चलो, सरकार तो बन गयी न!
जनता न सही, पर सरकारविहीन नेता बहुत बेचैन थे. खैर, सरकार तो अब बन ही गयी. राष्ट्रपति शासन के दौरान सभी सत्ताच्युत नेता बेचारे बेसब्री से इंतजार में थे कि कब इस पीड़ादायी ‘सूखे’ का अंत हो. समय–समय पर उनकी छटपटाहट की भनक मीडिया देता रहता था. जाहिर है, एक ओर वे सत्ता सुख से […]
जनता न सही, पर सरकारविहीन नेता बहुत बेचैन थे. खैर, सरकार तो अब बन ही गयी. राष्ट्रपति शासन के दौरान सभी सत्ताच्युत नेता बेचारे बेसब्री से इंतजार में थे कि कब इस पीड़ादायी ‘सूखे’ का अंत हो. समय–समय पर उनकी छटपटाहट की भनक मीडिया देता रहता था. जाहिर है, एक ओर वे सत्ता सुख से मारे गये थे, कमाई–धमाई ठप पड़ी थी, तो दूसरी ओर उनके लिए सबसे बड़ा दर्द यह था कि ‘जनसेवा’ से उन्हें वंचित होना पड़ रहा था. मुश्किल से बनी गंठबंधन की पिछली सरकार गिर गयी. बीच में ही भाग्य ने उन्हें धोखा दिया. लेकिन प्रयास फिर भी जारी थे.
रांची से लेकर दिल्ली तक लगातार परेड जारी थी. सरकार बनाने का रोचक–मनोरंजक खेल शुरू हो चुका था. जुगाड़–तिकड़म, इस्तीफा, मान–मनौव्वल, जोड़–तोड़ और संभवत: छिप कर खरीद–फरोख्त का भी हाइ–वोल्टेज ड्रामा, जैसा कि होता आया है. लेकिन सवाल यह है कि क्या हो जायेगा सरकार बन जाने से? 12 सालों में कितनी सरकारें आयीं–गयीं, याद नहीं. सारी लकीर की फकीर ही साबित हुईं. इस सरकार में नया क्या है? ।। प्रो लखन कु मिश्र ।।
(टाटीसिलवे, रांची)