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कौन-सी विचारधारा चुनेंगे, घाघ या फेंकू

।। संजय कुमार सिन्हा ।। (प्रभात खबर, रांची) इन दिनों अपने देश में दो विचारधाराएं खूब जोर-शोर से चल रही हैं. जैसे एक तरफ कुआं होता है और दूसरी तरफ खाई, वैसे ही एक तरफ घाघ विचारधारा है और दूसरी तरफ फेंकू. दिखती दोनों भले ही अलग हैं, पर दोनों एक ही सिक्के के दो […]

।। संजय कुमार सिन्हा ।।

(प्रभात खबर, रांची)

इन दिनों अपने देश में दो विचारधाराएं खूब जोर-शोर से चल रही हैं. जैसे एक तरफ कुआं होता है और दूसरी तरफ खाई, वैसे ही एक तरफ घाघ विचारधारा है और दूसरी तरफ फेंकू. दिखती दोनों भले ही अलग हैं, पर दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. घाघ की परिभाषा यह है कि सामनेवाला जब शब्दों के बाण चला रहा हो, तो उसकी सारी आक्रामकता सोख ले, सोख्ता कागज की तरह. भयंकर आपदा भी आये, तो एक गहन खामोशी ओढ़ ले. कछुआ बन जाए, मूड़ी अंदर कर ले, फिर चाहे जितनी लाठियां बरसती रहें.

वहीं फेंकू तो बस फेंकते रहते हैं. मैंने कुछ विशेषज्ञों से इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि फेंकू तो नजर में जल्दी आ जाते हैं, पर वास्तव में उनमें कोई गंभीरता नहीं होती. मैंने कहा कि फिर फेंकू विकास मॉडल कैसे पेश कर लेते हैं? उन्होंने मुझे टोकते हुए कहा कि भाई यही तो फेंकू का कमाल है. फेंकू राई को भी पहाड़ बना सकते हैं. बिना किसी विजन के भी ऐसे बात करेंगे, जैसे उस विषय में डूब-उतरा कर आ रहे हों. लगेगा बड़ा तीसमार खां आदमी है, देश की दशा-दिशा सुधार देगा.

अब जो लोग इन फेंकुओं पर विश्वास करते हैं, उन्हें तो ये तारणहार दिखायी देते हैं. पर सच्चई यह है कि संकट पड़ने पर फेंकू विचारधारा वाले लोग कन्नी काट लेते हैं. तो क्या इसका मतलब यह माना जाये कि घाघ विचारधारा वाले लोग ही देश का भविष्य सजा-संवार सकते हैं? इस पर भी मैंने कुछ विशेषज्ञों से बात की. उन्होंने बताया कि देखिए घाघ बड़े चतुर किस्म के लोग होते हैं. उन्होंने एक भोजपुरी कहावत का उदाहरण दिया कि घाघ लोग ‘नून में का तेल में’ और ‘तेल में का नून में’ करने में माहिर होते हैं.

देखिए, गरीबी कम करने का जो नुस्खा इन घाघ लोगों ने निकाला है, वह कोई दूसरा कर सकता है क्या? और देखिए कि इन घाघों के समर्थन में पूरे देश में कैसे एक कुनबा तैयार हो गया है. कोई 12 रुपये में, कोई 5 रुपये में और कोई एक रुपये में भरपेट खाने की बात कर रहा है. अब तो मेरे कान इस बात को भी सुनने का इंतजार कर रहे हैं कि जेब में पैसे नहीं हों, तो भी भरपेट खाना मिल जायेगा. फिर वे (वही घाघ) कहेंगे कि अपने शासन में तो मुफ्त में भी हम लोगों को खाना खिला सकते हैं. घाघ लोगों की चुप्पी के क्या कहने! सीमा पर चीन कई किमी तक घुस आये, तो भी लंबी चादर ओढ़ कर सोनेवाले यही लोग हो सकते हैं. और हैं भी.

खैर, एक चीज मैं और बताना चाहूंगा. घाघ और फेंकू विचारधारा वाले लोग एक दूसरे में गड्ड-मड्ड करते नजर आते हैं. घाघ लोग यह बताने के लिए सारे प्रमाण जुटाते हैं कि हमने इतने मौकों पर इतने भाषण दिये. हम चुप रहनेवालों में से नहीं. वहीं फेंकू भी कहते हैं, हम ज्यादा नहीं बोलते, काम करते हैं, फिर चुप्पी साध लेते हैं.

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