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दिल्ली के जनादेश से निकले संदेश
गैर भाजपा शासित राज्यों के राजनीतिक दल दिल्ली के जनादेश से हासिल आत्मविश्वास के सहारे साबित कर सकते हैं कि विपक्ष का विचार अभी धूमिल नहीं पड़ा है. किसी को लगा यह दीये और तूफान की लड़ाई है, तो कोई बोल रहा था दसलखा सूट से डेढ़ सौ रुपल्ली का मफलर उलझ गया है. मतदान […]
गैर भाजपा शासित राज्यों के राजनीतिक दल दिल्ली के जनादेश से हासिल आत्मविश्वास के सहारे साबित कर सकते हैं कि विपक्ष का विचार अभी धूमिल नहीं पड़ा है.
किसी को लगा यह दीये और तूफान की लड़ाई है, तो कोई बोल रहा था दसलखा सूट से डेढ़ सौ रुपल्ली का मफलर उलझ गया है. मतदान का दिन ज्यों-ज्यों नजदीक आ रहा था, दिल्ली के लोग चुनावी लड़ाई को रूपकों, प्रतीकों और मुहावरों में बांध कर आपस में बोल-बतिया रहे थे. आप की इस सुनामी सरीखी जीत, जिसे वह खुद भी चाहे तो भविष्य में शायद दोहरा नहीं पायेगी, के अर्थ को इन रूपकों और प्रतीकों के जरिये ही समझा जा सकता है. ये रूपक दिल्ली के मतदाताओं के मानस के बारे में बताते हैं. लोगों को लग रहा था कि यह पार्टियों की चुनावी लड़ाई नहीं, दो शख्सीयतों- नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल- की लड़ाई है.
एक ऐसी लड़ाई, जिसमें सेर की भिड़ंत सवा सेर से नहीं थी, मामला हाथी के जोर के आगे एक चींटी के अड़ जाने का था. निहायत गैर-बराबर जान पड़ती इस लड़ाई में लोगों ने उसका साथ दिया, जो निर्बल जान पड़ा. नतीजा आपके सामने है- ‘चींटी शक्कर ले चली- हाथी के सिर धूलि!’ दरअसल, यह जीत भारत के अंतिम जन के भीतर पलती उस नैतिकता की जीत है, जो अपने मन को सदियों से समझाता आया है- ‘निर्बल के बल राम’.
अपनी इसी नैतिकता के तकाजे से जनता ने आप का साथ दिया, क्योंकि केजरीवाल बीते एक साल से अपनी कथनी और करनी से लोगों को जताते-बताते आ रहे थे कि लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन होती है. वे नि:संकोच कहते रहे कि केजरीवाल महत्वपूर्ण नहीं, आम आदमी पार्टी भी महत्वपूर्ण नहीं है, लोकतंत्र में जनता और उसकी जरूरतों का ही प्राथमिक तथा अंतिम तौर पर महत्व है.
आप का यही संदेश दिल्ली चुनाव में जीत गया है. मानो, लोगों ने आप को नहीं, बल्कि खुद को वोट दिया है, स्वयं को ही जिताया है. दूसरी ओर भाजपा से सबसे बड़ी चूक इसी मोर्चे पर हुई. उसकी मजबूती ही उसकी बड़ी कमजोरी बन गयी. फिर से यह बात सच हुई कि जो किसी से नहीं हारता, वह आखिर में खुद से हार जाता है.
भाजपा मान चुकी थी कि पार्टी नहीं जीतती, पार्टी का चेहरा जीतता है. उसका यह यकीन लाजिम था, क्योंकि मोदी के चेहरे को आगे करके भाजपा बीते मई से लेकर अब तक लगातार चुनाव जीतती आ रही थी. भाजपा को विश्वास था कि जनता खुद से कोई निर्णायक राय नहीं बना सकती, बल्कि रणनीतिक कौशल और प्रबंधन के बूते उसे भाजपा के पक्ष में राय बनाने के लिए विवश किया जा सकता है. भाजपा के भीतर यह विश्वास रणनीतिक कौशल के उस्ताद अमित शाह ने भरा था.
अपने इसी विश्वास के बूते उसने दिल्ली में अपनी राज्य इकाई को हाशिये पर धकेलते हुए आंदोलनकारी की छवि बना चुकी किरण बेदी को आगे कर दिया. किरण बेदी ने लोगों से कहा कि आप एक वोट देंगे, तो आपको दो-दो चीजें मिलेंगी- प्रधानमंत्री से विकास, किरण बेदी से सुरक्षा. चूक इस सोच से भी हुई. इस सोच ने भाजपा को चुनाव लड़नेवाली एक मशीन में तब्दील कर दिया. इस सोच ने लोगों को बताया कि भाजपा जनता को जनार्दन नहीं, बल्कि प्रजा मान कर चल रही है.
प्रजा, जो हाथ पसारे, अपने दाता के भरोसे रहती है. प्रधानमंत्री ने भी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार के दौरान इस सोच में योगदान दिया. उन्होंने खुद को ‘नसीब वाला’ बताया. लोगों का लगा प्रधानमंत्री अपने निजी नसीब से ‘देश के नसीब’ को जोड़ कर देख रहे हैं. आखिर दिल्ली के लोगों ने प्रजा की तरह नहीं, बल्कि स्वतंत्र नागरिक की तरह आचरण किया और देश की किस्मत को किसी एक व्यक्ति की किस्मत से जोड़ कर देखनेवाली सोच को ही हरा दिया.
इस जनादेश की गूंज देश में एक नयी राजनीति की इबारत लिख सकती है. इस जनादेश से बिहार, बंगाल और यूपी सरीखे राज्यों की राजनीति के लिए दो महत्वपूर्ण संदेश निकले हैं. पहला यह कि मीडिया केंद्रित राजनीति और मुखड़ा-केंद्रित पार्टी के इस दौर की काट की जा सकती है. लोगों के कंधे पर सहानुभूति के हाथ रख कर उन्हें जताया जा सकता है कि लोग किसी एक पार्टी के बंधुआ नहीं हैं, वे सचमुच सत्ता-परिवर्तन की ताकत रखते हैं. दूसरा संदेश यह कि लोगों को सिर्फ विकास दर का आंकड़ा नहीं चाहिए; लोग रोटी, कपड़ा, मकान, सेहत, शिक्षा तो सरकार से चाहते ही हैं, उनके भीतर एक न्यायबोध भी होता है.
वे चाहते हैं कि संसाधनों का बंटवारा न्यायसंगत ढंग से हो. गैर-भाजपा शासित राज्यों के राजनीतिक दल इन दो संदेशों के आधार पर भाजपा के बरक्स विपक्ष का एक कारगर विचार गढ़ सकते हैं. वे दिल्ली के जनादेश से हासिल आत्मविश्वास के सहारे साबित कर सकते हैं कि विपक्ष का विचार अभी धूमिल नहीं पड़ा है. अगर ऐसा होता है, तो माना जायेगा कि भारत में लोकतंत्र अब भी पार्टी या व्यक्ति केंद्रित नहीं, बल्कि जनता-केंद्रित है!
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