दिल्ली चुनाव में टूटती मर्यादाएं

लोकतंत्र को शेष राज्य-व्यवस्थाओं से इसलिए भी श्रेष्ठ कहा जाता है, क्योंकि इसमें सत्ता-परिवर्तन रक्तपात के बिना, मतदान के जरिये संपन्न होता है. भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में चुनाव नयी-पुरानी स्मृतियों की दावेदारी का समय भी होता है. यह दावेदारी चुनाव को युद्ध के एक रूपक में बदल देती हैं. जब हम कहते […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 3, 2015 5:52 AM
लोकतंत्र को शेष राज्य-व्यवस्थाओं से इसलिए भी श्रेष्ठ कहा जाता है, क्योंकि इसमें सत्ता-परिवर्तन रक्तपात के बिना, मतदान के जरिये संपन्न होता है. भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में चुनाव नयी-पुरानी स्मृतियों की दावेदारी का समय भी होता है. यह दावेदारी चुनाव को युद्ध के एक रूपक में बदल देती हैं. जब हम कहते हैं कि कोई चुनाव ‘कुर्सी के लिए महासंग्राम’ है, तो मान लेते हैं कि संग्राम में सब जायज है.
तभी तो चुनाव के दौरान मर्यादाओं को तोड़ने और टूटते देखने के लिए तैयार रहते हैं. दिल्ली विधानसभा चुनाव में यही हो रहा है. उम्मीद थी कि मीडिया सघन दिल्ली में चुनाव गंभीर बहस का गवाह बनेगा, लेकिन चुनावी बहसें मुद्दों और घोषणापत्रों से भटक कर व्यक्तित्व के विभंजन की तरफ मुड़ गयी हैं और इसकी ज्यादातर कोशिशें प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ रही भाजपा की तरफ से हो रही हैं. इन कोशिशों ने चुनावी बहस पर ताने-उलाहने का रंग चढ़ाते हुए उसे निजी वैर निकालने का माध्यम बना दिया है. भाजपा ने काटरून छाप कर पहले बताया कि केजरीवाल झूठे हैं, क्योंकि उन्होंने कांग्रेस से समर्थन न लेने की कसम खायी थी, फिर कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली.
दूसरे काटरून में कहा गया है कि केजरीवाल ‘उपद्रवी गोत्र’ के हैं, क्योंकि उन्होंने पिछले साल कहा था कि जनलोकपाल के मुद्दे पर 26 जनवरी के दिन धरना-प्रदर्शन करेंगे और इस साल पलटी खाकर गणतंत्र दिवस परेड में वीआइपी पास के साथ शामिल होने की आस लगायी. बीजेपी के कुछ सांसद केजरीवाल के लिए खुलेआम अपशब्दों का प्रयोग कर रहे हैं. हालांकि, केजरीवाल ने भी वोट मांगने के क्रम में खुद को ‘बनिया’ बता कर चुनावी बहस को द्विअर्थी संवादों से पाटने में योगदान दिया है.
लोकतंत्र में चुनाव मत-निर्माण के लिए दावेदार पक्षों के बीच जोरदार बहसों की मांग करता है. ऐसी बहसों की एक ही मर्यादा होती है कि यह तर्क आधारित और लोक-कल्याण पर केंद्रित हो. किसी के कुल-गोत्र को अपमानित कर, या फिर झूठा, फरेबी और मक्कार जैसे शब्दों के सहारे चलनेवाली बहस हमारी राजनीति के निरंतर नकारात्मक और दृष्टिहीन होते जाने की सूचना है. इसलिए चुनाव आयोग को चाहिए कि मर्यादाओं के उल्लंघन पर त्वरित कार्रवाई करे तथा माहौल को और बिगड़ने से रोके.

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