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बिहार का राजनीतिक संकट और सबक

बिहार ने सियासत के कई रंग देखे हैं. सियासी दलों के अंतरविरोध देखे हैं. उसने देखा है सत्ता को हथियाने और छीनने का खेल भी. उसने संवैधानिक संस्थाओं के तराजू के पलड़े को एक तरफ होते हुए देखा है और उसके विरोध में सड़कों पर लोगों को भी. पर, वर्ष 2015 के फागुन महीने में […]

बिहार ने सियासत के कई रंग देखे हैं. सियासी दलों के अंतरविरोध देखे हैं. उसने देखा है सत्ता को हथियाने और छीनने का खेल भी. उसने संवैधानिक संस्थाओं के तराजू के पलड़े को एक तरफ होते हुए देखा है और उसके विरोध में सड़कों पर लोगों को भी. पर, वर्ष 2015 के फागुन महीने में राज्य के सत्ता शीर्ष पर जो हंगामा मचा है, वह सबसे अलहदा है.
यह मौजूदा राजनीति की सीमाओं, नेताओं के दृष्टि, आचार-व्यवहार की परतें भी खोलने वाला है. याद करिए जब पिछली गर्मियों में जदयू नेता और तब के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लोकसभा में मिली भारी पराजय के बाद नैतिक आधार पर अपनी कुरसी छोड़ दी थी. इसके पीछे का उनका तर्क भावनात्मक ज्यादा लग सकता है क्योंकि आज की राजनीति में ऐसी बातें नहीं चलतीं. नीतीश ने अपनी जगह जीतन राम मांझी को उत्तराधिकारी बनाया था. उनके इस कदम को सकारात्मक तरीके से देखा गया था.
किसी दलित, वह भी मांझी समुदाय के नेता को राज्य की बागडोर सौंपी जा रही थी. सत्ता हस्तांतरण के वक्त ही साफ था कि डेढ़ साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में नीतीश ही जदयू के नेता होंगे. लेकिन मांझी को बीच में ही हटाने की वह कौन-सी विवशता थी? इसे समझने के लिए मांझी के बयानों के बदले उनकी राजनीति को समझने की जरूरत है.
मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने जो फैसले लिये, उसे देखा जाना चाहिए. ये फैसले ऐसे थे जो पूर्ववर्ती नीतीश कुमार के नजरिये के बिल्कुल उलट थे. शीर्ष स्तर पर कई नौकरशाहों को हटाया गया. जाति के आधार पर अफसरों की बैठकें होने लगीं. उनके विवादास्पद बयान आते रहे. कानून-व्यवस्था ढीली हुई और विकास के मोरचे पर पुराने दिनों की तरह के हालात बनने लगे. ऐसा लगने लगा कि सरकार अलग चल रही है और पार्टी अलग.
वह भी ऐसे समय में जब विपक्षी दल भाजपा ज्यादा आक्र ामक तरीके से जदयू सरकार को घेरने में लगी थी. लेकिन दूसरी ओर मांझी के बयान और उनके फैसलों के बीच पार्टी नेतृत्व के साथ कोई तालमेल नहीं था. इन स्थितियों से निकलने के लिए जदयू के शीर्ष नेताओं और मांझी के बीच संवाद हुए. उनकी मुलाकात पार्टी अध्यक्ष शरद यादव से हई. वह नीतीश कुमार से मिले. इसके बावजूद अंतरविरोधी बयान लगातार आते रहे.
बदले हालात में मांझी अपनी मंत्रिपरिषद के कुछ सदस्यों के व्यवहार से आहत होने के आरोप ऐसे लगा रहे हैं जैसे मौजूदा संकट की वजह उनके मंत्रियों का आचरण था. अगर ऐसा था तो क्या उन्होंने पार्टी नेतृत्व से कभी इसकी शिकायत की थी? क्या कभी उन्होंने बताया कि उनके सहयोगी उनकी बात नहीं सुन रहे हैं या सार्वजनिक तौर पर उनकी अवहेलना कर रहे हैं? इन आठ-नौ महीनों के दौरान उनकी ओर से ऐसी शिकायत नहीं आयी. किसी संगठन में असहमति आम बात है. पर उसका समाधान उस संगठन के ढांचे में रह कर ही निकालने की जरूरत होती है.
आखिर मांझी इन हालातों से निकलने के लिए किसके सहयोग पर आश्रित थे. मांझी के समर्थन में खुल कर आये मंत्री नरेंद्र सिंह ने कहा है कि हमें सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा के समर्थन की जरूरत पड़ेगी तो हम वह भी करेंगे. पता नहीं नरेंद्र सिंह ने यह बात जानबूझ कर कही या अनजाने में. अगर उनकी बात को सच माना जाये तो मांझी के बयानों और उनके फैसलों को इस संदर्भ में देखने की जरूरत है. क्या मांझी को कहीं दूसरी जगह से संचालित किया जा रहा था? मांझी के प्रति भाजपा नेताओं के नरम रु ख का अर्थ क्या निकाला जाये? कुछ अरसे से भाजपा के जिम्मेदार नेताओं ने दावा करना शुरू किया कि जदयू के 50 से ज्यादा विधायक उनके संपर्क में हैं. लेकिन वे मांझी सरकार को अस्थिर करना नहीं चाहते. इन तथ्यों को एक क्र म में रख कर देखा जाये तो चीजें जदयू नेतृत्व के कमांड से बाहर जाने लगी थीं.
गौर करने वाली बात यह भी है कि अब तक विधायकों की संख्या के आधार पर जो तसवीर सामने आयी है, उसके अनुसार मांझी को पार्टी में समर्थन नहीं है. तकनीकी सवालों को छोड़ दिया जाये तो साफ हो चुका है कि पार्टी की मुख्यमंत्री के प्रति आस्था नहीं रह गयी है. ऐसे में मांझी बहुमत का दावा कहां से कर रहे हैं? जबकि विधायकों का नंबर उनके पास नहीं है. जाहिर है कि पूरे घटनाक्र म में अब राजभवन की भूमिक काफी महत्वपूर्ण हो चली है.
एक मुख्यमंत्री जिनके पास बहुमत के आंकड़े नहीं हैं, वे सदन में बहुमत दिखाने की बात कर रहे हैं तो दूसरी ओर जिनके पास बहुमत है, वे नयी सरकार बनाने का दावा पेश कर चुके हैं. अब देखना होगा कि राजभवन संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार क्या फैसला करता है. उसके पास विकल्प तो दो-तीन ही हैं. पर संविधान के जानकार मानते हैं कि राजभवन की भूमिका सरकार गठन को प्राथमिकता देने की होनी चाहिए. अगर ऐसी कोई संभावना बिल्कुल न दिखती हो तब दूसरे विकल्पों पर गौर किया जाना चाहिए. हालांकि मौजूदा परिदृश्य दूसरा है. जदयू अपने सहयोगी दलों राजद, कांग्रेस, भाकपा के साथ 130 विधायकों के समर्थन का दावा करते हुए राजभवन चिट्ठी पहुंचा चुका है.
लेकिन मांझी अपने पास बहुमत दोने का दावा कर रहे हैं तो इसके परीक्षण का अख्तियार भी राजभवन के पास ही है. भाजपा भी इस गुणा-भाग में लगी है कि इस संकट को इस हद तक नहीं बढ़ने दिया जाये ताकि विधानसभा चुनाव में उसे लाभ की जगह नुकसान हो जाये. उम्मीद करनी चाहिए कि राज्य को मौजूदा राजनीतिक गतिरोध से निकालने की दिशा में राजभवन अपनी भूमिका अदा करेगा और बिहार के हितों के अनुरूप फैसला लेगा.

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