* खास पत्र
।। गोपाल राम ।।
(विशुनपुर, गढ़वा)
विगत 10 जुलाई को अखबारों में एक खबर छपी दिखी, जो मुंबई हाइकोर्ट के गैर–सरकारी सहायता प्राप्त निजी स्कूलों की फीस नियंत्रित करने संबंधी स्तब्धकारी निर्णय के बारे में थी. इस आदेश के अनुसार, सरकार सिर्फ इस आधार पर कि उक्त संस्था को कोई सरकारी सहायता या अनुदान प्राप्त नहीं होता है, उस संस्था की फीस संरचना को नियंत्रित नहीं कर सकती है.
यदि यह आदेश लागू कर दिया जाये, तो निजी शिक्षण संस्थान (स्कूल और कॉलेज दोनों) निरंकुश हो जायेंगे. पिछले कुछ सालों में केंद्रीय मानव संसाधन विभाग ने ऐसे सभी संस्थानों के लिए अपनी निर्धारित क्षमता की 25 प्रतिशत सीटों पर समाज के मेधावी, किंतु निर्धन विद्यार्थियों के नामांकन का निर्देश जारी किया था. इसी निर्णय के आलोक में महाराष्ट्र सरकार ने मडगांव के एक निजी स्कूल को एक समूह विशेष के छात्रों की फीस वापस करने का आदेश दिया था. प्रभावित स्कूल द्वारा इसके विरुद्ध दायर याचिका के फलस्वरूप मुंबई हाइकोर्ट ने यह निर्णय सुनाया है.
दरअसल, आज देशभर के सरकारी स्कूलों में शिक्षा का गिरता स्तर किसी से छिपा नहीं है. इसी का लाभ उठाते हुए निजी स्कूल के प्रबंधकों ने एक संगठित समूह का गठन कर आम जनता की गाढ़ी कमाई लूटने का काम किया है, जो आज देश के कोने–कोने में बदस्तूर जारी है. आज स्थिति यह है कि सरकार की गलत और भ्रामक नीतियों के कारण क्या गांव और क्या शहर, हर जगह निजी स्कूलों की बाढ़ आ गयी है. जिन पर किसी तरह का कोई नियंत्रण नहीं है.
जरूरत है सरकार द्वारा ऐसी नीतियां अपनाने की, जिससे इन बेलगाम संस्थानों को समाज के प्रति जिम्मेदारी का बोध हो. अदालत को भी कोई फैसला करते समय जनहित का ध्यान रखना चाहिए.