बिहार के सरकारी मेडिकल कॉलेज व अस्पतालों में दवाओं का स्टाक खाली होने की स्थिति में पहुंच गया है. दवाओं की खरीद करने वाली कमेटी खरीद करने से कतरा रही है. इस कमेटी को घोटाले का भूत सता रहा है. पिछले साल ही दवा खरीद के नाम पर करीब 30 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ था.
इस घोटाले में एक दर्जन से अधिक अफसर नप गये हैं. इसके बाद से ही एडहॉक बेसिस पर अस्पताल अपने स्तर से दवाएं खरीद कर काम चला रहे हैं. यह बहुत ही अजीब स्थित है. घोटाले के भूत ने दवा खरीद कमेटी को पॉलिसी पैरेलेसिस की स्थिति में ला दिया है. कमेटी के लोगों को इस बात का ध्यान नहीं है कि इससे गरीबों का बहुत बड़ा नुकसान होगा. सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए पहुंचने वाला 99 प्रतिशत मरीज गरीब होता है.
वह बहुत ही मजबूरी में पहुंचता है. ऐसे में वहां अगर दवा ही नहीं हो, तो वह स्थिति का शिकार बनता है. दरअसल दवा खरीद से लेकर तमाम तरह की सरकारी खरीद की जो प्रक्रिया है, उसे हमारी नौकरशाही ने जटिल बना दिया. प्रक्रिया को पारदर्शी रखने की शर्त को नजरअंदाज करने के लिए बड़े बाबू अपनी पूरी क्षमता लगा देते हैं. दरअसल जानबूझ कर इस तरह के रास्ते निकाल लिये जाते हैं, जिससे घोटाला करने की सुविधा बनी रहे.
अब जो ईमानदार अधिकारी है, उसे भी इसका डर रहता है कि कहीं कोई घोटाला नहीं हो जाये. इस डर के कारण वे इस तरह की खरीद या फैसलों में शामिल ही नहीं होना चाहते. दवा खरीद के मामले में यही हो रहा है. टेंडर की प्रक्रिया चल रही है लेकिन दवा खरीद कमेटी के सदस्य इसकी बैठकों में शामिल नहीं होते. फिलहाल जो स्टाक है, उससे काम तो चल रहा है लेकिन आनेवाले दिनों में परेशानी होनी तय है. सरकार को दवा ही नहीं हर तरह की खरीद के लिए बहुत ही सुस्पष्ट नियमावली तैयार करनी चाहिए. कहने को तो नियमावली अभी भी है.
यह नियमावली जटिल है. साथ ही नियमावली में परदेदारी बहुत है. इस परदेदारी का इस्तेमाल घूसखोर अधिकारी व माफिया तत्व करते हैं. ऐसे तत्वों पर लगाम लगाने की जरूरत है. सरकार व बड़े बाबू चाहें, तो यह काम चुटकियों में हो सकता है. गरीब को समुचित इलाज और दवा मिले, इसकी व्यवस्था तुरंत होनी चाहिए.