क्या टूटेगी सरकार की नींद?
* बच्चों की मौत पर संज्ञान झारखंड के नौनिहालों की सालाना होने वाली मौत के आंकड़ों पर हाइकोर्ट के स्वत: संज्ञान लेने के बाद भी सुधार की गुंजाइश कितनी है, इस बारे में कुछ कह पाना मुश्किल है. सेवा समाप्ति के अंतिम दिन झारखंड हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश प्रकाश टाटिया ने अखबार में छपी खबर […]
* बच्चों की मौत पर संज्ञान
झारखंड के नौनिहालों की सालाना होने वाली मौत के आंकड़ों पर हाइकोर्ट के स्वत: संज्ञान लेने के बाद भी सुधार की गुंजाइश कितनी है, इस बारे में कुछ कह पाना मुश्किल है. सेवा समाप्ति के अंतिम दिन झारखंड हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश प्रकाश टाटिया ने अखबार में छपी खबर पर राज्य सरकार से पूछा है कि नौनिहालों की मौत का जो आंकड़ा अखबारों में छपा है, वह सही है या नहीं.
निश्चित रूप से, सरकार हाइकोर्ट को अपने जवाब से अवगत करायेगी. परंतु जवाब देने भर से नौनिहालों की मौत का सिलसिला नहीं रुकने वाला है. दरअसल राज्य में जन कल्याणकारी योजनाओं का बुरा हाल है. बाल एवं महिला कल्याण विभाग राज्य में केंद्र व राज्य सरकार की दो दर्जन से भी अधिक योजनाएं चलाने का दावा करता है. इस दावे का सच यह है कि अभी भी संस्थागत प्रसव का आंकड़ा पचास प्रतिशत भी नहीं पहुंचा है.
संस्थागत प्रसव के नाम पर राज्य भर में चलनेवाली ममता वाहन योजना में लूट चल रही है. यही हाल आदिवासियों के लिए चलनेवाली कल्याणकारी योजनाओं का है. यह उस राज्य में हो रहा है, जिसका गठन ही आदिवासियों के विकास के नाम पर हुआ है. राज्य में कई एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) ऐसे मिल जायेंगे, जो केस स्टडी के तौर पर चुंनिंदा जगहों पर स्वास्थ्य सुविधाओं या शिक्षा के स्तर पर हुए सुधार को दिखाते हैं. लेकिन वह बहुत ही छोटा व सीमित इलाका होता है.
राजधानी रांची के आसपास के इलाकों में ही ममता वाहन की सुविधा उपलब्ध नहीं होती है. स्वास्थ्य केंद्र में डाक्टर क्या, स्वास्थ्यकर्मी भी उपलब्ध नहीं होते हैं. एक–एक स्वास्थ्यकर्मी के जिम्मे दो से तीन स्वास्थ्य उपकेंद्र हैं. ऐसे में स्वास्थ्य केंद्र के सही तरीके से संचालन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. राज्य में पंचायत व गांव के स्तर पर बदलाव के लिए पंचायती राज के तहत प्रतिनिधि चुने गये हैं.
इन प्रतिनिधियों के पास कोई अधिकार नहीं है, उन्हें यह तक नहीं बताया गया है कि कैसे उनके छोटे–से प्रयास से गांव–पंचायत में स्वास्थ्य, शिक्षा की समस्याओं का अंत हो सकता है. प्रतिनिधियों को अधिकार देने के लिए नौकरशाह तो राजी नहीं ही हैं, एमपी–एमएलए भी उन्हें अधिकार संपन्न नहीं बनाना चाहते हैं. इसका नतीजा ही है कि सालाना चालीस हजार से अधिक बच्चों की मौत पांच साल से पहले हो जाती है. सरकार व नीति–निर्माता सब यह जानते हैं कि पंचायती राज को सशक्त करके इस भयावह स्थिति को बदला जा सकता है, लेकिन पहल करने को कोई तैयार नहीं है.