्टाचारियों में स्विस और दुनिया के दूसरे बैंकों में कालाधन रखनेवाले आसिफ अली जरदारी, बेनजीर भुट्टो (तब बेगम साहिबा जीवित थीं), युसूफ रजा गिलानी, रहमान मलिक, अल्ताफ हुसैन, फजलुर्रहमान से लेकर डिप्लोमेट हुसैन हक्कानी जैसी बड़ी मछलियां शामिल थीं. एनआरओ का मामला पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और अदालत के बीच उलझा हुआ था और उसके छींटे से राष्ट्रपति जरदारी बचते चले जा रहे थे. राष्ट्रपति जरदारी सुरक्षित रहें, इसके लिए काले बकरे की बलि चढ़ायी जाती रही. अब बकरे की बलि काम नहीं आती दिख रही है.
जरदारी को 8 सितंबर, 2013 तक राष्ट्रपति पद पर बने रहने का संवैधानिक अधिकार मिला हुआ है. क्या जरदारी 30 जुलाई, 2013 को हुए राष्ट्रपति चुनाव के एक माह नौ दिन बाद तक ‘ऐवान–ए–सद्र’ (राष्ट्रपति भवन) में जमे रहेंगे? 1990 में बने पाकिस्तान के इस राष्ट्रपति भवन का किस्सा भी अजीब है.
आज पीपीपी के जो नेता समय पूर्व राष्ट्रपति चुनाव कराने का विरोध कर रहे हैं, उन्हें याद दिलाने की जरूरत है कि ‘ऐवान–ए–सद्र’ के उद्घाटन से एक दिन पहले ही राष्ट्रपति जरदारी इस भवन में प्रवेश कर गये थे. लोग जरदारी की जल्दबाजी पर दंग थे. शायद ज्योतिष और टोटकों में विश्वास करनेवाले, और शिया मत को माननेवाले जरदारी को इसकी जरूरत थी. इसके ठीक उलट, जनरल परवेज मुशर्रफ राष्ट्रपति बनने के बाद एक दिन के लिए भी ‘ऐवान–ए–सद्र’ में नहीं ठहरे.
बजाय इसके, मुशर्रफ ने रावलपिंडी स्थित आर्मी हाउस को ‘राष्ट्रपति निवास’ बनाना मुनासिब समझा. लेकिन बात चाहे, एक दिन पहले राष्ट्रपति भवन में प्रवेश करने की हो, या फिर हफ्ताभर पहले राष्ट्रपति चुनाव कराने की, तेज रफ्तार घोड़े की सवारी करते दोनों ही दिखे हैं.
आसिफ अली जरदारी देश के पहले ऐसे चुने हुए राष्ट्रपति होंगे जो अपना कार्यकाल पूरा कर एक दूसरे चुने हुए राष्ट्रपति को सत्ता सौंपेंगे. नये चुने गये राष्ट्रपति की बात तो अब होती रहेगी. पर सबसे जरूरी बात जा रहे राष्ट्रपति जरदारी की है, कि उनका क्या होगा. जरदारी की पूरी राजनीति ताश के पत्ते की तरह बिखर गयी है. भुट्टो–जरदारी परिवार की परिधि में घूमती पीपीपी की राजनीति का 11 मई के आम चुनाव में जो हश्र हुआ, उससे पूरे दक्षिण एशिया के परिवारपरस्त राजनेताओं को सबक लेने की जरूरत है.
आसिफ अली जरदारी की इस कुनबापरस्त राजनीति की क्या उनकी पार्टी आनेवाले दिनों में समीक्षा करेगी? जरदारी की बेटियां या उनके पुत्र बिलावल भुट्टो क्या कभी राजनीति की कमान संभाल पायेंगे, या फिर उनके बदले दूसरी पांत के नेताओं को पीपीपी का नेतृत्व संभालने का अवसर मिलेगा? जरदारी राष्ट्रपति भवन से बाहर होने के बाद पाकिस्तान में रहेंगे, या निर्वासन में जाएंगे? ऐसे सवालों के उत्तर की अभी प्रतीक्षा करनी होगी!