कितने समाजवादी एवं पंथर्निपेक्ष
सुधांशु रंजन वरिष्ठ पत्रकार सरकारी विज्ञापन को लेकर विवाद भले खत्म हो गया हो, लेकिन यह एक अच्छा अवसर है भारतीय संविधान की उद्येशिका में दर्ज दो शब्दों- ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’- की महत्ता पर गहराई से विचार करने का. 1967 में गोलकनाथ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि उद्येश्यिका संक्षेप में संविधान […]
सुधांशु रंजन
वरिष्ठ पत्रकार
सरकारी विज्ञापन को लेकर विवाद भले खत्म हो गया हो, लेकिन यह एक अच्छा अवसर है भारतीय संविधान की उद्येशिका में दर्ज दो शब्दों- ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’- की महत्ता पर गहराई से विचार करने का.
1967 में गोलकनाथ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि उद्येश्यिका संक्षेप में संविधान के आदर्शो एवं आकांक्षाओं को परिलक्षित करती है. इसलिए यह विचार करना जरूरी है कि हमारा देश किस हद तक समाजवादी एवं पंथनिरपेक्ष है.
केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रलय के एक विज्ञापन में 1949 के मूल संविधान की उद्येशिका छापने को लेकर उठा विवाद वित्त मंत्री अरुण जेटली के इस स्पष्टीकरण के बाद खत्म हो गया है कि भविष्य के सभी सरकारी विज्ञापनों में 1977 की उद्येशिका का इस्तेमाल होगा. उल्लेखनीय है कि मूल संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द नहीं थे.
1976 में 42वें संविधान संशोधन की धारा 3 के द्वारा ये दो शब्द जोड़े गये, जो 3 जनवरी 1977 से लागू हुए. विपक्षी दलों को आपत्ति थी कि विज्ञापन में इन दो शब्दों का न होना सरकार की नीयत को उजागर करता है. हालांकि जेटली के स्पष्टीकरण के बाद संदेह की गुंजाइश रह नहीं जाती, लेकिन यह एक अच्छा अवसर है इन दो शब्दों की महत्ता पर गहराई से विचार करने का.
संविधान सभा में ब्रजेश्वर प्रसाद ने इन दो शब्दों को जोड़ने का सुझाव दिया था, जिसे ठुकरा दिया गया. 1967 में गोलकनाथ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि उद्येशिका संक्षेप में संविधान के आदर्शो एवं आकांक्षाओं को परिलक्षित करती है. इसलिए यह विचार करना जरूरी है कि हमारा देश किस हद तक समाजवादी एवं पंथनिरपेक्ष है.
जहां तक समाजवाद का सवाल है, अपना देश कभी समाजवादी नहीं रहा. समाजवादी व्यवस्था की अनिवार्य शर्त है कि उत्पादन के साधनों पर आम नागरिकों का नियंत्रण एवं स्वामित्व हो. पूंजीवादी व्यवस्था में यह संभव नहीं है. इसमें उत्पादन एवं वितरण पर मुख्य रूप से सरकार का नियंत्रण होता है.
1983 में डी एस नकारा बनाम संघ में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘समाजवादी’ जोड़ने का अर्थ है संविधान में समाजवाद के दर्शन को अंगीभूत करना जिसका लक्ष्य है आमदनी, प्रतिष्ठा एवं जीवन स्तर में असमानता खत्म करना. एक्सेल वियर बनाम संघ (1978) में न्यायालय ने कहा कि इससे अदालतों को राष्ट्रीयकरण तथा उद्योगों के सरकारी स्वामित्व की ओर झुकने में बल मिलेगा. नेशनल टेक्सटाइल्स मामले (1983) में अदालत ने इसे दोहराया.
1991 में नयी आर्थिक नीति लागू होने के बाद इसके आलोचकों ने दुख व्यक्त किया कि समाजवाद को गुपचुप तरीके से दफना दिया गया है, किंतु सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली साइंस फोरम (1996), बाल्को इम्प्लाइज यूनियन (2002), सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (2003) में सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण को सही ठहराया. उसने इस पर विचार नहीं किया कि प्रस्तावना में लिखित ‘समाजवादी’ शब्द से विनिवेश की नीति मेल खाती है या नहीं. कुछ अन्य फैसलों में अदालत ने ‘समाजवादी’ की व्याख्या सामाजिक लोकतंत्र की अवधारणा को विकसित करने के लिए की, जो कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के निकट है.
कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का उदय ब्रिटेन में 1942 में बेवरिज रिपोर्ट से हुआ, जिसमें द्वितीय विश्व युद्ध के बाद देश को पुनर्निमित करने के बारे में सुझाव थे. विलियम बेवरिज ने सिफारिश की थी कि सरकार को पांच बड़ी बुराइयों- अभाव, बीमारी, अज्ञान, गंदगी एवं बेरोजगारी- खत्म करने का रास्ता ढूंढ़ना चाहिए. 1945 में लेबर पार्टी की सरकार बनी और नवनियुक्त प्रधानमंत्री क्लिमेंट ऐटली ने घोषणा की कि वह बेवरिज रिपोर्ट के आधार पर कल्याणकारी राज्य की स्थापना करेंगे. इसके अंतर्गत सभी के मुफ्त इलाज के लिए 1948 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा की स्थापना की गयी.
पूरी आबादी को ‘गर्भ से लेकर कब्र तक’ सामाजिक सुरक्षा देने के लिए लाभ की राष्ट्रीय पद्धति शुरू की गयी. दिलचस्प यह है कि बेवरिज का जन्म 1879 में बंगाल में हुआ था. उनके पिता यहां जज थे. इसके पहले इंग्लैंड तथा वेल्स में गरीबों के लिए केवल गरीब कानून (पूअर लॉ) था. पहली बार एलिजाबेथ प्रथम ने यह कानून बनाया था, जिसे ओल्ड पूअर लॉ कहते हैं. 1834 में इसकी जगह न्यू पूअर लॉ बनाया गया, जिससे गरीबों के लिए राहत की तत्कालीन व्यवस्था में व्यापक बदलाव आया. इस कानून की शर्ते इतनी अपमानजनक थीं कि लोग इसमें राहत लेने से बचते थे.
आज स्कैंडिनेविया के देशों, खास कर नॉर्वे, को छोड़ कल्याणकारी राज्य शायद ही कहीं देखने को मिलता है. अपने उद्गम के देश ब्रिटेन में इसे मार्गरेट थैचर के कार्यकाल में जबर्दस्त धक्का लगा, जिन्होंने एक बदनाम वक्तव्य दिया था, ‘समाज कहां है? मैं केवल व्यक्ति को देखती हूं.’
कल्याणकारी राज्य को ध्वस्त करने के लिए उन्होंने राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा को छिन्न-भिन्न कर दिया. भारत में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना, खाद्य सुरक्षा जैसी कुछ कल्याणकारी योजनाएं हैं, किंतु इस दिशा में काफी कुछ करने की जरूरत है, ताकि शिक्षा, स्वास्थ्य एवं न्याय को आम आदमी की पहुंच के दायरे में लाया जा सके.
जहां तक समाजवाद का संबध है, प्राचीन आदिवासी समाजों को छोड़ कर समाजवादी व्यवस्था शायद ही कहीं रही है. यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी ने भी विभिन्न देशों में सत्ता पाने के बाद इसे ठीक से लागू नहीं किया और सत्ता पूर्ववर्ती शासन से निकल कर पार्टी अधिकारियों के हाथों में केंद्रित हो गयी. आम आदमी ठगा सा रह गया. रोजा लग्जेमबर्ग ने इसके खिलाफ विद्रोह किया और जुनियस पैंफ्लेट (1915) प्रकाशित किया. अगस्त 1914 में वार क्रेडिट्स पर हुए मतदान से समाजवादियों तथा यूरोप में समाजवादी आंदोलन को गहरा धक्का लगा.
जिन्होंने कड़ी मेहनत की और जिन्हें भरोसा था कि संगठित मजदूर युद्ध के विरुद्ध ताकत के साथ खड़े होंगे, उन्हें यह देख कर सदमा लगा कि जर्मनी, फ्रांस तथा इंग्लैंड की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियां अपनी पितृभूमि के बचाव में दौड़ पड़ीं. मजदूरों की एकता काफूर हो गयी. रोजा लग्जेमबर्ग को इसका पूवार्भास था और उन्होंने जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के पार्टी अधिकारियों की मुट्ठी में कैद होने तथा ट्रेड यूनियनों की क्रांति-विरोधी प्रवृत्तियों के खिलाफ लगातार चेतावनी दी. उनका परचा इंटरनेशनल ग्रुप का नीति-निर्देशक वक्तव्य बना. यह ग्रुप बाद में स्पार्टाकस लीग और अंतत: कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ जर्मनी बना. इसलिए अल्पकाल के लिए कुछ अपवादों को छोड़ कर सत्ता कभी आम आदमी तक नहीं पहुंची.
एक अपवाद पेरिस कम्यून (18 मार्च से 28 मई, 1871) है जब मजदूरों ने सत्ता की कमान अपने हाथ में ले ली.इसी प्रकार, पंथनिरपेक्षता के भी सही अर्थ को समझने की जरूरत है. भारत एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र है, क्योंकि राज्य का कोई धर्म नहीं है. संविधान (अनुच्छेद 25) हर व्यक्ति को (विदेशी सहित) कोई भी धर्म मानने और उसका प्रचार करने का अधिकार देता है. इसके अलावा अनुच्छेद 14, 15 तथा 16 कानून के समक्ष समानता तथा कानून के समान संरक्षण का अधिकार देते हैं और जाति, धर्म, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भेदभाव की इजाजत नहीं देते हैं.
इसलिए प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्ष’ जोड़े जाने के पहले भी भारत पंथनिरपेक्ष था. लेकिन यह फ्रांस की तरह नहीं है, जहां राज्य को धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में स्पष्ट कहा गया है कि राज्य सभी नागरिकों के लिए सामान नागरिक संहिता बनाने का प्रयास करेगा.