सियासी हित में लिया गया फैसला!

* तेलंगाना पर मुहर पृथक तेलंगाना राज्य की मांग दशकों पुरानी है. 1956 में आंध्र प्रदेश का गठन देश के पहले भाषायी राज्य के तौर पर किया गया था. आज आंध्र प्रदेश के जिन दस जिलों को काट कर अलग तेलंगाना राज्य बनाने की तैयारी हो रही है, वे 1956 से पहले हैदराबाद स्टेट के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 1, 2013 4:17 AM

* तेलंगाना पर मुहर

पृथक तेलंगाना राज्य की मांग दशकों पुरानी है. 1956 में आंध्र प्रदेश का गठन देश के पहले भाषायी राज्य के तौर पर किया गया था. आज आंध्र प्रदेश के जिन दस जिलों को काट कर अलग तेलंगाना राज्य बनाने की तैयारी हो रही है, वे 1956 से पहले हैदराबाद स्टेट के अंग थे.

आंध्र में मिलाये जाने को लेकर तेलंगाना कभी सहज नहीं रहा. इस असहज रिश्ते का प्रमाण यह तथ्य है कि 1956 में संयुक्त आंध्र प्रदेश के निर्माण के समय आंध्र और तेलंगाना के नेताओं के बीच बाकायदा इस बाबत एक समझौता हुआ था कि मंत्रिमंडल में तेलंगाना के नेताओं को एक निश्चित हिस्सा दिया जायेगा. साथ ही हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय समेत राज्य के प्रमुख शिक्षण संस्थाओं में तेलंगाना के छात्रों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जायेगी. लेकिन, आंध्र प्रदेश के भीतर तेलंगाना खुद को लगातार उपेक्षित महसूस करता रहा.

इस भावना ने ही 1969 में अलग तेलंगाना राज्य के लिए एक उग्र आंदोलन को जन्म दिया था. आंदोलन का यह ज्वार भले ज्यादा दिनों तक कायम रहा हो, पर इसमें तेलंगाना की मांग की ऐतिहासिकता खोजी जा सकती है. तेलंगाना पर किये गये फैसले में इस इतिहास से ज्यादा भविष्य की सियासी चिंता नजर आती है. माना जा रहा है कि कांग्रेस ने यह कदम आंध्र प्रदेश में सीटों के संभावित नुकसान को कम करने की मंशा से उठाया है, क्योंकि वहां जगन रेड्डी का प्रभाव तेजी से बढ़ा है.

दशकों पुरानी और बेहद जटिल समस्या के समाधान का आधार व्यापक सहमति, ठोस तर्क और सबसे बढ़ कर व्यवहारिकता ही हो सकती है. जनता के सड़क पर उतरने और राजनीतिक हितों के आधार पर फैसले लेने के नतीजे खतरनाक हो सकते हैं. इस फैसले के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में अनेक राज्यों के निर्माण की मांग जोर पकड़ सकती है.

सवाल है कि आखिर नये राज्यों का गठन का आधार क्या हो? यह तर्क कि छोटे राज्यों का प्रशासन आसान होता है और उनका विकास तेज होता है, अनुभव की कसौटी पर पूरी तरह खरा नजर नहीं आता. झारखंड की बदहाली और हाल में उत्तराखंड में आयी तबाही, ऐसे तर्को की पोल खुद खोल देती हैं. भारत जैसे विशाल देश में केंद्र से बाहर की ओर छिटकने की प्रवृत्ति हमेशा बनी रहती है.

एक राष्ट्र का कर्तव्य होता है कि वह व्यापक सामाजिकआर्थिक विकास के जरिये ऐसी प्रवृत्तियों को पनपने से रोके. यहां चिंता की बात यह भी है कि तेलंगाना पर फैसला भविष्य का पुख्ता रोडमैप तैयार किये बगैर लिया गया है, जो आनेवाले समय में विवादों और राज्यराज्य संघर्ष को जन्म दे सकता है.

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