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लोकतंत्र की मर्यादा और देश के चुनाव

पिछले दिनों चुनावों से संबंधित एक पोस्टर ने ध्यान आकृष्ट किया और उसने मन को छू लिया. ‘देश के विकास के लिए मैं नहीं हम की जरूरत है.’ सही में इस हम में बहुत शक्ति है. यह बहुमत और समान विचारधारा का प्रतीक है. मैं अहंकार का दूसरा रूप है, जो नैतिकता और विवेक का […]

पिछले दिनों चुनावों से संबंधित एक पोस्टर ने ध्यान आकृष्ट किया और उसने मन को छू लिया. ‘देश के विकास के लिए मैं नहीं हम की जरूरत है.’ सही में इस हम में बहुत शक्ति है. यह बहुमत और समान विचारधारा का प्रतीक है. मैं अहंकार का दूसरा रूप है, जो नैतिकता और विवेक का नाश कर देता है.

आज भारत की नियति और सत्ता पर बैठे लोगों के बीच इस मैं की भूमिका बड़ी है. इससे हमारे जन नेता न तो सार्थक सोच पाते हैं और न ही सार्थक लक्ष्य को प्राप्त कर पाते हैं. बारंबार चुनाव होना और नेतृत्व का अनैतिक और भ्रष्ट आचरण, आपसी कलह और पदों को लेकर घमासान इसी मैं का परिणाम है. इससे लोकतंत्र की जड़ें हिल रही हैं. लुभावने वादों के मकड़जाल में जनता के असली मुद्दे दूर होते जा रहे हैं.

नतीजतन भ्रमित और खंडित जनमत देश और राज्य को कोई दिशा नहीं दे पाता. हालांकि जनमत का फैसला सर्वोपरि होता है, मगर मुट्ठी भर असामाजिक सोचवाले व्यक्तियों के अनुचित तर्को, भ्रष्ट आचरण और चुनावों की आचार संहिता के उल्लंघन से सच्चे प्रत्याशी हार जाते हैं. इससे न तो किसी को बहुमत मिलता है और न ही विकास हो पाता है. लोकतंत्र की सफलता का मूलमंत्र अनेकता में एकता का साकार होना है. लेकिन, जब जनमत की उपेक्षा कर सत्ता के लिए संघर्ष होगा, तो प्रशासनिक व्यवस्था लचर होगी ही. आज जरूरत इस बात की है कि हम एक ऐसे नेता का चयन करें, जो ईमानदारीपूर्वक देश की विकासपरक योजनाओं को लागू करे और उसका लाभ देश के लोगों को दिला सके. सही नेता के चयन से ही देश का विकास संभव है. सही नेता वही कहलाता है, जो मैं को छोड़ कर हम के सिद्धांतों पर काम करता है.

पद्मा मिश्र, जमशेदपुर

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