‘बराक’ से हासिल क्या हुआ?

शायद हमने पहली बार अमेरिका को अपनी धरती पर रूस की सार्वजनिक आलोचना करने का मौका दिया, जैसा कि राष्ट्रपति ओबामा ने मोदी के साथ अपने साझा संवाददाता सम्मेलन में किया. रूस हमारा पुराना मित्र और हमारी सुरक्षा जरूरतों में महत्वपूर्ण सहयोगी है. इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि इस मामले में अधिक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 4, 2015 7:22 AM

शायद हमने पहली बार अमेरिका को अपनी धरती पर रूस की सार्वजनिक आलोचना करने का मौका दिया, जैसा कि राष्ट्रपति ओबामा ने मोदी के साथ अपने साझा संवाददाता सम्मेलन में किया. रूस हमारा पुराना मित्र और हमारी सुरक्षा जरूरतों में महत्वपूर्ण सहयोगी है. इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि इस मामले में अधिक संवेदनशीलता बरती जाये.

हमारे 66वें गणतंत्र दिवस समारोह में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का मुख्य अतिथि के रूप में आना इस तरह का पहला अवसर था, क्योंकि आश्चर्यजनक तौर पर इससे पहले कोई और अमेरिकी राष्ट्रपति इस समारोह में मुख्य अतिथि नहीं बना था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए. लेकिन, अब जब इस अवसर का तामझाम और लगातार टेलीविजन प्रसारण समाप्त हो गया है, यह समय कुछ आत्ममंथन का है. झप्पियों, हाथ मिलाने, खाने-पीने और भाषणों से हकीकत में क्या हासिल हुआ है?

राष्ट्रों को अपने राष्ट्रीय हितों के आधार पर अपनी विदेश नीति तय करनी चाहिए, न कि दिखावे और प्रोटोकॉल पर. इसमें कोई संदेह नहीं है कि अमेरिका के साथ हमारे सम्बन्ध महत्वपूर्ण हैं. यह तथ्य कि राष्ट्रपति ओबामा दो बार भारत आ चुके हैं और इस बार गणतंत्र दिवस पर बतौर मुख्य अतिथि आये थे, संकेतात्मकता से कहीं आगे है और दुनिया के लिए महत्वपूर्ण राजनयिक संदेश है. लेकिन, सही मायनों में इस यात्रा की क्या उपलब्धियां रहीं? दोनों देशों ने आर्थिक सहयोग को बढ़ाने का संकल्प लिया, लेकिन हम नहीं जानते हैं कि द्विपक्षीय निवेश समझौते पर कोई प्रगति हुई या नहीं.

हमें यह भी मालूम नहीं है कि हमारी सरकार भारत में व्यापार करने में आसानी के लिए क्या योजना बना रही है, क्योंकि भारत में निवेश और व्यापार के इच्छुक लोगों के लिए यह मुख्य बाधा है; और यह कि हमारी चिंताओं की परवाह किये बगैर अमेरिकी हितों के अनुरूप क्या कदम उठाये जा रहे हैं? यह भी कि जब रक्षा सहयोग समझौते का नवीनीकरण किया गया है, तो उसमें साझा उत्पादन और सह-विकास की क्या व्यवस्था है? यह दोनों ही भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं. इसी तरह, जबकि हमें बताया जा रहा है कि परमाणु ऊर्जा समझौता अब एक ‘तय करार’ है, हमें यह नहीं पता है कि आपूर्तिकर्ता की जिम्मेवारी के सवाल पर अमेरिका ने किन रियायतों पर हामी भरी है और इसका हमारे हितों पर क्या असर होगा? अमेरिका ने सप्लीमेंटरी कंपनसेशन कन्वेंशन पर हस्ताक्षर नहीं किया है, और किसी ने हमें यह नहीं बताया कि बीमादाताओं के समूह से दिये जानेवाले 1500 करोड़ रुपये तक के मुआवजे की व्यवस्था कैसे काम करेगी, इसका खर्च कौन वहन करेगा, और यह भी कि क्या फुकुशिमा जैसे हादसे की स्थिति में यह राशि पर्याप्त होगी?

उल्लेखनीय है कि विपक्ष के रूप में भाजपा परमाणु जवाबदेही के कड़े प्रावधानों को लेकर सबसे तेज आवाज में बोल रही थी! हमें यह भी देखना है कि परमाणु हथियारों से संबद्ध चार नियंत्रक व्यवस्थापकों में हमारे प्रवेश का किस हद तक समर्थन करता है. और आखिर में, यह स्वागतयोग्य है कि पुनर्गठित सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के दावे का अमेरिका ने समर्थन किया है, लेकिन इसे हकीकत में बदलने के लिए अमेरिका की कोशिशें स्पष्ट नहीं हैं. इस तरह के सार्वजनिक बयानों से परे आमतौर पर सुरक्षा परिषद के सुस्थापित पांच सदस्यों ने परिषद के सुधार के सवाल को कमिटी के अंतहीन अंधेरे में भटका दिया है और जानबूझ कर बहु-स्तरीय लालफीताशाही में उलझा दिया है.

दूसरा महत्वपूर्ण मामला पाकिस्तान, आतंकवाद और आतंक-निरोध से जुड़ा है. यहीं हमारे राष्ट्रीय हित का मूल तत्व है. मेरी राय में पाकिस्तान के प्रति अमेरिका की नीति दोषपूर्ण है. उसे यह भरोसा है कि वह पाकिस्तान सरकार को ढेर सारा आर्थिक सहयोग और हथियार देकर वहां लोकतंत्र को बढ़ावा दे सकता है और पाकिस्तान में तथा बाहर, खास कर हमारे खिलाफ, आतंक फैलानेवाली ताकतों को रोक सकता है. लेकिन, सच यही है कि इस तरह का वित्तीय सहयोग पाकिस्तानी राज-व्यवस्था के भीतर बैठे दुष्ट सैन्य-आइएसआइ तंत्र को ही मजबूत बनाता है, भले ही लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयी निरंतर अस्थिर पाक सरकार कुछ और कहती रहे. अमेरिका को अफगानिस्तान में सैनिक कार्रवाई के लिए पाकिस्तान का साथ जरूरी है, लेकिन भारत के विरुद्ध पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकी तंत्र के लिए इन सब बातों का परिणाम क्या है? क्या राष्ट्रपति ओबामा ने हमारे प्रधानमंत्री को भारत के खिलाफ लगातार युद्ध छेड़े हुए जेहादी संगठनों पर लगाम लगाने के लिए पाकिस्तान पर दबाव डालने का कोई ठोस और प्रामाणिक आश्वासन दिया है? इस संबंध में अधिक कर सकने की अमेरिका की क्षमता पर कोई संदेह नहीं है. इसका प्रमाण यूक्रेन मसले पर रूस के साथ अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों का बर्ताव है. अगर उनमें राजनीतिक इच्छाशक्ति है, तो दबाव प्रभावकारी हो सकता है.

इन बातों से अलग कुछ अन्य टिप्पणियां भी मौजूं हैं. इस यात्रा के दौरान मोदी ने किसी कलाकार की तरह लगातार पोशाक जरूर बदला, जिसमें वह सूट भी शामिल है (जिस पर उनके नाम बुने हुए थे), जिसकी कीमत किसी महंगे कार से भी अधिक है, लेकिन इससे वे ओबामा को एक सार्वजनिक भाषण में उन्हें और भाजपा-संघ के अन्य लोगों को यह चेताने से नहीं रोक सके कि धार्मिक आधारों पर बंटा भारत न तो एक सभ्य इकाई होगा और न ही उसका अस्तित्व सुरक्षित रहेगा. एक अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा खुलेआम हमें अनुच्छेद 25 पर भाषण सुनाना और सभी धर्मो का सम्मान करने की सलाह देना, हमारे जैसे देश के लिए बड़े शर्म की बात है, जिसने अतीत में बाहरी लोगों के ऐसे हस्तक्षेपी बयानों पर असंतोष व्यक्त किया हो और जिसे अपनी धर्मनिरपेक्ष और मिली-जुली संस्कृति पर हमेशा गर्व रहा है. भाजपा सरकार ने कुछ ही महीनों में देश की छवि के साथ जो किया है, उस पर यह दुखद टिप्पणी है. मोदी यह समझने में नाकाम हैं कि दुनिया भारत को सिर्फ एक बाजार के रूप में ही नहीं, बल्कि एक सभ्यता के रूप में भी देखती है, जिसकी विशिष्टता लोकतांत्रिक सह-अस्तित्व और सहिष्णुता रही हैं.

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि शायद हमने पहली बार अमेरिका को अपनी धरती पर रूस की सार्वजनिक आलोचना करने का मौका दिया, जैसा कि राष्ट्रपति ओबामा ने मोदी के साथ अपने साझा संवाददाता सम्मेलन में किया. रूस हमारा पुराना मित्र और हमारी सुरक्षा जरूरतों में महत्वपूर्ण सहयोगी है. इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि इस मामले में अधिक संवेदनशीलता बरती जाये.

मोदी द्वारा राष्ट्रपति ओबामा को बार-बार ‘बराक’ संबोधित करना अजीब था, मानो वे उनके लंगोटिया यार रहे हों. ‘मन की बात’ में तो हमारे प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति ओबामा को 19 बार ‘बराक’ कहा, जबकि ओबामा ने उन्हें नौ बार प्रधानमंत्री मोदी संबोधित किया! आखिर हमारे प्रधानमंत्री को सार्वजनिक राजनयिक वार्ता में सामान्य औपचारिकता को छोड़ने की जरूरत क्या थी, जो हमारे रिवाजों और व्यवहार के अनुकूल है? बहुत लोगों को यह अतिउत्साह अजीब और उबाऊ लगा. अब देश को देखना है कि ‘बराक’ अपने कार्यकाल के आखिरी हिस्से में भारत के लिए क्या करते हैं.
(अनुवाद : अरविंद कुमार यादव)

पवन के वर्मा

सांसद एवं पूर्व प्रशासक

pavankvarma1953@gmail.com

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