* पुरस्कृत पत्र
।। शैलेश कुमार ।।
(ई–मेल से)
हताशा अपना रंग दिखाने लगी है. कोई रिश्तों से हताश है तो कोई अपने काम से और कुछ ऐसे भी हैं जो जीवन से ही हताश हो चले हैं. जेएनयू परिसर में घटी हिंसक घटना पर ज्यादा ताज्जुब करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अब यह स्वाभाविक–सा प्रतीत होने लगा है. जिस ओर समाज की सोच अग्रसर है, उस राह में केवल हताशा ही है. जाहिर–सी बात है कि हताशा होगी तो दिमाग और दिल काम करना बंद कर देंगे. जिंदगी रु क–सी जायेगी. सही–गलत का फर्क करना मुश्किल हो जायेगा.
कुछ गलत कर भी दिया तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि सोचने–समझने की ताकत खत्म हो चुकी है. हताशा ने सब छीन लिया है. अब प्रश्न उठता है कि इतनी हताशा एकाएक आ कहां से गयी? गौर करें तो यह अचानक से नहीं आयी. सामाजिक परिस्थितियों ने इसे जन्म दिया है.
ऐसी परिस्थितियां जो नयी शिक्षा व्यवस्था के फलस्वरूप पैदा हुई हैं. जहां शिक्षा का मतलब सभ्य और सुसंस्कृत बनना नहीं, बल्कि एक बड़ा इनसान बनना भर रहा गया है, जो पैसों में इतना खेले कि उसकी कोई सीमा ही न हो. इसके लिए किसी का दिल तोड़ना पड़े, किसी को नीचा दिखाना पड़े, झूठ बोलना पड़े या किसी की जान ही क्यों न लेनी पड़े. प्रतिस्पर्धा का युग है.
हर किसी को एक–दूसरे से आगे बढ़ने की जल्दी है. ऐसे में जो पीछे रहा, वह हताश होगा ही. दोस्ती और प्यार भी अब भावनाएं न रहकर, हैसियत की चीजें बनकर रह गयी हैं. ऐसे में इसे पाने की होड़ लगेगी ही. जहां होड़ लगेगी, वहां द्वेष होगा ही. और एक बार द्वेष पैदा हुआ तो वह कहां जाकर खत्म होगा, यह तो जेएनयू की वारदात बता ही चुकी है. हताशा खुलकर सामने आयी है. इससे निबटने के लिए अगली चाल हमारी है. मूल्यों की ओर लौट चलें तो बात बन सकती है. क्या हम इसके लिए तैयार हैं?