नागरिक संगठनों की निरंतर पैरोकारी और आंदोलनी स्वर के कारण देश की राज्यसत्ता एक ऐसा कानून बनाने के लिए सहमत हुई, जिसमें पहली बार माना गया कि हर व्यक्ति को रोजगार पाने का अधिकार है और शासन उसके इस अधिकार की रक्षा की गारंटी देता है. रोजगार के कार्यक्रम पहले भी चलते थे, पर उनमें दान देने जैसा भाव था. दूसरी, भ्रष्टाचार के नाम पर मनरेगा की उपलब्धियों की खिल्ली नहीं उड़ायी जा सकती.
खुद सरकार के आंकड़े कहते हैं कि बीते बरसों में मनरेगा के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्र में हर तीन में से एक परिवार को रोजगार मिला है. इसमें 40 फीसदी रोजगार अनुसूचित जाति/ जनजाति के परिवारों को मिला है. ग्रामीण गरीबों का जीवनस्तर सुधारने में इसका बड़ा योगदान रहा है और इस अर्थ में मनरेगा उनके लिए संकटमोचक साबित हुआ है. सिर्फ 2013-14 में इसके अंतर्गत 10 करोड़ लोगों को रोजगार मिला है.
हालांकि इसमें रोजगार सृजन की संभावनाओं का पूरा दोहन होना बाकी है. मुश्किल यह है कि ग्रामीण गरीबी कम करने के मामले में विश्वस्तरीय सराहना पानेवाला मनरेगा अपने दसवें साल में अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है. पिछले साल जुलाई में केंद्र की नयी सरकार ने कहा था कि वह मनरेगा को जनजातीय या पिछड़े जिलों तक सीमित करना चाहती है. उसने राज्यों से मौजूदा वित्त वर्ष के शेष महीनों में मनरेगा पर खर्च सीमित करने के लिए भी कहा था. इस मंशा के मद्देनजर मनरेगा के लिए आवंटित राशि में कटौती भी की गयी. बिहार सहित कम-से-कम 11 राज्यों के मुख्यमंत्री केंद्र से शिकायत कर चुके हैं कि फंड में कटौती के कारण करीब 75 प्रतिशत मामलों में मजदूरी का भुगतान नहीं हो पा रहा है और राज्य इसमें नये रोजगार का सृजन नहीं कर पा रहे. अब केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री का आश्वासन, कि मनरेगा को कमजोर नहीं किया जायेगा, कुछ भरोसा जगाता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि अंतिम जन को सबल बनानेवाले इस कार्यक्रम को आगामी बजट में पर्याप्त आवंटन हासिल होगा.