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गांधी के देश में हिंसा को मान्यता!

एक ओर दुनिया गांधी के निर्वाण के 67 साल बाद भी उनके विचारों और आदर्शो से प्रेरणा ले रही है, भारत सरकार भी गांधी के आदर्शो पर चलने की बात करती है, दूसरी ओर कुछ संगठनों की ओर से उनकी हत्या करनेवाले नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाने और उन्हें एक महापुरुष के रूप में स्थापित […]

एक ओर दुनिया गांधी के निर्वाण के 67 साल बाद भी उनके विचारों और आदर्शो से प्रेरणा ले रही है, भारत सरकार भी गांधी के आदर्शो पर चलने की बात करती है, दूसरी ओर कुछ संगठनों की ओर से उनकी हत्या करनेवाले नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाने और उन्हें एक महापुरुष के रूप में स्थापित करने की बात भी जोर-शोर से की जा रही है. देश के इस हालात के संदर्भ में वरिष्ठ गांधीवादी चिंतक राजीव वोरा से विस्तार से बातचीत की वसीम अकरम ने.

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के निर्वाण के 67 साल बाद उनके विचारों की प्रासंगिकता को आप कैसे देखते हैं?

महात्मा गांधी को सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में आज भी बेहद प्रामाणिकता के साथ स्मरण किया जाता है. यह स्मरण सिर्फ उनकी पुण्यतिथि या जयंती तक सीमित नहीं है, बल्कि तमाम वैचारिक अवधारणाओं में गांधीजी के विचार शामिल हो रहे हैं. यह हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है कि उनके वैचारिक मूल्यों को सार्वभौमिक मान्यता मिल रही है. आज आप दुनिया के किसी भी धार्मिक, समाजवादी या राजनीतिक नेता के इतिहास पर नजर डालें, तो आप यही पायेंगे कि उस महान व्यक्ति को चाहनेवाले लोगों की एक सीमा है. लेकिन, महात्मा गांधी को चाहनेवालों की कोई सीमा नहीं है, वे हर धर्म, हर समाज और राजनीतिक परंपरा के लोग हैं और किसी देशकाल से परे सार्वभौम रूप से गांधीजी को प्रेरणा का एक महान स्नेत मानते हैं. जब संयुक्त राष्ट्र ने गांधीजी की जयंती को पूरी दुनिया में मनाने के लिए दो अक्तूबर को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में घोषित किया, तो उसमें सभी देशों के साथ चीन ने भी हस्ताक्षर किया. हालांकि, गांधी का अपना देश ही अब उनके विचारों से उल्टी दिशा में जाता प्रतीत हो रहा है.

देश में कुछ संगठन नाथूराम गोडसे का मंदिर बनवाने पर तुले हुए हैं. इस पर गांधीजी की आत्मा क्या सोच रही होगी?

यह बेहद शर्म की बात है कि इस समय देश में गांधी के हत्यारे गोडसे का मंदिर बनाने की बात की जा रही है. लेकिन, इससे भी ज्यादा दुखद है कि गांधी के विचारों की दुहाई देनेवाले लोग उन्हें रोक नहीं पा रहे हैं. प्रश्न यह नहीं है कि ऐसी बातों से गांधीजी की आत्मा को कैसा लग रहा होगा, बल्कि प्रश्न यह होना चाहिए कि ‘हमें’ यह कैसा लग रहा है? वर्तमान भारत में जो कुछ भी हो रहा है, उससे गांधीजी और उनकी आत्मा को कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है, क्योंकि उन्हें जो करना था, वे करके चले गये. फर्क तो हमें पड़ना चाहिए कि एक तरफ हम उनके मूल्यवान विचारों को प्रासंगिक मान रहे हैं, देश की जरूरत मान रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ, उन विचारों की हत्या होते हुए भी देख रहे हैं. इसलिए सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि हमारी आत्माओं को कैसा लग रहा है यह सुन कर कि अब इस देश में सत्य और अहिंसा की प्रतिमूर्ति के हत्यारे की पूजा करनेवाले लोग भी खड़े हो गये हैं. इससे भी बड़ी शर्म की बात यह है कि ऐसे लोगों का हाथ पकड़ कर नीचे बिठानेवाला कोई नहीं है. यहां प्रश्न यह है कि ऐसे लोगों का हाथ पकड़ कर नीचे बिठाने की पहली जिम्मेवारी किसकी है? यदि मेरे घर का, मेरे गांव का, मेरी जाति-बिरादरी का, मेरे धर्म का, मेरी वैचारिक परंपरा का कोई व्यक्ति किसी की हत्या जैसा घृणित काम करेगा, तो उसे रोकने की पहली जिम्मेवारी तो मेरी ही बनती है, क्योंकि मैं मुखिया हूं. इसे यदि देश-स्तर पर लागू किया जाये, पहली और अंतिम जिम्मेवारी देश के प्रधान सेवक की बनती है.

गोडसे का मंदिर बनाने की बात जो लोग कर रहे हैं, ये जिस कुल-खानदान और जिस वैचारिक परंपरा के हैं, उन्हें रोकने की पहली जिम्मेवारी उनकी बनती है. यह कोई मामूली बात नहीं है कि कोई एक हत्यारे की पूजा करने की बात कहे और देश का प्रधानमंत्री चुप रहे. यह एक लोकतांत्रिक देश के लिए बहुत बड़ी बात है और इस पर सार्थक पहल की सख्त जरूरत है. वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में ‘घर वापसी’ जैसी घटनाओं पर प्रधानमंत्री चुप रहे, तो यह अलग बात है, लेकिन गोडसे का मंदिर बनाने के मुद्दे की तुलना में सारे मुद्दे छोटे पड़ जाते हैं, क्योंकि इसका संदेश यह जाता है कि सत्य और अहिंसा की हत्या करनेवाले की पूजा की जानी चाहिए. इस पर प्रधानमंत्री की चुप्पी देश को बहुत ही नकारात्मक संदेश दे रही है. अब भी देर नहीं हुई है, प्रधानमंत्री को चाहिए कि अपनी चुप्पी तोड़ें और ऐसे लोगों का हाथ पकड़ कर नीचे बिठाने की अपनी पहली और अंतिम जिम्मेवारी को पूरा करें.

ऐसी बातों को रोकने की जिम्मेवारी सिर्फ प्रधानमंत्री की है?

गांधीजी का बचाव करने की किसी को कोई जरूरत नहीं है. महात्मा गांधी तो अपने विरोधियों का भी सम्मान करते थे, इसलिए वे कभी खुद का बचाव नहीं चाहते थे और न ही उनको इसकी कभी जरूरत है. यह तो हमारा समाज है, जो उनके विचारों का, आदर्शो का बचाव करना चाहता है. आज जिनके हाथ में सत्ता है, उन्हें ऐसी बातों को रोकने की जिम्मेवारी उठानी चाहिए, लेकिन वे इस पर खामोश हैं. जब कोई गलत काम होता है, तो उसमें शामिल पहला वह व्यक्ति होता है, जो ऐसा करने का विचार देता है, दूसरा वह जो उस विचार से काम करता है और तीसरा वह होता है, जो इस चीज को जानते हुए भी कोई विरोध नहीं करता, गलत काम को होते हुए चुपचाप देखता है. ये तीनों ही गलत हैं.

जिस व्यक्ति की मान्यता देश की, जाति की, धर्मो की दीवारों को लांघ कर है, जिसको दुनिया के बड़े-से-बड़े लोग अपना आदर्श मान रहे हैं, उस व्यक्ति की हत्या करनेवाले को जो लोग आदर्श और पूज्य मानते हैं, वैसे लोग जिस विचारधारा से निकले हैं, उस विचाराधारा में भी कुछ लोग उनका समर्थन नहीं करते हैं. तो उनकी तो जिम्मेवारी बनती है कि वे इन्हें रोकें. गोडसे सावरकर के शिष्य थे. आज संघ परिवार हो या भाजपा के लोग हों, उन्होंने सावरकर को अपना मानने से इनकार तो नहीं किया है, इसलिए उनकी पहली जिम्मेवारी है कि वे ऐसे कृत्यों को होने से रोकें.

भारतीय संविधान से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द हटाने की मांग को आप कैसे देखते हैं?

जहां तक संविधान से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ को हटाने का प्रश्न है, यह बहस का दूसरा मुद्दा है. यह एक दूसरे स्तर की बौद्धिक-राजनीतिक बहस का विषय है, क्योंकि इसमें एक राजनीतिक विचारधारा को मान्यता देने की बात हो रही है. हो सकता है कि इस मुद्दे पर भी प्रधान सेवक की चुप्पी ही सामने आये, लेकिन यह सिर्फ एक राजनीतिक बहस है. जबकि, गांधी के इस महान देश में गोडसे का मंदिर बनाने की बात करनेवाला मुद्दा पुण्य और पाप के बीच चयन का मुद्दा है. पुण्य को दरकिनार कर घोर पाप को मान्यता देने का मुद्दा है. हत्या जैसे पाप को मान्यता देकर यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि सत्य और अहिंसा की अब कोई अहमियत ही नहीं है. यह एक खतरनाक संदेश है और मैं समझता हूं कि यह खामोशी भरी हिंसा आइएसआइएस की हिंसा से भी बहुत खराब हिंसा है. आपने तो राम के इतने बड़े भक्त को मारा, तो आप तो रावण से भी गये-गुजरे निकले. आपने उस धार्मिक व्यक्ति की हत्या की, जो मरते वक्त भी ‘हे राम’ कह कर दुनिया को धर्म का असली संदेश दे गया. गांधीजी जैसे संपूर्ण सत्य के अवतार के हत्यारे के पाप को मान्यता देना, उसकी मूर्ति स्थापित करना, सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर हिंसा के विचार की एक नयी परंपरा कायम करना, मैं समझता हूं कि इससे घृणित कार्य कोई दूसरा नहीं हो सकता. इसलिए प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे इसे रोकें, क्योंकि यह गांधीजी को बचाने का सवाल नहीं है, बल्कि देश का सवाल है कि आप देश को क्या बनाना चाहते हैं. चुप होकर कहीं आप सांप्रदायिक-राष्ट्रवाद को मान्यता तो नहीं दे रहे हैं?

राजीव वोरा

गांधीवादी विचारक

rajiv.swarajpeeth@gmail.com

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