भारतीय राजनीति का विश्वसनीय विकल्प

रविभूषण इक्कीसवीं सदी की भारतीय चुनावी राजनीति में दो तिथियों – 16 मई 2014 व 10 फरवरी 2015 का ऐतिहासिक महत्व है. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 44 सीटों पर सिमटी विपक्षी दल से दूर. दिल्ली विस चुनाव में भाजपा मात्र तीन सीटों पर सिमट गयी है. केजरीवाल ने उसे विपक्षी दल के रूप में रखने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 11, 2015 5:14 AM
रविभूषण
इक्कीसवीं सदी की भारतीय चुनावी राजनीति में दो तिथियों – 16 मई 2014 व 10 फरवरी 2015 का ऐतिहासिक महत्व है. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 44 सीटों पर सिमटी विपक्षी दल से दूर. दिल्ली विस चुनाव में भाजपा मात्र तीन सीटों पर सिमट गयी है. केजरीवाल ने उसे विपक्षी दल के रूप में रखने की घोषणा की है. मोदी व केजरीवाल का यह फर्क भारतीय राजनीति की दो विपरीत धाराओं का फर्क है. दिल्ली विस चुनाव में ‘आप’ की ऐतिहासिक, अतुलनीय, अविश्वसनीय, अप्रत्याशित, अनोखी और चामत्कारिक जीत भारतीय राजनीति का एक संकेत है.
वोट बैंक, ध्रुवीकरण, जोड़-तोड़, गंठजोड़, अलगाव, असहिष्णुता, सांप्रदायिकता, धर्मान्धता, हिंदुत्व, अनैतिक, झूठी-फरेबी, जाति, धर्म, वर्ग, संप्रदाय व लैंगिक राजनीति से भिन्न एक नयी राजनीति का ‘आप’ की जीत के साथ उदय हो रहा है. दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम स्तब्ध और हतप्रभ करनेवाले हैं. साफ-सुथरी राजनीति ‘स्वच्छता-अभियान’ से भिन्न है. धन, बल, छल-फरेब, भितरघात की राजनीति पर इस चुनाव ने प्रश्न-चिह्न् खड़ा कर दिया है. ‘आप’ को सभी वर्गो-समुदायों ने कंधे पर उठा लिया है. दिल्ली की उच्च आय वाली दस सीटों में से दस, मध्य आय वर्ग की 28 सीटों में से 26 और निम्न आय वर्ग की 32 सीटों में से 31 सीटें आप को मिली हैं. 70 सीटों में से आप को 67 और भाजपा को तीन सीटें मिल रही हैं. कांग्रेस शून्य पर चली गयी है.
लोकसभा चुनाव में भाजपा को सात सीटें मिली थीं. विधानसभा चुनाव में उसे इतनी भी सीट नहीं मिली. तात्कालिक और दूरगामी राजनीति में अब तक भारतीय राजनीति तात्कालिक राजनीति में फंसी-उलझी हुई थी. मतदाताओं का इतना बड़ा विश्वास आज तक भारतीय राजनीति में किसी को ‘नसीब’ नहीं हुआ. ‘अबकी बार मोदी सरकार’ की तरह ‘पांच साल केजरीवाल’ का नारा सर्वाधिक प्रभावशाली रहा.
लोकसभा चुनाव और दिल्ली विधानसभा चुनाव में विपक्ष का सफाया सभी राजनीतिक दलों के लिए एक चेतावनी की तरह है. दिल्ली की 70 सीटों में से 1993 में भाजपा को 49, 1998 में कांग्रेस को 52, 3008 में कांग्रेस को 47 और 2008 में कांग्रेस को 43 सीटें प्राप्त हुई थीं. पिछले चुनाव (2013) में भाजपा को 32, आप को 28, कांग्रेस को आठ और अन्य को दो सीटें मिली थीं. इस बार जहां भाजपा की 29 सीटें घटी हैं, वहां आप की 39 सीटें बढ़ी हैं. लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत 46 था, जो इस चुनाव में घट कर 28 प्रतिशत हो गया है. आप को 54.3 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए हैं.
केजरीवाल को अभिमन्यु की तरह घेरा गया था, पर वे पौराणिक अभिमन्यु से भिन्न रहे. लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा की ऐसी हार किसी राज्य में नहीं हुई. दिल्ली विधानसभा सभा का जनादेश केजरीवाल और आप पार्टी में अगाध विश्वास का प्रमाण है, जो उनके लिए हर्ष से कहीं अधिक चिंता का विषय है. इस चुनाव में मोदी, शाह, भाजपा, इमाम बुखारी, बाबा राम रहीम सब हारे हैं. दिल्ली चुनाव का तुरत प्रभाव बिहार की राजनीति पर पड़ेगा. अब मांझी के साथ जदयू के अधिक विधायक नहीं जायेंगे.
उनकी नाव डूबेगी और बिहार में नीतिश का मुख्यमंत्री बनना तय है. दिल्ली में राष्ट्रीय दलों का लगभग सफाया (कांग्रेस शून्य, भाजपा तीन) कांग्रेस और भाजपा की राजनीति पर पुनर्विचार की मांग करता है. मोदी के लिए व स्वयंसेवक संघ के प्रचारक-कार्यकर्ता, अमित शाह की रणनीति यहां काम नहीं आई. भाजपा का विजय-रथ दिल्ली में ही रुक सकता था. ‘दिनकर’ ने बहुत पहले ‘कृषक मेध की रानी दिल्ली, वैभव की दीवानी दिल्ली’ कहा था. यह चुनाव धनाढ्य दिल्ली और सामान्य दिल्ली के बीच निर्णायक सिद्ध हुआ. आठ महीने की मोदी सरकार पर उनचास दिनों की ‘आप’ सरकार ‘बदनसीब’ के बीच का चुनाव था. यह ‘लोक’ की ‘तंत्र’ पर जीत है.
भारतीय लोकतंत्र की वास्तविक शक्ति सामने आई. यह चुनाव बुलेट ट्रेन, स्मार्ट सिटी, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश और देश के कॉरपोरेटीकरण के भी विरुद्ध है. पहली बार केजरीवाल ने 49 दिनों की सरकार में मुकेश अंबानी और अन्य कॉरपोरेट शक्तियों के खिलाफ आवाज उठायी थी.
जनविमुख राजनीति जनोन्मुखी राजनीति परास्त कर रही है. सकारात्मक राजनीति नकारात्मक राजनीति पर भारी पड़ी. मोदी ने केजरीवाल को ‘अराजक’ कह कर जंगल में चले जाने की सलाह दी थी. जनता ने इसकी हंसी उड़ा दी. पूंजी की राजनीति पर जनता की पूंजी की ताकत समझ में आई. ‘सोशल इंजीनियरिंग’ व ‘अस्मिता की राजनीति’ अब संकट में रहेगी. पूंजी की शक्ति से कहीं बड़ी जनशक्ति है. वही महाशक्ति है. जनाकांक्षा को समझ कर ही राजनीति स्वस्थ और प्राणवान होती है. दिल्ली के चुनाव का राष्ट्रीय प्रभाव पड़ेगा.
‘आप’ ने राजनीतिक विनम्रता-शालीनता का परिचय दिया. भाजपा में यह विनम्रता-शालीनता नहीं थी. भाजपा की सबसे बड़ी बूल किरन बेदी को मुख्यमंत्री प्रत्याशी के रूप में लाना था. कृष्णानगर सीट से हर्षवर्धन चार बार भारी मतों से जीतते रहे थे. वहां किरन बेदी 2277 वोटों से हार गयीं. भाजपा के भीतर का एक बड़ा तबका भाजपा की हार से प्रसन्न होगा. मोदी-शाह की जोड़ी को पुनर्विचार ही नहीं, आत्ममंथन करना होगा, क्योंकि वहां लोकतांत्रिक शैली की कमी है. भाजपा की हार के पीछे उसका अहंकार व आंतरिक कलह प्रमुख है.
चुनावी जुमलों से हमेशा चुनाव नहीं जीता जाता. राजनीतिक जुमले सदैव स्थायी-प्रभावकारी नहीं होते. दिल्ली में मोदी लहर थम चुकी है. केजरीवाल की लहर से अधिक यह जनता की लहर थी, जो ऐन वक्त पर दिखाई देती है. ‘आप’ की जीत लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक-सांप्रदायिक सौहार्द-सद्भाव व वास्तविक समावेशी विकास के पक्ष में है. यह विकास भी वर्तमान नीति और सांप्रदायिकता के विरुद्ध है. जनता को ‘वोट बैंक’ समझने की गर्हित मानसिकता के विरुद्ध है.
इस चुनाव ने राजनीति की परिभाषा बदल दी है. इसने पुराने राजनीतिक दलों पर अविश्वास किया है. यह आम आदमी की जीत है. उसके आत्मविश्वास को राजनीतिक दल समङों. दिल्ली का राजनीतिक संदेश से भी राजनीतिक दलों को समझना होगा. लोकतंत्र में ‘लोक’ की ताकत सबसे बड़ी है- चुनाव ने सिद्ध कर दिया है.

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